राकेश दुबे।
राफेल सौदे को लेकर जो एक बात कोई पूछ नहीं रहा है, वो महत्वपूर्ण है कि घोटाला अगर हुआ है तो उसकी रकम कहाँ है? क्या बोफोर्स की तरह इसमें में भी मिलने वाली रकम को कोई अदृश्य हाथ खा गया? रोज लगते आरोप और न्यायालय जाने के नाम पर चुप्पी, आरोपों को अर्धसत्य की श्रेणी में रखती है।
इस राफेल विमान सौदे पर यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण की ओर से आरोपों का जो नया पिटारा खोला गया है, उसमें कुछ को छोड़कर करीब-करीब वही बातें हैं, जो इसके पहले खुद इन तीनों के साथ-साथ राहुल गांधी की ओर से कही जा चुकी हैं।
अब सामने आ रही बातें थोड़ी देर के लिए सनसनी पैदा कर रही हैं कि राफेल सौदा कल्पना से भी बड़ा घोटाला है या फिर सरकार वायुसेना के अफसरों से भी झूठ बुलवा रही है।
अगर कोई पुष्ट प्रमाण सामने नहीं रखे जाते तो वे असर छोड़ने वाले नहीं। इसी तरह राफेल सौदे को लेकर सरकार की ओर से समय-समय पर दिए जाने वाले बयानों में विरोधाभास का उल्लेख कर घोटाला होने का दावा तो किया जा सकता है, लेकिन प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
अभी सभी के तर्क यह हैं किराफेल विमान पूर्व करार से कहीं अधिक महंगे खरीदे गए हैं, लेकिन लगता नहीं कि इस सौदे में घोटाला देख रहे लोगों के पास अपनी बात को सही साबित करने के पक्ष में कोई पुष्ट प्रमाण हैं।
इस सौदे में घोटाला देखने वालों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या मनमोहन सरकार के समय जिस कीमत पर राफेल विमान खरीदने की तैयारी थी,उसी कीमत पर २०१५ में भी ये विमान उपलब्ध हो जाते?
आखिर कब तक यह दोहराया जाता रहेगा कि करीब छह सौ करोड़ रुपए वाला विमान लगभग १६०० करोड़ रुपयों में क्यों खरीदा गया?
ऐसा आरोप लगाने वालों को यह पता होना चाहिए कि किसी सौदे में बाजार के हिसाब से कीमत तय करने पर वर्ष दर वर्ष मूल्य बढ़ते रहना एक स्वाभाविक प्रक्रिया जैसा है, लेकिन सच्चाई यह है कि रक्षा सौदों में संबंधित देश की आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तन किए जाते हैं और इसके चलते उनकी कीमत घटती-बढ़ती है।
राफेल सौदे को लेकर एक और महत्वपूर्ण आरोप यह है कि सरकारी कंपनी एचएएल की अनदेखी करके अनिल अंबानी की कंपनी को अनुचित फायदा पहुंचाया गया, लेकिन ऐसा कहने वाले यह नहीं बता पा रहे हैं कि क्या राफेल बनाने वाली फ्रांसीसी कंपनी दौसाल्ट एचएएल के साथ काम करने को तैयार थी?
क्या ऐसा संभव है कि ३६ राफेल विमान की खरीद का जो सौदा २०१५ में हुआ, उसके बारे में अनिल अंबानी के अलावा अन्य सभी और यहां तक कि फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति भी बेखबर थे?
बात साफ है कि चुनाव करीब आ रहे हैं, इसलिए विपक्ष और सरकार के आलोचक उसे कठघरे में खड़ा करने को उतावले हैं, लेकिन कम से कम रक्षा सौदों को सस्ती राजनीति का जरिया बनाने से बाज आना चाहिए।
जो यह दावे के साथ कह रहे हैं कि राफेल सौदे में घोटाला हुआ है, उन्हें इतना तो स्पष्ट करना ही चाहिए कि घोटाले की रकम कहां गई और किसे मिली?
इस पर भी गौर करें कि अदालत जाने के सवाल पर गोलमोल जवाब देते-देते अदालतों पर ही अविश्वास जता दिया गया।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और प्रतिदिन पत्रिका के संपादक हैं।
Comments