स्वार्थी और अनैतिकता की हदों तक उपभोक्तावाद में डूबा सरकार समर्थक वर्ग

खरी-खरी            Sep 28, 2021


हेमंत कुमार झा।


अमेरिका के नामी अखबार 'वाशिंगटन पोस्ट' ने बीते साल एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि अमेजन, वालमार्ट, मैकडोनाल्ड जैसी बड़ी कंपनियां अपने सी और डी ग्रेड के कर्मचारियों को इतना कम वेतन देती हैं जिनसे उनका गुजारा चलना भी मुश्किल होता है। नतीजतन, उन कर्मचारियों में से अधिकतर को सरकार द्वारा अति निर्धन वर्ग के लिये चलाए जाने वाले सहायता कार्यक्रमों की शरण में जाना पड़ता है।

'पूरक पोषण सहायता कार्यक्रम', जिसे आमतौर पर 'फूड स्टैम्प' कहा जाता है, का लाभ पाने की लाइन में खड़े इन कर्मचारियों के अथक श्रम का लाभ तो कंपनियां उठाती हैं, लेकिन उनकी न्यूनतम जरूरतों को पूरी करने में आम करदाताओं द्वारा दिये गए सरकारी धन के बड़े हिस्से को खर्च किया जाता है।

नतीजा, मध्य वर्ग पर टैक्स का बोझ बढ़ता जाता है।

अमेजन के कर्मचारियों ने शिकायत की कि स्टोर और गोदामों में ड्यूटी करने के दौरान उन्हें इतना भी विश्राम का अवसर नहीं दिया जाता कि वे अपने पांव मोड़ सकें। नतीजा, उनमें से अधिकतर को घुटनों सहित कई तरह की समस्याएं घेर लेती हैं और वे एक दिन किसी काम के लायक नहीं रहते। कोरोना पूर्व दौर में अपने काम की शर्त्तों और परिस्थितियों में सुधार के लिए इन कामगारों ने दुनिया के अनेक देशों में हड़ताल की घोषणा की थी। हालांकि, इससे कुछ खास नहीं बदला और फिर...कोरोना संकट ने हालात ही बदल दिए।

वालमार्ट दुनिया के दर्जनों देशों में अपने रिटेल चेन संचालित करता है जिनमें लाखों लोग रोजगार पाते हैं। उसके कर्मचारी यूनियन नहीं बना सकते, हड़ताल नहीं कर सकते। वेतन सुधार और अन्य सुविधाओं के लिये आवाज उठाने वाले कर्मचारियों या उनके समूहों को बाहर का रास्ता दिखाने में कंपनी कोई देर नहीं लगाती।

एसेंबलिंग के कामों में लगी कंपनियां बड़ी संख्या में महिला कामगारों को काम पर रखती हैं। उनके कार्यस्थलों के हालात कुछ ऐसे हैं कि उन महिलाओं को टॉयलेट जाने के लिये भी कुछ मिनटों का अवसर नहीं दिया जाता। उन्हें 'नेचर्स कॉल' की जबर्दस्ती अनसुनी करनी पड़ती है जिसके नतीजे में धीरे-धीरे उनकी किडनी और शरीर के अन्य अंग रुग्ण होने लगते हैं। उनमें से कई जवानी में खतरनाक रोगों की शिकार होकर दर्दनाक मौत की देहरी तक पहुंच जाती हैं, लेकिन कंपनी उन्हें इसका कोई मुआवजा नहीं देती।

चर्चित अमेरिकी सीनेटर बर्नी सैंडर्स ने प्रामाणिक आंकड़ों के साथ यह तथ्य प्रस्तुत किया कि किस तरह कंपनियों के मालिक अपने लाभ का अधिकतम हिस्सा हड़प कर जातें हैं और अपने निचले स्तर के कर्मचारियों की विशाल फौज को दयनीय दरिद्रता के हाल पर छोड़े रहते हैं।

अब...इस आईने में अगर भारत में रोजगार की दुनिया के भावी परिदृश्य को देखें तो कई डरावने संकेत मिलते हैं।

सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसर दिनानुदिन कम किये जा रहे हैं और सार्वजनिक इकाइयों के निजीकरण के माध्यम से सार्वजनिक संपत्ति ही नहीं, बेरोजगार नौजवानों के भविष्य को भी कंपनी राज के हवाले किया जा रहा है।

कर्मचारी चयन आयोग अपनी रिक्तियों की संख्या घटाता जा रहा है, रेलवे और सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम बैंक निजीकरण के साये में अपनी नियुक्तियों को अधिकाधिक हतोत्साहित कर रहे हैं, देश भर के सरकारी विश्वविद्यालयों से लेकर स्कूलों तक में शिक्षकों के लाखों रिक्त पदों को भरने में सरकार कहीं से भी तत्पर नजर नहीं आ रही।

और इधर...बेरोजगारी है जो पिछले तमाम रिकार्ड तोड़ती न सिर्फ आर्थिक संकट, बल्कि विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक संकटों को भी जन्म दे रही है। मनोरोगी बनने की हद तक निराशा की गर्त्त में डूबते जा रहे पढ़े-लिखे असंख्य नौजवानों की भीड़ इस पूरी सभ्यता के सामने एक प्रश्नचिह्न बन कर खड़ी है।

तो...चरम बेरोजगारी के इस दौर में हमारे देश में प्राइवेट सेक्टर में जो रोजगार सृजित हो रहे हैं, जिनकी चर्चा आजकल अखबारों में अक्सर जोर-शोर से की जा रही है, गौर करने की बात यह है कि 'क्वालिटी ऑफ जॉब' की कसौटी पर वे कहां ठहरते हैं।

जब हम 'क्वालिटी ऑफ जॉब' की बात करते हैं तो इसका मतलब होता है उस नौकरी से जुड़ी सैलरी का स्तर, काम की परिस्थितियां, सेवा का स्थायित्व, काम की प्रकृति, कामगारों के प्रति नियोक्ता का व्यवहार आदि...।

अमेजन ने अभी कल-परसों घोषणा की है कि वह भारत में डेढ़ लाख लोगों को रोजगार देगा, जबकि, फ्लिपकार्ट सहित अन्य ई कामर्स कंपनियों ने भी आगामी महीनों में अपना व्यवसाय बढ़ाने के क्रम में बड़ी संख्या में रोजगार सृजित करने की बात की है।

रिटेल सेक्टर में बड़ा हस्तक्षेप करने को आतुर 'रिलायंस रिटेल' ने देश के दर्जनों शहरों में अपनी उपस्थिति बढाने की योजना के तहत घोषणा की है कि वह इस माध्यम से बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देगा। एक रिपोर्ट बताती है कि 'रिलायंस रिटेल' सबसे तेजी के साथ बढ़ने वाली 50 कंपनियों में सबसे शीर्ष पर थी। जाहिर है, उसके बढ़ते आर्थिक साम्राज्य की नींव में मंझोले और निचले तबके के लाखों कर्मचारियों के कठोर श्रम और उनके आर्थिक शोषण की बड़ी भूमिका होगी।

कोरोना काल में जमीन सूंघ रही जोमैटो और स्विगी जैसी फूड डिलीवर करने वाली कंपनियां अब अपनी धूल झाड़ कर उठ खड़ी हो रही हैं और अपने आक्रामक प्रचार अभियान पर अंधाधुंध खर्च कर रही हैं। जाहिर है, उन्होंने भी घोषणा की है कि वे बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार देंगी।

जब इतनी बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में अपने व्यवसाय को बढाने की योजना पर काम कर रही हैं तो जाहिर है, निजी सुरक्षा एजेंसियों का कारोबार भी बढ़ेगा जो महानगरों में बड़े पैमाने पर ग्रामीण युवाओं को सिक्युरिटी गार्ड की नौकरी देती रही हैं और इस प्रक्रिया में जम कर उनका आर्थिक शोषण करती रही हैं।

