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कांग्रेस के असली दुश्मन ये हैं सरेआम मिलीए इनसे

राजनीति            Jun 26, 2019


पंकज शर्मा।
कोई बुरा माने-तो-माने, लेकिन आइए, कांग्रेस के इन दस दुश्मनों से मैं आपको आज सरेआम मिलवाता हूं।

1. अहंकारः कांग्रेस की चाय से ज़्यादा ग़र्म उसकी केतली है। सोनिया, राहुल और प्रियंका निजी तौर पर बेहद सहज हैं। कुछ और भी हैं, जिन्हें यह गुण अपने पारिवारिक संस्कारों से मिला होगा, सो, वे आंखें तरेर कर नहीं विचरते हैं। मगर कांग्रेसी कुर्सियों पर बैठे नब्बे प्रतिशत चेहरे बेतरह ऐंठे हुए हैं। वे ‘मैं तो साहब बन गया’ भाव से सने हुए हैं। उनके पास सिर्फ़ अपने लिए और अपनों के लिए वक़्त है।

मैं ऐसों को जानता हूं, जिन्होंने मुलाक़ात की गुज़ारिश करने वालों को दो-दो-चार-चार महीनों से नहीं, दो-दो-चार-चार साल से समय नहीं दिया है। इनमें खटारा हो रहे बुजु़र्ग भी हैं और डाली-डाली कूद रहे छोकरे भी। क्या आपको लगता है कि आशीर्वाद-मुद्रा में टहल रहे इन महामनाओं के रहते राहुल कांग्रेस को आज के गड्ढे से बाहर ला पाएंगे?

2. खोखले हमजोलीः छल-प्रपंच रच कर कांग्रेस की भावी अगुआई का वसीयतनामा अपने नाम लिखवा कर दूसरी क़तार में जम कर बैठ गए इंतज़ामअलियों में से तीन चौथाई पूरी तरह खोखले हैं। वे अपने-अपने निजी और पारिवारिक मंसूबे पूरे करने की ख़्वाहिश लिए कांग्रेसी नेतृत्व के इर्द-गिर्द जमा हैं। उन्हें इससे कोई मतलब है ही नहीं कि कांग्रेस का क्या होता है। वे तो कांग्रेसी हाड़-मांस-रक्त से ले कर उसके हर अंग के व्यापार की महारत हासिल कर चुके हैं। शिखर-नेतृत्व की अधिकतर संकल्पनाएं, योजनाएं और निर्देश इसी निष्ठाविहीन गुसलखाने की नाली में बह जाते हैं। क्या आपको लगता है कि इन कारोबारियों के रहते राहुल कांग्रेस को आज की सुरंग से बाहर ला पाएंगे?

3. वैचारिक दिग्भ्रमः कांग्रेस जिस वैचारिक प्रक्रिया, सामाजिक-राजनीतिक दर्शन और सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिनिधि मानी जाती है, उनमें ज़रा-सा भी भटकाव भारतीय-मानस का मन खट्टा कर देता है। ‘सर्वत्र संबंध पालन’ की विद्या से अलंकृत चेहरों ने ख़ुद को कांग्रेस के भीतर उन आलों में स्थापित कर लिया, जहां से वे नीतियों के क्षीरसागर में अपने मतलब का पानी मिलाते रह सकें। इससे कई मौक़ों पर कांग्रेसी-विमर्श की धार कुंद हो जाती है। अंतर्विरोध की वज़ह से नीतिगत सघनता में आई कमियों से जन-मानस में कांग्रेस के प्रति विश्वास दिग्भ्रमित होता है। क्या आपको लगता है कि इन स्वयंभू विचारकों के रहते राहुल कांग्रेस को वानप्रस्थी होने से बचा पाएंगे?

4. जागीरदारी प्रथाः ग़ुलामी, ज़मींदारी, जागीरदारी और सामंतशाही से लडने वाली कांग्रेस अपनी सांगठनिक व्यवस्था को इन कुरीतियों से बचा कर नहीं रख पाई। नेहरू-गांधी परिवार के त्याग और योगदान को बड़ी चालाकी से वंशवादी करार दे कर देश भर में निहित-स्वार्थों ने कांग्रेस के भीतर-ही-भीतर अपने हित-साधन का एक संघीय ताना-बाना गढ़ा और अपने-अपने सत्ता-द्वीप बना कर बैठ गए। उन्होंने कांग्रेस की पूरी सियासत कभी अपने कुनबों की मुट्ठी से बाहर नहीं जाने दी। बाकी सबका काम महज़ जाज़म बिछाने भर का रह गया। आज देश के हर राज्य में यह जागीरदारी अपने चरम पर है और कांग्रेस की पैदल-सेना हाशिए पर ग़ुलामों की तरह बेबस खड़ी है। क्या आपको लगता है कि इस चंगेज़ी-व्यवस्था के रहते राहुल कांग्रेस को राजनीति के नंदन-वन की सैर करा पाएंगे?

