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हालात शिवराज के लिए मुफीद नहीं हैं?

राजनीति            Jan 15, 2019


हेमंत पाल।
शिवराजसिंह चौहान इन दिनों जो भी कदम उठाते हैं, वो उल्टा पड़ जाता है। विधानसभा चुनाव में हार के बाद जो हालात बने हैं, वो शिवराजसिंह के लिए मुफीद साबित नहीं हो रहे हैं।

भाजपा की हार और मध्यप्रदेश में चौथी बार सरकार न बना पाने के मलाल के बाद सबसे बड़ा सवाल भी यही था कि अब मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री किस भूमिका में नजर आएंगे?

पार्टी ने उनकी भूमिका तय कर दी, उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया। सुनने में उपाध्यक्ष पद बड़ा और प्रतिष्ठित लगता है और है भी। लेकिन, शिवराज सिंह के कद के अनुरूप नहीं।

13 साल मुख्यमंत्री रहने के बाद पिछले एक महीने में उनके साथ पार्टी ने जो कुछ किया वो ये समझने के लिए काफी है कि वे पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व की आँख की किरकिरी बन गए हैं।

अब ये सुना जा रहा है कि उन्हें लोकसभा का चुनाव लड़वाने की तैयारी है। लेकिन, उन्हें विदिशा से खड़ा नहीं किया जाने वाला है। उन्हें छिंदवाड़ा जैसी चुनौती वाली सीट से उतारा जा सकता है। सारे घटनाक्रम को देखकर क्या ये समझा जाए कि उन्हें प्रदेश की राजनीति से बाहर किया जा रहा है।

मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान ने सबसे लम्बे समय तक मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। वे लगातार 13 साल तक इस पद पर रहे। अपने कार्यकाल में उन्होंने काफी रंग जमाया।

यही देखकर पार्टी ने चुनाव में उनके चेहरे पर दांव लगाया। पार्टी का मानना था कि उनकी जनलोकप्रियता इतनी है कि आसानी से प्रदेश में चौथी बार सरकार बन जाएगी लेकिन, ये भ्रम दूर होते देर नहीं लगी।

पिछले चुनाव में 165 सीटें जीतने वाली भाजपा की गाड़ी 109 पर अटक गई। पार्टी को हुए इस नुकसान में शिवराजसिंह की कितनी हिस्सेदारी थी, ये अलग बात है। पर, पार्टी ने चुनाव नतीजों के बाद उनके साथ जिस तरह का व्यवहार किया, वो साफ़ नजर आ रहा है।

लगता है कि वे पार्टी की आँख की किरकिरी बन गए। उनकी किसी बात को तवज्जो नहीं दी जा रही।

विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद जब भाजपा बहुमत के मैजिक फिगर से सात कदम दूर रही, तो सबसे पहले शिवराजसिंह चौहान ने मतदाताओं के प्रति 'आभार यात्रा' निकालने का सिक्का उछाला। यहाँ तक कि यात्रा निकालने का रोड-मैप भी बना लिया गया था।

ये शिवराजसिंह का तयशुदा राजनीतिक फार्मूला है। किसी भी मुद्दे पर वे बिना सोचे-समझे और नतीजे की पहवाह किए बिना यात्रा पर निकल पड़ते हैं। 'आभार यात्रा' भी उसी फॉर्मूले का हिस्सा था। लेकिन, अभी उनकी बात भी पूरी नहीं हुई थी कि पार्टी के दिल्ली दरबार ने उन्हें ऐसा कुछ भी करने से मना कर दिया।

तर्क यह दिया गया कि जब मतदाताओं ने बहुमत ही नहीं दिया, तो आभार किस बात का? बात सही भी थी। इसके बाद भी शिवराजसिंह अपनी यात्रा की आदत से बाज नहीं आए और अकेले ही मेलजोल की यात्रा पर निकल पड़े। अब भला पार्टी उन्हें ऐसा कुछ करने से तो रोकने से रही।

इसके बाद संभावना जताई गई, कि पार्टी उनके राजनीतिक अनुभव और प्रशासनिक समझ को देखते हुए विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी देगी। लेकिन, अफ़सोस ये भी नहीं हुआ! पार्टी ने उनके नाम पर विचार तक नहीं किया। स्थिति ये हो गई कि शिवराजसिंह को खुद ही आगे बढ़कर कहना पड़ा कि वे खुद ही नेता प्रतिपक्ष बनना नहीं चाहते।

कुछ अख़बारों में तो बकायदा इस आशय की ख़बरें भी छपी कि शिवराजसिंह ने ही नेता प्रतिपक्ष का पद लेने से इंकार किया है। जबकि, सच्चाई ये बताई जा रही है कि उनसे इस बारे सलाह-मशविरा तक नहीं किया गया। जिस नेता का प्रदेश में 13 साल तक एकछत्र राज रहा हो, उसे पार्टी ने एक झटके में किनारे कर दिया।

कहते हैं कि जब वक़्त ख़राब हो तो ऊंट पर बैठे आदमी को भी कुत्ता काट लेता है। कुछ ही शिवराजसिंह के साथ भी हो रहा है। वे तो राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ मेलजोल बनाकर चल रहे हैं, पर कई बार दूसरों के बयान उनके लिए नुकसान का कारण बन जाते हैं।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक संघप्रिय गौतम ने 2019 में केंद्र की सत्ता में भाजपा की वापसी के लिए सरकार और संगठन में बदलाव की हिमायत की।