इधर...बीबीसी कल एक रिपोर्ट दिखा रहा था कि बड़ी संख्या में आईआईटी और एनआईटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं से पास आउट ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट युवा सरकार की नीतियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं क्योंकि उन्हें 'टेक्निकल एडुकेशन' को समृद्ध और सशक्त करने की जिस परियोजना के तहत काम पर लगाया गया था उसे बंद किया जा रहा है और वे बेरोजगार हो कर सड़क पर आने के खतरे से रूबरू हैं।

लखनऊ, पटना, भोपाल आदि राजधानियों की सड़कें सरकारी नियुक्तियों में आपराधिक टालमटोल करने की सरकारी नीतियों के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करते अभ्यर्थियों से भरी हैं।

हर ओर अराजकता है। प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिये वर्षों से तैयारी कर रहे युवाओं का वर्ग उम्मीदें खो रहा है। बीटेक और एमबीए की डिग्री लिये बेरोजगारों पर सोशल मीडिया में कार्टून और चुटकुले शेयर किए जा रहे हैं, पोस्ट ग्रेजुएट और पीएचडी किये बेरोजगार लोगों का मजाक उड़ाते चुटकुले भी कम नजर नहीं आते।

सामान्य ग्रेजुएट की तो बात ही क्या करनी, तकनीकी ग्रेजुएट की बेरोजगारी के मामले में हमारा देश दुनिया में नंबर वन है।

जो हालात हैं, उम्मीदें प्राइवेट सेक्टर पर ही टिकी हैं।

लेकिन...

रोजगार के संदर्भ में भारत की भावी दशा-दिशा गहरी निराशा के संकेत दे रही है क्योंकि जिस तरह की नौकरियां बाजार में उत्पन्न हो रही हैं या होने वाली हैं उनमें कामगारों के भयंकर शोषण की दास्तान लिखी जाने वाली है। विवश नौजवानों के पास कोई विकल्प नहीं। जो कंपनियां अमेरिका और यूरोपीय देशों जैसे जागरूक लोकतंत्रों में आर्थिक और मानसिक शोषण का ऐसा आख्यान रचती रही हैं वे भारत जैसे जनसंख्या बहुल, निर्धन, बेरोजगार बहुल देश में शोषण के किन स्तरों तक उतरेंगी, यह अंदाजा ही लगाया जा सकता है।

इंदौर, कानपुर, भोपाल, लखनऊ, पटना जैसे मंझोले स्तर के शहरों में भी अब देखा जाने लगा है कि अच्छे-खासे, पढ़े-लिखे नौजवान भी बेरोजगारी के चक्र में पिसते विकल्प के अभाव में ई कामर्स या फूड डिलीवरी कम्पनियों के डिलीवरी ब्वाय बन रहे हैं।

जैसे-जैसे बड़े रिटेल स्टोर्स का जाल बिछेगा, ई कामर्स कम्पनियों की पहुंच बढ़ेगी, निजी सेक्युरिटी एजेंसियों की प्रासंगिकता बढ़ेगी, कोई भी रोजगार पाने को लालायित युवाओं का समूह उनकी ओर लपकेगा। वे कंपनियां आंकड़े प्रस्तुत करेंगी कि हमने इतने लाख रोजगार दिए, उनके आंकड़ों को सरकार भी अपनी उपलब्धियों की तरह प्रचारित करेगी।

और...इस देश के लाखों नौजवान शोषण के एक नए चक्र में पिसने को विवश होंगे, जिनकी दास्तानें जब कभी रिसर्चर्स के किन्हीं समूहों की रिपोर्ट्स में पढ़ने को मिलेंगी तो कलेजा मुंह को आ जाएगा।

हालांकि,भारत का अपर मिडल क्लास इस भावी परिदृश्य का स्वागत करेगा क्योंकि इसमें भुगतना मुख्य रूप से लोअर और लोअर मिडल क्लास को है। इन निचले तबकों के बहुआयामी शोषण से ही अपर मिडल क्लास की संपन्नता और सुविधाओं का विस्तार होता है। कुछ तो कारण है कि यह स्वार्थी और अनैतिकता की हदों तक उपभोक्तावाद में डूबा वर्ग सरकार समर्थक, निजीकरण समर्थक और भारी राष्ट्रवादी बना हुआ है।



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