5. पिलपिले अग्रिम-संगठनः अब से कोई पंद्रह-सोलह साल पहले मैं ने कांग्रेस सेवादल का इतिहास लिखा था, इसलिए मैं कह सकता हूं कि नारायण सुब्बाराव हार्डीकर ने 96 साल पहले, 1923 में, जब सेवादल बनाया था तो कभी यह नहीं सोचा होगा कि आगे चल कर उसका स्वरूप ‘चाकर-सेवा’ का हो जाएगा। हार्डीकर के सेवादल ने तो अंग्रेज़ी हुकूमत की नींद उड़ा दी थी। झंडा सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन में सेवादल की भूमिका के बारे में जिन्हें मालूम है, वे यह देख कर माथा पीटते हैं कि आज का सेवादल तो संघ-कुनबे की फूंक तक का सामना करने की हालत में नहीं है। जबकि जिन केशव बलिराम हेडगेवार ने सेवादल की स्थापना के दो साल बाद उसकी नकल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनाया था, वे और हार्डीकर स्कूल में साथ-साथ पढ़े थे। संघ का आज भारत पर कब्ज़ा है और विदेशों में भी वह धमक जमा रहा है। सेवादल पिछले दस साल से अंतिम हिचकियां ले रहा है। कमोबेश यही हालत युवा कांग्रेस, महिला कांग्रेस और छात्र संगठन की है। देश और प्रदेशों की राजधानियों के दफ़्तरों में तो उनके कमरे गुलज़ार हैं, सभागारों में अग्रिम संगठनों के कर्ताधर्ताओं की व्यक्तिगत उपस्थिति की तस्वीरों से सोशल-मीडिया खदकता रहता है, मगर मैदानों में तो सूनेपन की ही सांय-सांय सुनाई देती है। इंटक जैसे मज़दूर संगठन पर भी ऐसे मतलबपरस्त काबिज़ हो गए हैं, जिनकी दिलचस्पी श्रमिक-कर्मचारी इकाइयों को सक्रिय करने के बजाय परदेस-गमन की जुगाड़ में ज़्यादा रहती है। क्या आपको लगता है कि नियुक्ति-पत्र व्यवसाय की चपेट में आ गए ऐसे अग्रिम-संगठनों के बूते राहुल कांग्रेस को आज के दुर्दिनों से बाहर ला पाएंगे?

6. बेमुरव्वत ठेंगा-भावः कांग्रेस में एक-दूसरे के बीच आंखों की शर्म अब इतनी दुर्लभ हो गई है कि पिछले कुछ साल से सब सबको अपने ठेंगे पर रखे घूम रहे हैं। इसे आंतरिक लोकतंत्र के अतिरेक से उपजी अनुशासनहीनता का नतीजा कह लीजिए या शिखर-नेतृत्व की भलमनसाहत की वज़ह से बेलिहाज़ हो गए सूबेदारों की भयादोहन-तिकड़मों परिणाम। लब्बोलुआब यह है कि हर राज्य में कांग्रेसी क्षत्रप मान बैठे हैं कि उनके आंगन में दूसरों का कोई काम नहीं है। वे भूल गए हैं कि वे जो कुछ हैं, पार्टी-संगठन की बदौलत हैं और वे जो कुछ हैं, शीर्ष-नेतृत्व के स्नेहिल-स्पर्श की वज़ह से हैं। कांग्रेस की मानसरोवर-झील के जल में कितना नैतिक बल है, कितना नहीं, इससे भी बड़ा मुद्दा यह है कि सत्ता की लूटपाट में महारत के बूते भस्मासुर बन बैठे लोग अपने किए-कराए पर निग़ाहें नीची करने का दस्तूर, पता नहीं किस पोखर के हवाले कर आए हैं। क्या आपको लगता है कि ऐसे में इन लठैतों की लाठियां तोड़े बिना राहुल गांधी कांग्रेस को मौजूदा कचड़कांध से बाहर ला सकते हैं?