उन्होंने उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री के पद से योगी आदित्यनाथ को हटाकर वहाँ राजनाथ सिंह को बैठाने और शिवराज सिंह चौहान को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की सलाह दे डाली।

नितिन गडकरी को उप-प्रधानमंत्री बनाने का बिन माँगा सुझाव भी इसकी अगली कड़ी था। यानी बैठे-ठाले शिवराजसिंह को अमित शाह के मुकाबले में खड़ा कर दिया गया। एक ये भी वजह है कि वे अमित शाह की आँख कि किरकिरी बन गए।

इन दिनों उनके जुमले भी मजाक बन गए! चुनाव में पार्टी की हार के बाद शिवराजसिंह चौहान ने अपने विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं को निश्चिंत रहने का आश्वासन भी बेहद अनूठे स्टाइल से दिया।

उन्होंने बुधनी की जनता को संबोधित करते हुए कहा 'आगे क्या होगा, इस बात की चिंता न करें। क्योंकि टाइगर अभी जिंदा है।' उनके इस बयान की भी खूब खिल्ली उड़ी। दिग्विजय सिंह से लगाकर अरुण यादव तक ने इस बयान के जमकर मजे लिए।

दिग्विजय सिंह ने तो कहा कि इस टाइगर को अब संरक्षण की जरुरत है। कहने का मतलब ये हुआ कि शिवराजसिंह ने पिछले महीनेभर में जो किया या बोला उसे गंभीरता में नहीं, बल्कि मजाक में ज्यादा लिया गया।

सदन में विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव को लेकर भी जो कुछ घटा, उस कारण भी शिवराजसिंह को नीचा देखना पड़ा। परंपरा के अनुसार तय हुआ था कि अध्यक्ष पद कांग्रेस लेगी और उपाध्यक्ष पद भाजपा को दिया जाएगा। इसके लिए चुनाव नहीं होगा।

लेकिन, शिवराजसिंह को न जाने क्या सूझा और उन्होंने विधायक कुंवर विजय शाह का परचा अध्यक्ष पद के लिए भरवा दिया। ये जानते हुए भी कि कांग्रेस की बुलाई बैठक में 120 विधायक मौजूद थे।

कांग्रेस ने भी इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और एनपी प्रजापति को अध्यक्ष निर्वाचित करवा लिया। इसके बाद विधानसभा अध्यक्ष पद के लिए अपनी पार्टी के उम्मीदवार के नाम का प्रस्ताव पेश न करने को लेकर भाजपा ने सदन से वॉकआउट कर दिया।

सारे विधायकों को पैदल मार्च कराते हुए शिवराजसिंह चौहान राजभवन तक भी गए। उनकी मांग थी कि अध्यक्ष का निर्वाचन फिर से हो! शिवराज ने इसे लोकतंत्र की हत्या करार दिया। इस फिजूल के प्रोपोगंडे का असर ये हुआ कि कांग्रेस ने भाजपा को उपाध्यक्ष पद भी नहीं दिया और अपनी विधायक हिना कांवरे को सदन का उपाध्यक्ष बना दिया।

अब एक नई चर्चा ये भी शुरू हो गई है कि पार्टी शिवराजसिंह चौहान को लोकसभा चुनाव में उतारना चाहती है। इस चर्चा के साथ ही ये संभावना जताई जाने लगी कि हो सकता है भाजपा उन्हें विदिशा से मैदान में उतारे। क्योंकि, यहाँ की सांसद सुषमा स्वराज ने अगला चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है।

विदिशा ऐसी सीट है जिस पर भाजपा का कोई भी नेता आसानी से चुनाव जीत सकता है। जबकि, छिंदवाड़ा और गुना दो लोकसभा सीटें की ऐसी सीटें हैं, जिसे भाजपा किसी भी कीमत पर जीतने का पार्टी एलान कर चुकी है।

पार्टी को इन सीटों के लिए दमदार उम्मीदवार चाहिए और शिवराज से दमदार तो कोई हो नही सकता। 2003 के विधानसभा चुनाव में भी वे राधौगढ़ से दिग्विजय सिंह के खिलाफ लड़ चुके हैं। लेकिन, अभी पार्टी ने पूरे पत्ते नहीं खोले हैं कि उन्हें कहाँ से और किसके खिलाफ चुनाव लड़ाया जाएगा। लेकिन, उड़ती-उड़ती ख़बरें बताती है कि उन्हें छिंदवाड़ा भेजा जा सकता है, जहाँ से इस बार कमलनाथ अपने बेटे नकुल को चुनाव लड़वाना चाहते हैं।

पार्टी के रवैये से यही निष्कर्ष निकलता है कि शिवराजसिंह के लिए आगे की राह आसान नहीं है। पार्टी उन्हें मध्यप्रदेश की राजनीति में उतना फ्री-हैंड देना नहीं चाहती, जितना वे पाने की कोशिश में हैं। यानी मुश्किलों की राह अभी आसान नहीं हुई।

लेखक 'सुबह सवेरे' इंदौर के स्थानीय संपादक हैं

 


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