खांचे में बंटे पत्रकार आन्दोलन शांतनु की हत्या पर चुप क्यों

मीडिया            Sep 22, 2017


राकेश दुबे।
न जाने क्या हुआ ? पत्रकारिता पर हमले से चिंतित लोग चुप हो गये हैं। गौरी लंकेश की हत्या के मुकाबले भारत के उत्तर पूर्वी राज्य त्रिपुरा की राजधानी अगरतला में एक स्थानीय टीवी न्यूज चैनल के पत्रकार के अपहरण और उसके बाद उसकी हत्या को क्यों कमतर आँका जा रहा है। कथित वामपंथी मित्र जो गौरी लंकेश की हत्या के बाद लामबंद हुए थे, चुप क्यों है ? उत्तर एक ही है सुविधाजनक खांचे में बंटे लोग, सुविधा के अनुसार मौत को भी भुनाते हैं। किस घटना से क्या लाभ मिले, यही उद्देश्य रह गया है। अपने हमपेशा साथियों की मौत पर ऐसी चुप्पी खतरनाक है।

 स्व.शांतनु भौमिक का अपहरण उस वक़्त हुआ, जब वह पश्चिमी त्रिपुरा में इंडिजीनस फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) और सीपीएम के ट्राइबल विंग टीआरयूजीपी के बीच संघर्ष को कवर कर रहे थे। पुलिस के मुताबिक 'दिनरात' चैनल के पत्रकार शांतनु पर धारदार हथियार से हमला किया गया था, उन्हें अगरतला मेडिकल कॉलेज ले जाया गया,जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।

अखबार त्रिपुरा ऑब्जर्वर ने लिखा, ''सीपीआईएम का आरोप है कि आईपीएफटी के कार्यकर्ता मंडावी में उनके

ऑफिसों को निशाना बनाने वाले थे। पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े और लाठीचार्ज किया तो वे भाग गए। रास्ते में उन्होंने शांतनु को देखा जो अपने कैमरामैन के साथ दोनों पक्षों के टकराव को कवर कर रहे थे। शांतनु को कार्यकर्ताओं ने घेर लिया और धारदार हथियारों से हमला किया।
 

इस घटना के बाद सीपीएम और बीजेपी में आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर जारी है। सीपीएम के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया गया,''त्रिपुरा में बीजेपी के समर्थन वाली आईपीएफटी द्वारा पत्रकार की हत्या बीजेपी की हताशा ज़ाहिर करता है। पत्रकारों को ख़ामोश करने बीजेपी की आदत रही है। शर्मनाक।''वहीं, त्रिपुरा बीजेपी के हैंडल से ट्वीट किया गया,''त्रिपुरा में राजनीतिक संघर्ष कवर करने गए पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या। सीपीएम के शासन में न्याय-व्यवस्था का नामोनिशान ही नहीं है, सिर्फ़ हिंसा है|

सरकार अपने कारकुनों को कर्तव्य के दौरान इस तरह की घटना पर पदक, शाहदत का दर्जा और जाने क्या- क्या दे देती है। खांचे में बंटे पत्रकार आन्दोलन चुप है, क्योंकि शांतनु ने किसी बड़े आदमी की पगड़ी नही उछाली थी। उसका किसी राजनीतिक दल से कोई विवाद नहीं था।वह एक श्रमजीवी पत्रकार था और उसका कोई राजनीतिक गाड़ फादर नहीं था। इस बहाने ही सही, अपनी व्यवसायिक प्रतिष्ठा की खातिर खांचा तोड़कर बाहर आइये। ये चुप्पी और दिन दोनों अच्छे नहीं है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और प्रतिदिन पत्रिका के संपादक हैं।

 



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