7. मीडिया-एकालापः पिछले कोई एक दशक में कांग्रेस के मीडिया संप्रेषण की बुनियादी लय ही गड़बड़ा गई है। मैं ने एक संवाददाता के नाते कांग्रेस को कवर करते वह ज़माना देखा है कि जब एक अकेले विट्ठल नरहरि गाडगिल पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता हुआ करते थे और चंदूलाल चंद्राकर उनके एकमात्र सह-प्रवक्ता। ठीक है कि वह टेलीविजन चैनलों की खर-पतवार का दौर नहीं था। लेकिन मुद्रित-मीडिया की बेहद मजबूत उपस्थिति और दूरदर्शन के बाद कुछ शुरुआती समाचार चैनलों के उदय के बावजूद कांग्रेस का संप्रेषण संस्कार क़ायम था और पार्टी के बोले एक-एक शब्द पर इसलिए समाचार-जगत की नज़रें रहती थीं कि वे संजीदा और वज़नदार ज़ुबानों से बह कर बाहर आते थे।

आज कांग्रेस का हरा-भरा बगीचा इसलिए भी सूख रहा है कि सैकड़ों राष्ट्रीय प्रवक्ताओं और हज़ारों प्रादेशिक प्रवक्ताओं की गाजर-घास अपनी मौज़ में लहरा रही है। कांग्रेस का मीडिया-संवाद एकालाप से ग्रस्त है। सुबह-दोपहर-शाम ट्वीट कर देने और बड़े-से़-बड़े मसले पर कैमरों के सामने रोबोटनुमा-टिप्पणी दे देने भर को अपनी फ़र्ज़-अदायगी समझने वाले, सूचनाओं के जंगल में हो रहे सच के शिकार को, भला क्या खाकर रोकेंगे? मीडिया-चौबारे पर प्रलाप करने वाले कांग्रेस के ज़्यादातर प्रवक्ता और उनके ख़लीफ़ा हैं तो पोले झुनझुने, मगर उनका वैचारिक दंभ और माइकल जैक्सन शैली के बोढ तले कांग्रेस का दम घुट गया है। क्या आपको लगता है कि व्यक्तिवादी कुंठा से लबरेज़ इस चिलम-ब्रिगेड से छुटकारा पाए बिना राहुल गांधी कांग्रेस को फिर देश का दिलबर बना सकते हैं?

8. प्रशिक्षण-दिग्भ्रमः 2003 के शिमला चिंतन शिविर में सोनिया गांधी ने तय कराया था कि देश भर के महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं और हर स्तर के पदाधिकारियों को निरंतर राजनीतिक-वैचारिक प्रशिक्षण देते रहने के लिए कांग्रेस एक अकादमी स्थापित करेगी। वे कौन हैं, जिनकी मेहरबानी से 16 साल बाद भी सोनिया की यह इच्छा अधूरी है। पांच साल पहले केंद्र की सत्ता में आई मोशा-जोड़ी ने इस बीच दिल्ली-हरियाणा की सीमा पर दस एकड़ ज़मीन लेकर भाजपा की एक प्रशिक्षण अकादमी शुरू भी कर डाली। मगर कांग्रेस के अग्रिम संगठन अब भी प्रशिक्षण-प्रक्रिया के बाल-भवन में झूला झूल रहे हैं और अगर उनके प्रशिक्षण शिविरों के पाठ्यक्रम पर आप एक नज़र घुमा लेंगे तो हंसते-हंसते आपकी आंखों से आंसू गिरने लगेंगे। क्या आपको लगता है कि डेढ़-डेढ़ दशक तक सोनिया के निर्देशों तक की परवाह न करने वालों के रहते राहुल गांधी कांग्रेस को आज के माहौल में प्रासंगिक बनाए रख सकते हैं?

9. बाबू-गिरोहः देश-प्रदेशों में पार्टी-संगठन के दफ़तरों की जाज़म पर जमे बैठे हर स्तर के कार्यालयीन सहयोगियों का जाल-बट्टा ऐसा है कि ज़्यादातर नेताओं को तो पता भी नहीं चलता है कि उनके आसपास चल क्या रहा है? सरकारें जैसे मंत्री कम, नौकरशाह ज़्यादा चलाते हैं, वैसे ही कांग्रेस पार्टी का कामकाज भी उसके पदाधिकारी कम, ये बाबू ज़्यादा चलाते हैं। अपनी पसंद-नापसंद और शुल्क-आधारित व्यवस्था के इन पोषकों का कांग्रेस की मौजूदा हालत में योगदान कम मत आंकिए। क्या आपको लगता है कि इस दूषित सचिवालयीन व्यवस्था का जड़ से नाश किए बिना राहुल कांग्रेस को सियासत के उत्तंग शिखर पर ले जा पाएंगे?

10. मुख़बिर-टोलीः कहेगा कोई नहीं, पर जानते सब हैं कि कौन, कहां, किस के लिए काम कर रहा है। कांग्रेस की भीतरी रणनीतियां जस-की-तस उसके विरोधियों के पास जितनी आसानी से पहुंच जाती हैं, उस पर मैं एक पूरा ‘जासूस चरित मानस’ लिख सकता हूं। क्या आपको लगता है कि इन जयचंदों के रहते राहुल कांग्रेस को आज का कुरुक्षेत्र जिताने का सोच भी सकते हैं?

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सचिव हैं।

 



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