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मप्र, छग, राजस्थान:जीत का सेहरा संघ के सिर, हार का ठीकरा सरकार के माथे

राजनीति            Nov 28, 2018


राकेश दुबे।
कल अर्थात २८ नवम्बर को मध्यप्रदेश के मतदाता भी अपना मत देकर ११ दिसम्बर का इंतजार करने लगेंगे। जैसे छतीसगढ़ के मतदाता कर रहे हैं। ११ दिसम्बर को पांच राज्यों के परिणाम आयेंगे तो ये पता चल जायेगा कि आख़िर इस चुनाव की श्रंखला का नायक कौन है और खलनायक कौन ?. वैसे सबकी उत्सुकता भाजपा शासित तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के परिणामों पर हैं।

राजस्थान को छोड़ दो राज्यों में भाजपा की सरकार पिछले पंद्रह वर्षों से है। राजनीतिक दल कुछ भी कहें, जीत के कितने घोड़े दौडाएं तीनों राज्यों में कुछ मुद्दे समान है। इन मुद्दों के साथ ही छतीसगढ़ के मतदाता मतदान किया है और मध्यप्रदेश में कल होने जा रहा है।

ये मुद्दे युवा बेरोजगारी,फ़सल के दाम ना मिलने से किसान, ब्यापारी नोटबंदी और जीएसटी है। आम शिकायत है कि पिछले चुनाव में जब वोट दिया था तो लोगों को उम्मीद थी कि कुछ महीने बाद, प्रधानमंत्री होते ही नरेंद्र मोदी ऐसी योजना या कार्यक्रम चलाएँगे जिससे बेरोज़गारों को रोज़गार और किसानो को अच्छी फ़सल का मूल्य मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।

सभी दूर सिर्फ योजनाओं का नाम बदले गये। पात्र छूट गये अपात्र लाभान्वित हुए। सरकार की जय बोलते लाभार्थियों से ज्यादा संख्या नाराज़ लोगों दिख रही हैं। उज्ज्वला योजना की तारीफ होती है, लेकिनरसोई गैस सिलेंडर के बढ़े दामों से लोग ख़ुश नही हैं।

कल मध्यप्रदेश के मतदाता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता को कसौटी पर कसेंगे। मतदाता का मूड भांपने में इस बार राजनीतिक दल और मीडिया पूरी तरह सफल नहीं हुए है। आम लोगों के ज़ुबान पर परिवर्तन की बात है। इसके विपरीत दूसरा पक्ष शिवराज सिंह का सौजन्यपूर्ण व्यक्तिगत व्यवहार है।

प्रदेश में खेत से मंडी तक लागत और दाम के बीच सामंजस्य ना होना भारी दिखाई दे रहा है। पिछले दो बार शिवराज को कांग्रेस ने सौजन्य बरत कर वॉक ओवर दिया था। इस बार ऐसा नहीं है।

अभी तक तो प्रतिपक्षी अखाड़े में कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया एकजुट चुनावी मुक़ाबला करते दिख रहे हैं, साथ ही अंदरखाने की प्रतिस्पर्धा भी जारी है। यह तथ्य प्रमाणित है कि जब कांग्रेस ने सौजन्य, अपना अहंकार और व्यक्तिगत इगो का साथ छोड़ा, परिणाम बदले हैं।

१९९३ के चुनाव उदहारण है तब कांग्रेस ने राम मंदिर लहर के बाद मध्यप्रदेश में चुनाव जीता था। इस बार यहां शिवराज और भाजपा का पार्टी संगठन पूरे तन मन से साख बचाने में लगे हैं। संसाधन और संगठन दोनों की शक्ति उनके पास है। फिर भी मतदाता के मूड का कोई भरोसा नहीं है।

वैसे कई सीटों पर बाग़ी उम्मीदवार दोनो दलों का खेल बिगाड़ रहे हैं और संघ, अपनी भूमिका में भाजपा की मदद में तब आया है, जब लगभग पूरा चुनाव निबट गया था। जीत का सेहरा संघ के सिर और हार का ठीकरा सरकार के माथे फूटना तय है।

अब बात छतीसगढ़ की। वहाँ परिवर्तन शब्द आपको हर जगह सुनने को मिला। ऐसा कोई एक कार्यक्रम या काम नहीं हैं जिसकी चर्चा सरकार को समर्थन करती हो। कांग्रेस ने रमन सिंह के ख़िलाफ़ कोई चेहरा नहीं दिया सर फुटौवल के बावजूद कांग्रेस के कैम्प में एकजुटता दिखती है। बीएसपी और अजित जोगी कई सीटों पर भाजपा से ज़्यादा कांग्रेस का खेल ख़राब कर रहे हैं। आम लोगों में कांग्रेस के गंगाजल हाथ में लेकर किये गये वादे का असर हुआ है।

जिसके अंतर्गत उन्होंने किसानों के क़र्ज़ माफ़ी के अलावा धान की ख़रीद पिछले दो साल के बोनस के साथ ख़रीदने की बात की है। यह भाजपा के लिए घातक और कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम कर सकती है। यहाँ भी संघ अंतिम समय पर सक्रिय हुआ।

राजस्थान भाजपा का सबसे कमज़ोर क़िला है। राजस्थान जहां एक बार फिर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की कामकाज की शैली से विरोधियों से ज़्यादा उनकी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता जीत को ले के निराश दिख रहे हैं। वैसे भाजपा की स्थिति टिकट बंटवारे और प्रचार के दौरान सुधरी है लेकिन यहां भी संघ के सहारे के बिना बेडा पार नहीं दिखता। सभी जगह जीत का सेहरा संघ के सिर और हार का ठीकरा सरकार के माथे है।

 



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