डॉ.रजनीश जैन।
भ्रम में डाल दिया तुलना करके। उमाबेन आईं और थ्योरी प्रतिपादित करके चली गईं कि मध्यप्रदेश के बुदेलखंड वाले पृथक बुंदेलखंड इसलिए नहीं चाहते क्योंकि यहाँ का खूब विकास हो चुका है। यूपी वाला बुंदेलखंड पिछड़ चुका है। उमाजी का यह बयान इस इलाके के बाबत उनकी अपरिपक्वता का परिचय देता है। सच यह है कि एमपी के बुंदेलखंडवासियों ने बहुमत से पृथक बुंदेलखंड की मांग का समर्थन आजादी के बाद से ही कभी नहीं किया। इसके पीछे के कारण ऐतिहासिक हैं।
मध्यप्रदेश के नक्शे को सामने रखिए और जरा अतीत में झांकिए कि जब उप्र और मध्यप्रदेश का सीमांकन हो रहा था तो क्या कारण थे कि एक पूंछ के आकार का भौगोलिक क्षेत्र जिसमें यूपी के झांसी और ललितपुर जिले हैं वह एमपी के भीतर घुसेड़ दिया गया। सीधे शब्दों में कहें तो इन दो जिलों का साफतौर पर एमपी में रहना बनता था। लेकिन नक्शे पर लकीरें खींचते वक्त कोई ऐसा था जो ऐसा होने देना नहीं चाहता था। झांसी और ललितपुर के एमपी में शामिल होने से ग्वालियर के सिंधियाओं का राजनैतिक बर्चस्व खत्म होने का साफ साफ खतरा था।इन दोनों जिलों के जनमानस में सिंधियाओं के प्रति सदैव दुश्मनी का भाव रहा है।इन इलाकों में सिंधियाओं की छवि पर उनके पुरखों ने डेंट लगाया है, 1857 की आजादी की जंग भी उसी इतिहास का हिस्सा है। तो प्रदेशों के निर्माण के समय सिंधियाओं ने अपने रसूख का इस्तेमाल किया और दो जिलों को नजदीक होने के बावजूद यूपी भिजवा दिया। सिंधिया राजघराना शासित सभी जिले मध्यप्रदेश में होने से भविष्य की चुनावी राजनीति में उनका शक्ति संतुलन हमेशा के लिए प्रभावी हो गया।
यह भी एक तथ्य है कि जहां जहां मराठों और अंग्रेजों ने सीधे शासन किया है वहां का प्रशासनिक प्रबंधन, कानून व्यवस्था, विकास और समृद्धि तुलनात्मक रूप से श्रेष्ठ रही है। सागर, दमोह जैसे जिले इन्हीं वजहों से तुलनात्मक रूप से विकसित और शांत जिले रहे हैं। छतरपुर, पन्ना और टीकमगढ़ में सामंतवाद की छाया गहरी रही और यही वजह है कि यहाँ लोकतंत्र को जड़ें जमाने में समय लगा। यहां के बहुत से इलाकों में तो अब भी लोकतंत्र कहने भर को है। सरकारी रिकार्ड में सरपंच भले ही कोई हो लेकिन उसकी सील मुहर वहीं रखी रहती है जहां से सत्ता हमेशा चलती आई है।
भैयाराजा जैसे बाहुबलियों की एक जबरदस्त श्रंखला अब भी अस्तित्व में है और प्रभावशील है। प्रतिक्रियावादी जनता ने कपूरचंद घुवारा जैसे कम्यूनिस्ट नेता को विधायक चुने भी तो उन्हें सामंतवाद ने सरवाइव नहीं करने दिया। क्योंकि उन्हें परफार्मेंस दिखाने लायक ला एंड आर्डर मौजूद नहीं था। जिन ग्रामीण हलकों में योजनाएं और विकास क्रियान्वित होना था वहां की गली कूचों पर राजाओं का ही राज था। जनता पर्दे की ओट में छिपकर हंसियाबाल पर वोट तो दे सकती थी लेकिन गांव के भीतर सरकारी पैसे से तब तक कुटीर भी नहीं बनवा सकती थी जब तक इलाके के सामंत की रज़ा न हो।
