मल्हार मीडिया ब्यूरो। भारत के संवैधानिक इतिहास में पहली बार केंद्र ने मुसलमानों के बीच तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह प्रथा का शुक्रवार को उच्चतम न्यायालय में विरोध किया। साथ ही, लैंगिक समानता और धर्मनिरपेक्षता जैसे आधार पर इन पर पुनर्विचार करने का समर्थन किया। तीन तलाक से मतलब एक साथ तीन बार तलाक बोलने से है।
कानून एवं न्याय मंत्रालय ने अपने हलफनामे में लैंगिक समानता, धर्मनिरपेक्षता, अंतरराष्ट्रीय समक्षौतों, धार्मिक व्यवहारों और विभिन्न इस्लामी देशों में वैवाहिक कानून का जिक्र किया ताकि यह बात सामने लाई जा सके कि एक साथ तीन बार तलाक की परंपरा और बहुविवाह पर शीर्ष न्यायालय द्वारा नये सिरे से फैसला किए जाने की जरूरत है।
मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव मुकुलिता विजयवर्गीय द्वारा दाखिल हलफनामा में बताया गया है, यह दलील दी गई है कि तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह की प्रथा की मान्यता पर लैंगिक न्याय के सिद्धांतों तथा गैर भेदभाव, गरिमा एवं समानता के सिद्धांतों के आलोक में विचार किए जाने की जरूरत है।
मुसलमानों में ऐसी परंपरा की मान्यता को चुनौती देने के लिए शायरा बानो द्वारा दायर याचिका सहित अन्य याचिकाओं का जवाब देते हुए केंद्र ने संविधान के तहत लैंगिक समानता के अधिकार का निपटारा किया था।
इसने कहा, इस न्यायालय द्वारा दृढ़ इच्छा के लिए मूलभूत सवाल यह है कि क्या एक पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र में समान दर्जा और भारत के संविधान के तहत महिलाओं को उपलब्ध गरिमा प्रदान करने से इंकार करने के लिए धर्म एक वजह हो सकता है।
संवैधानिक सिद्धांतों का जिक्र करते हुए इसने कहा कि कोई भी कार्य जिससे महिलाएं सामाजिक, वित्तीय या भावनात्मक खतरे में पड़ती हैं या पुरुषों की सनक की जद में आती है तो यह संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 (समानता का अधिकार) की भावना के अनुरूप नहीं है।
इन मुद्दों को जीवन का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोड़कर केंद्र ने अपने 29 पन्नों के हलफनामे में कहा है कि लैंगिक समानता और महिलाओं की गरिमा पर कोई सौदेबाजी और समझौता नहीं हो सकता। इसने कहा कि ये अधिकार उस हर महिला की आकांक्षाओं को साकार करने के लिए जरूरी हैं जो देश की समान नागरिक हैं। साथ ही, समाज के व्यापक कल्याण और राष्ट्र की आधी आबादी की प्रगति के लिए भी ऐसा किया जाना जरूरी है।
केंद्र के हलफनामे में कहा गया है कि महिलाओं को विकास में अवश्य ही समान भागीदार बनाना चाहिए और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को आधुनिक बनाना चाहिए। समानता का अधिकार और गरिमा के साथ जीवन जैसे मौलिक अधिकारों के समर्थन में इसने शीर्ष न्यायालय के विभिन्न फैसलों का भी जिक्र किया। साथ ही इन्हें संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा बताया।
केंद्र ने यह भी कहा कि संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य होने के नाते भारत अंतरराष्ट्रीय समझौतों और संरा चार्टर को लेकर प्रतिबद्ध है जो पुरुषों और महिलाओं के लिए समान अधिकारों की बात करता है। हलफनामे में मूल अधिकारों के बारे में पर्सनल कानूनों के मुद्दे से व्यापक रूप से निपटा गया है।
इसने कहा कि महिलाओं के लिए लैंगिक समानता के अति महत्वपूर्ण लक्ष्य के आलोक में पर्सनल कानून की अवश्य ही पड़ताल होनी चाहिए। सवाल उठता है कि क्या इस तरह की विविध पहचानों के संरक्षण के जरिए महिलाओं को दर्जा और लैंगिक समानता से इनकार किया जाए जिन्हें वह संविधान के तहत पाने की हकदार हैं।
इसने 1952 के बंबई उच्च न्यायलय के उस फैसले पर भी पुनर्विचार करने की मांग की जिसमें कहा गया था कि बहुविवाह की परंपरार महाराष्ट्र के कुछ हिस्से में प्रचलित है जिसे असंवैधानिक नहीं ठहराया जा सकता।
हलफनामे में यह भी कहा गया है कि पर्सनल लॉ संविधान के तहत परिभाषित कानून के दायरे में आता है और मूल अधिकारों से असंगत ऐसा कोई कानून अमान्य है। केंद्र ने इस मामले में ऑल इंडिया मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) द्वारा दाखिल हालिया हफलमाने का जिक्र करते हुए कहा कि ट्रिपल तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह प्रथा को धर्म का आवश्यक हिस्सा नहीं माना जा सकता। इस तरह संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक आचरण की स्वतंत्रता) के तहत संरक्षण का हकदार नहीं है।
कानून एवं न्याय मंत्रालय ने पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की और अफगानिस्तान सहित इस्लामी देशों और विवाह कानून में किए गए बदलाव की एक सूची मुहैया की। इसके अलावा केंद्र ने स्पष्ट किया कि जरूरत पड़ने पर यह एक और विस्तत हलफनामा दाखिल कर सकता है।
इस बीच, हैदराबाद से प्राप्त खबर के मुताबिक आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के राज्य अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष आबिद रसूल खान ने कहा कि वह इस मामले में उच्चतम न्यायालय में एक पक्षकार बनेंगे ताकि यह ब्योरा दे सकें कि मुस्लिम समुदाय में क्या हो रहा है। इससे मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा हो सकेगी। गौरतलब है कि वह ट्रिपल तलाक के मुद्दे के खिलाफ खुल कर सामने आए हैं।
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