डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
द डिप्लोमैट सच्ची कहानी पर आधारित है। फ़िल्म का बैकड्रॉप पाकिस्तान का है, लेकिन इसमें 'पाकिस्तान मुर्दाबाद, हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद' नहीं है। बॉलीवुड का कोई टेम्पलेट नहीं वापरा गया। न मिर्च मसाला लपेटा गया। 'बाप, आखिर बाप होता है' जैसे डायलॉग भी नहीं। मोदी जी की तस्वीर तो क्या, नाम तक नहीं।
बड़े डिप्लोमैट निकले इसे बनानेवाले !
अगर दुनिया के किसी भी देश में भारतीय नागरिक संकट में हो तो हमारे डिप्लोमैट और दूतावास मदद करते हैं। फ़िल्म के अनुसार सचमुच ऐसा होता है।
इसकी कहानी एक (मूर्ख) लड़की उज़्मा अहमद की है जो एक पाकिस्तानी के ऑनलाइन प्रेम जाल में (या नौकरी के चक्कर में) फंसकर मलेशिया चली जाती है और फिर वीसा लेकर पाकिस्तान। वहां पता चला कि उसका माशूक अतिवादियों से मिला हुआ है। शादीशुदा और दो बच्चों का बाप है। उसका प्रेमी उसे बंधक बना लेता है और मारपीट-जुल्म ज्यादतियां करता है। प्रेमी को उल्लू बनाकर वह भारतीय दूतावास ले जाती है। प्रेमी बाहर और वह भागकर अंदर!
कहती है कि मैं भारत की बेटी हूँ, यहां फंस गई हूं। मुझे बचाओ। भारत भेजो। जेपी सिंह उप उच्चायुक्त थे, लड़की को बचा लेते हैं। बचाएंगे क्यों नहीं, जॉन अब्राहम है उनका नाम।
2017 की कहानी है। तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज मामले की गंभीरता समझती हैं, और उच्च स्तर पर एक्शन लेती हैं। मूक-बधिर गीता की तरह उज़्मा अहमद की भी वापसी होती है। यह वापसी साधारण नहीं थी।
इसमें जॉन अब्राहम है तो एक्शन तो होना ही था। डिप्लोमैट महोदय गोलीबारी के बीच अपनी बुलेट प्रूफ कार से उज़्मा को कैसे वाघा बॉर्डर तक लाते हैं, रोमांचक है।
फ़िल्म के संवाद और स्क्रीन प्ले सूझबूझ भरे हैं। पेशावर और खैबर पख्तूनवा की खूबसूरती आकर्षक लगती है। पाकिस्तान की पुलिस और कोर्ट को मानवीय दिखाया गया है। भारत की इज्जत और पाकिस्तान की इज्जत से ज्यादा महत्व जज महोदय एक औरत की इज्जत को देते हैं।
रेवती ने सुषमा स्वराज का रोल किया। यादगार रोल किया।
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