ध्रुव शुक्ल।
पिछले दिनों राज्यसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंथनिरपेक्षता की नयी परिभाषा करते हुए कहा कि --- सबको लाभ पहुंचाना सच्चा सेकुलरिज्म है। पर इसमें एक संवैधानिक निर्देश यह दिया गया है कि सभी नागरिकों के विश्वासों और व्यवहारों में राज्य के हस्तक्षेप के बिना ही यह लाभ पहुंचाने का उपाय किया जाना चाहिए।
लेकिन फिलहाल यही देखने में आ रहा है कि राज्य का पलड़ा किसी एक समाज के विश्वासों और व्यवहारों की ओर कुछ ज़्यादा ही झुका हुआ नज़र आता है। इसी कारण सामंजस्यपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय देने में राज्य की विफलताएं प्रकट होती रहती हैं। बाकी लोगों में असंतोष का भाव बना रहता है।
प्रधानमंत्री ने इस दौरान शेर पढ़ने की बजाय एक तुकबंदी सुनाकर संसद का मनोरंजन करना चाहा, पर हुआ नहीं --
कीचड़ उसके पास था, उसके पास गुलाल
जो भी जिसके पास था, उसने दिया उछाल
चाहे कीचड़ हो और चाहे गुलाल --- कुछ भी उछालने से लोकतंत्र नहीं चलता। सब राजनीतिक दल यही तो कर रहे हैं। मीडिया पर भी रोज़ कितने रंग-बिरंगे झूठ उछाले जाते हैं। क्या उनसे लोकतंत्र चलाया जा सकता है ?
उसे तो सबके सच को मिलाकर संभालना पड़ता है। कीचड़ में कमल भी तब ही खिल पाता है जब कीचड़ किसी सरोवर की गहराई में शान्त और स्थिर हो, किसी पर उछल न रहा हो।
गुलाल भी उछालने से सबकी आंखों में किरकिरी बनकर गढ़ने लगती है और उसका प्रेम से लगाया तिलक सबके माथे पर शोभा देता है। बात-बात पर उछलना और उछालना तो लोकतंत्र के लिए हानिकारक है।
प्रधानमंत्री जी राज्यसभा में अपने आपको सब पर भारी एक नेता के रूप में पेश कर रहे थे। वे ऐसे लग रहे थे जैसे चुनाव प्रचार कर रहे हों और बिखरा प्रतिपक्ष अपने विफल शोर का व्यर्थ भार प्रधानमंत्री और संसद पर डाल रहा था। चुनाव प्रचार वह भी कर रहा था।
पता नहीं उसे अपने ही शोर में प्रधानमंत्री का वह प्रश्न सुनायी दिया जो उन्होंने प्रतिपक्ष से पूछा है कि अगर आपको हमारी अर्थनीति पसंद नहीं तो आप ही बताइए कि आपकी अर्थनीति क्या है ?
प्रतिपक्ष को निश्चय ही हम भारत के लोगों को यह बताना चाहिए कि नये वैश्विक संदर्भ में उसकी अर्थनीति किस तरह वर्तमान सरकार से भिन्न होगी। यह जात-पांत के वोट बैंक को संभाले रखने से अधिक कठिन काम है।
देखने में आ रहा है कि सब राजनीतिक दल सेक्यूलर होने का ढोंग कर रहे हैं और उन्हें मंदिरों, मस्जिदों, मौलवियों और पादरियों की परिक्रमा करने से फुर्सत ही नहीं मिल रही।
प्रधानमंत्री इशारों में प्रतिपक्ष से यह भी कह रहे थे कि आप पर मेरे भारी पड़ जाने में आपका ही योगदान है। हमारा संविधान स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय पर आधारित है किसी धर्म, मज़हब और रिलीजन पर नहीं।
और अंत में ---
जवाहरलाल नेहरू के यहां कोई पुत्र नहीं हुआ, बेटी के रूप में इंदिरा जी ही थीं। उनका विवाह फिरोज़ गांधी से हुआ। अंत: भारतीय परंपरा के अनुसार उनसे आगे बढ़ने वाला वंश गांधी परिवार के रूप में ही जाना जायेगा। वे अपना उपनाम नेहरू कैसे रख सकते हैं?
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