इन कठिन परिस्थितियों में उमाभारती ने इस इलाके में अपनी राजनीति का सिक्का चलाया तो उसकी वजह उनकी प्रवचनकर्ता साध्वी और गेरुआ बाने की ख्याति थी। धर्म की पताका को यहाँ सामंत भी सलाम करते हैं और उमा ने अपनी मेधा से धर्म को राजनीति में तब्दील कर लिया। जब खालिस नेता के रूप में वे इलाके में चुनाव लड़ने गयीं तो बड़ा मलहरा के चुनाव वाला परिणाम मिला जिसकी टीस वे चाह कर भी नहीं भूल पातीं।
बुंदेलखंड के सामंतवाद से निपटने की प्रक्रिया पर सरकारों ने बहुत कम ध्यान दिया है। कांग्रेस तो सामंतवाद का जुआ अपने कंधों पर ही लेकर चली और सत्ता की सुगमता के लिए सामंतवाद को मजबूत भी करती रही। एमपी में भाजपा ने इस जड़ता को तोड़ने की टारगेटेड पहल की और उसे इसके श्रेष्ठ परिणाम मिले हैं। हालात यहां तक तो आ गये कि संघ का एक साधारण कार्यकर्ता वीरेंद्रकुमार अपनी संसदीय सीट सागर छोड़कर अचानक ही टीकमगढ़ भेजा जाता है तो वह वहां से भी लगातार सांसद चुना जाता है। छतरपुर में एक साधारण से बस कंडक्टर की पत्नी चुनाव जीतती है और फिर पार्टी उसे ही मंत्री बनाने का निर्णय लेती है ताकि सामंतवाद के खिलाफ चल रहा अभियान और बलवती हो।
बांदरी की सभा में उमाभारती ने यूपी बुंदेलखंड के सारे विधायक भी बुलाये थे और सबको खड़ा करके मंच से उनका परिचय कराया। रोचक अंदाज था जो बुंदेलखंड में परिवर्तन का सूत्र भी बताता है। बोलीं कि ये हमारे महरौनी से विधायक हैं मनोहरलाल कोरी, 95 हजार वोटों से विधानसभा जीते हैं, ये ललितपुर से रामरतन कुशवाहा , पहली बार पार्टी के लिए सीट छीनकर लाये हैं।इस तरह के परिचय से उन्होंने संदेश दिया कि बदलाव के पीछे पार्टी की लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए प्रतिबद्धता भी होना चाहिए।
पता नहीं उमाबेन बुंदेलखंड के बदलाव की समीक्षा इस तरह से करती भी हैं कि नहीं। क्योंकि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में तो बुंदेलखंड में अराजकता की एक नई लहर आ गयी थी।संघ और भाजपा ने अपने एजेंडे को असफल होते देख कर ही अपने अनुकूल नेतृत्व चुना था। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने एमपीे के बुंदेलखंड में जो किया है वह आज यूपी के लिए प्रेरणा बन चुका है, लेकिन भूलिए मत कि यह पथरीली जमीन अभी बहुत मेहनत मांग रही है। सामंतवाद और भेदभाव अब भी पर्याप्त मात्रा में शेष है। राजनैतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार अब भी खूब है। बड़े प्रोजेक्ट, प्राकृतिक खनिज संपदा आधारित उद्योग, परिवहन के असरदार साधन ,वनों और वन्यप्राणियों की सुरक्षा बहुत कुछ की दरकार है। दर असल बुंदेलखंड की पीड़ा का अभी केंद्र सरकार ने सिर्फ डायग्नोसिस किया है। उपचार का अब भी इंतजार है। ऐसे में जब कोई एमपी के बुंदेलखंड को समृद्ध बताता है तो मुझे अपनी मातृभूमि के प्रति साजिश दिखाई देने लगती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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