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एक सामान्य समझ वाली मेत्रेयी पुष्पा में तब्दील होतीं मैत्रयी पुष्पा

वीथिका            Dec 27, 2021


वीरेंदर भाटिया।
आप कहेंगे यह कैसा शीर्षक है। मैत्रयी पुष्पा मैत्रयी पुष्पा ही तो होंगी। दरअसल मैत्रयी पुष्पा वह जो उपन्यासकार हैं। देश के शीर्ष साहित्यकारों में उनका नाम शुमार है। लाखों लोगों ने उनका साहित्य पढ़कर खुद में साहित्यिक समझ विकसित की है।  

स्त्री विमर्श जब अधिसंख्य लोगों को मालूम नही था तब से इस देश की स्त्रियां जो तब युवतियां थीं, स्त्री विमर्श को पढ़ समझ रही हैं। वह मेत्रेयी पुष्पा तेजी से एक सामान्य समझ वाली मेत्रेयी पुष्पा में तब्दील हो रही हैं।

बहुतों को यह वाक्य कचोट सकता है कि इतने शानदार साहित्य की रचयिता, स्त्री विमर्श की अगुआ मैत्रेयी जी सामान्य मैत्रेयी पुष्पा कैसे हो सकती हैं।

मुझे भी इस वाक्य से आपत्ति है। दरअसल मेत्रेयी पुष्पा वही मेत्रेयी पुष्पा हैं जिन्हें हम उनके उपन्यासों में देखते हैं। हुआ यह है कि स्त्री विमर्श पुष्पा जी से आगे बढ़ गया है।

कोई भी वाद अपने वर्तमान समय के साथ विकास करता है। वाद को इससे सरोकार नहीं कि वाद के शुरुआती लोग हमेशा उसी सम्मान से अपना स्थान बनाये रखें।

विमर्श के बदलाव को अंगीकार करने, वाद के विकास को अंडर लाइन करने की समझ का भी सामानांतर विकास होना चाहिये या फिर हममें इतनी कूवत हो कि हम जो कह दें वही प्रतिमान बन जाए।

मैत्रयी जी मेरी पसंदीदा रचनाकार हैं।

जो ये लेख पढ़ रहे हैं उनमें भी बहुत लोगों की वे पसंदीदा हैं लेकिन स्त्री विमर्श आज के समय में सबसे तीव्र reactionary विमर्श है और यह विमर्श जमीन पर स्त्रियां जो झेल रही हैं उन अनुभवों से पुस्तकों में जा रहा है।

यह विमर्श अन्य विमर्शों की तरह पुस्तकों से जमीन पर नहीं आया है। स्त्री विमर्श मेत्रेयी जी के लेखन काल मे जमीन के नीचे कुलबुलाहट में था। तब मेत्रेयी जी अपने लेखन में इसके मानक तक तय कर सकती थी। अब यह विमर्श धरातल पर दिखाई देने लगा है।

विमर्श को समझ रही स्त्रियां रोज इस विमर्श के लिए घर और घर से बाहर अपनी आवाज  बुलंद कर रही हैं। समानता के सीमित आयामों से निकलकर यह विमर्श अब समानता के विभिन्न आयामों तक जा पहुंचा है।

मैत्रेयी पुष्पा जी इस विमर्श की तीव्रता से पिछड़ गई हैं लेकिन उनकी आक्रामता उनकी कूवत उनकी योग्यता इतनी जानदार है कि वे स्त्री विमर्श को नया रूप भी दे सकती हैं।

जो मैत्रेयी जी से इतेफाक रखती हैं, जो नहीं रखती है या खुद मैत्रेयी जी भी इस बात से सहमत होंगी कि स्त्री विमर्श दरअसल अब उस मुकाम पर आ गया है जहां यह स्त्री विमर्श स्त्रियों से भी आगे निकल कर पुरुषों की स्कूलिंग करे।

असल में स्त्री विमर्श पुरुष के सीखने की चीज है।

इस दिशा में कोई लेखिका, कोई विचारक काम नहीं कर रहा। यह विमर्श अपने भीतर इतनी तीव्रता संजोये है कि आज जो मैत्रेयी जी को बुजुर्ग घोषित कर रहे हैं वे कल इस परिदृष्य में खुद को किनारे कर दिए गए भी महसूस कर सकते हैं।

स्त्री विमर्श का असल प्राप्य पुरुष में स्त्री के प्रति मनुष्यता का भाव प्रबल करना है और दृश्य रुप में यह काम पुरुष लेखक, पुरुष अभिनेता या पुरुष एक्टिविस्ट करते नज़र आते हैं। स्त्री विमर्श को इस दिशा में मोड़ने का काम विमर्श के अगुओं का है। बड़ा साहित्य बड़ा विमर्श इस दिशा में रचा जाना बाकी है

 


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