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झुंड का क्रेडिट अमिताभ बच्चन और नागराज मंजुले ले जाएंगे

पेज-थ्री            Mar 03, 2022



डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।

मराठी में 'सैराट' जैसी जबरदस्त फिल्म बनाने वाले नागराज पोपटराव मंजुले निर्देशित फिल्म 'झुंड' देखने लायक है। अमिताभ बच्चन इसमें मुख्य भूमिका में है, लेकिन झोपड़पट्टी के बच्चों ने जिस तरह की एक्टिंग अमिताभ बच्चन के सामने की है, वह लाजवाब है!  

हालांकि फिल्म की कामयाबी की क्रेडिट अमिताभ बच्चन और डायरेक्टर नागराज मंजुले ले जाएंगे!

'झुंड' सच्ची कहानी पर आधारित है, (हालांकि फिल्म शुरू होने के पहले परदे पर लिखा हुआ होता है कि इसके सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं) नागपुर में विजय बारसे हिस्लॉप कॉलेज  में स्पोर्ट्स कोच थे।

एक दिन विजय बारसे ने देखा कि बारिश के दौरान जब अधिकांश लोग बरसात से बचाव की कोशिश कर रहे थे, तब झोपड़पट्टी में रहने वाले कुछ बच्चे प्लास्टिक के खाली  डिब्बे से मैदान में फुटबॉल की तरह खेल रहे थे।  

तभी विजय बारसे के मन में ख्याल आया कि अगर इन बच्चों को फुटबॉल और थोड़ी ट्रेनिंग दे दी जाए तो वे कितना कुछ कमाल कर सकते हैं।  

बारसे ने बच्चों को फुटबॉल दिया और कहा कि अगर वे आधा घंटा फुटबॉल खेलेंगे तो उन्हें पांच सौ रुपये इनाम देंगे।  इसके बाद 'झोपड़पट्टी फुटबॉल' की शुरुआत हुई।

पहले पुरस्कार के लालच में बच्चे खेलने लगे और फिर वे फुटबॉल के दीवाने हो गए। बाद में इसी से प्रेरित होकर 'स्लम सॉकर' की शुरुआत हुई।  

स्लैम वालों के फुटबॉल मैच होने लगे और फीफ़ा ने उसे मान्यता दी।

आज दुनिया के करीब डेढ़ सौ देशों में 'स्लम सॉकर' या 'होमलेस फुटबॉल' खेला जाता है।  

फिल्म का निर्देशन सधा हुआ है। सभी कलाकारों ने अच्छा अभिनय किया है। संगीत भी ठीक-ठाक है और कहानी भी मनोरंजक है।  दो-तीन दृश्यों के अलावा फिल्म में कहीं भी बोर नहीं करती। जो लोग टिकट खरीदकर फिल्म देखते हैं, उन्हें उनके टिकट का पैसा वसूल हो जाता है।

फिल्म भले ही फुटबॉल के बैग ड्रॉप  में हो, लेकिन फिल्म की कहानी में सभी कुछ है। भावुक कर देनेवाले दृश्य भी हैं और रोमांचित करने वाले भी। खिलाड़ियों के बीच का 'सद्भावना' मैच भी है और 'भावना भाभी' भी।

फिल्म में झोपड़पट्टी में रहने वाले लोगों की व्यथा है, वहां के बच्चों के आपराधिक किस्से हैं, अमिताभ बच्चन के परिवार का प्रेम और समर्पण भी है।  खेलों के प्रति  नेताओं का नजरिया भी है, पुलिस का नजरिया भी है।   

सरकारी दफ्तरों में किस तरह आम आदमी को भटकना पड़ता है उसका भी वर्णन  है। अमिताभ बच्चन का अदालत में दिया जाने वाला भाषण छोटा है, लेकिन फिर भी ग़ैरजरूरी है।  अमिताभ अदालत में महिला न्यायाधीश को बार-बार 'आदरणीय महोदया' कहते हैं, जो नहीं कहा जा सकता, न ही कहा जाता है। वह अटपटा लगता है।  पता नहीं, फिल्मों में भाषण के सीन डालना अमिताभ का शौक है या डायरेक्टर का?

सभी कलाकारों का अच्छा अभिनय, अच्छा निर्देशन और अच्छी कहानी। विजय बारसे आमिर खान के 'सत्यमेव जयते' और 'टेड टॉक' में आ चुके हैं। जो लोग उन्हें नहीं जानते, वे इस फिल्म के माध्यम से जान सकते हैं। अमिताभ ने उम्र के 80 वें वर्ष में भी छाप छोड़ी है।

देखनीय फिल्म है झुंड!

 



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