राकेश दुबे।
अपने अंतर्विरोधों से जूझती कांग्रेस पार्टी से उसके दिग्गज नेता किनारा करते जा रहे हैं।
आनंद शर्मा की शिकायत भी लगभग वही रही जिससे ज्योतिरादित्य सिंधिया त्रस्त रहे।
पूरा अधिकार व सम्मान न दिये जाने से की शिकायत ये नेता पद से मुक्त होने के बाद ही क्यों करते हैं ? यह भी एक प्रश्न है।
ऐसा ही सवाल जी -23 समूह के लोग पूछते रहे परन्तु कोई जवाब नहीं आया ।
अब कांग्रेस पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष की प्रक्रिया आरंभ होने के साथ हिमाचल प्रदेश में आसन्न विधानसभा चुनाव से पूर्व पार्टी के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने राज्य की संचालन समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया गया है।
आनंद शर्मा ने भी सोनिया गांधी को लिखे पत्र में कहा है कि स्वाभिमान से समझौता नहीं किया जा सकता।
सर्व विदित है इससे पहले जी-23 समूह के एक अन्य दिग्गज नेता गुलाम नबी आजाद ने भी जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था।
कहना मुश्किल है कि वे पार्टी में पर्याप्त अधिकार न दिये जाने से क्षुब्ध हैं या फिर बेहद लंबे अनुभव के आधार पर जनता का मूड भांप रहे हैं।
बहरहाल, इतना तो तय है कि कांग्रेस पार्टी अपने अंतर्विरोधों से उबर नहीं पा रही है।
कई राज्यों के पिछले विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बाद उम्मीद थी कि पार्टी वक्त की चाल में ढल कर संगठन में नई ऊर्जा का संचार करेगी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।
अब पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया आरंभ हो गई। दावा किया जा रहा है कि बीस सितंबर तक पार्टी को पूर्णकालिक अध्यक्ष मिल जायेगा।
अब देखना होगा कि यह अध्यक्ष गांधी परिवार से ही होगा या दौड़ में शामिल कुछ लोगों को भी मौका मिल सकेगा?
ऐसे वक्त में जब बड़े बहुमत से सत्ता में आई केंद्र सरकार निरंकुश व्यवहार कर रही है, कांग्रेस को विपक्ष की आवाज बनकर उभरना था वैसा नहीं हो रहा है।
सरकारी जांच एजेंसियों के जरिये राहुल गांधी व सोनिया गांधी से प्रत्यक्ष तौर पर घंटों पूछताछ हो चुकी है। यह प्रक्रिया अभी जारी है।
ऐसे में देश की आंतरिक व बाह्य नीतियों पर राहुल गांधी बात का अर्थ खोता जा रहा है, उससे यह नहीं लगता है कि वे जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभा रहे ह
राहुल गांधी भी जिस अंदाज से देश के संवेदनशील व जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों पर अपनी बात रखी हैं। मुद्दों पर विरोध व असहमति जताई है। उसमे विपक्षी नेता की भूमिका में निरंतरता की कमी खलती है।
अकसर सुर्खियों में रहता है कि वे अचानक किसी दूसरे देश में पारिवारिक कारणों से या फिर सैर-सपाटे पर निकले हैं।
जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाने वाले नेता से उम्मीद की जाती है कि राजनैतिक व्यवहार में निरंतरता बनाये रहे।
इस भूमिका के निर्वहन के लिये पारिवारिक व निजी कार्यों को पार्श्व में रखकर पार्टी व विपक्ष का मनोबल बढ़ाना प्राथमिक काम होना चाहिए। इससे ही विपक्षी नेता की विश्वसनीयता को गंभीरता से लिया जाता है।
ऐसे वक्त में जब कई क्षेत्रीय राजनीतिक दल भाजपा की ए व बी टीम की भूमिका में हैं और कुछ दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हिलोरे ले रही हैं तथा कुछ विपक्ष सरकारी जांच एजेंसियों के दबाव में है, कांग्रेस से दमदार विपक्षी नेतृत्व की उम्मीद की जा रही हैं।
पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष को लेकर राहुल गाँधी और उनके परिवार की ‘न’ व ‘हां’ से कार्यकर्ताओं में जीत का जज्बा पैदा नहीं हो पाया।
राजनीतिक पंडित तो यहां तक कहते हैं कि राहुल गांधी की यह ऊहापोह की राजनीतिक शैली केंद्र में सत्तारूढ़ राजग सरकार को रास आती है।
जिससे न केवल राजग अपने राजनीतिक अभियान को गति दे पा रहा है, बल्कि वहीं दूसरी ओर मजबूत विपक्ष को उभरने का मौका भी नहीं दे रहा है।
हकीकत में कांग्रेस अपने आंतरिक द्वंद्व से उबर नहीं पा रही है, लगातार लगने वाले झटकों व कई दिग्गजों के पार्टी छोड़ने के बाद भी पार्टी की रीति-नीतियों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है।
इसके बावजूद पार्टी के दिग्गजों का एक समूह लगातार संगठन में रहकर पार्टी में निरंतर सुधार व बदलाव की बात करता रहा है।
कुछ अन्य दिग्गज नेता भी पार्टी के फैसलों को लेकर असहमति जताते रहते हैं। इससे पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। जो इस बात का साफ संकेत है कि कांग्रेस में सब-कुछ ठीक नहीं है।
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