राकेश दुबे।
बड़ी आजीब हालत है देश की। देश में रोजगार के अवसर नहीं दिखाई दे रहे हैं। सरकारी नौकरी और अच्छी तनख्वाह के चक्कर में आज युवा भटक रहा है।
दूसरी तरफ सरकारी कार्यालयों में कर्मचारी नहीं होने के कारण कितने काम रुके पड़े हैं। सरकारी कार्यालयों में काम की गति पर जब प्रश्न उठाया जाता है तो एक ही जवाब आता है स्टॉफ नहीं होने से काम की गति मंद हैं।
कार्यालयों में कर्मचारी का अभाव और जो युवा काम चाहता है उसे काम नहीं मिल रहा है।
एक तरफ बेरोजगारी है दूसरी और कर्मचारी न होने से दफ्तरों में काम न होना है। विचारणीय विषय यह है कि ऐसा है तो क्यों है? इसका उपाय क्या है ?
कहने को देश में हर तरह का विकास हुआ हजारों लोगों को काम भी मिला, लेकिन रोजगार की निरन्तरता के मामले में 72 साल के बाद एक अजीब अवरोध है, स्थिति थम सी गई लगती हैं। स्थिति ठीक वैसी है कि एक अनार सौ बीमार के मुहावरे के समान है।
सरकारी नौकरी को दरकिनार भी करे तो निजी कंपनियों और विदेशी कंपनियों की भी बड़ी लम्बी लिस्ट है। माल कमाने को ढेरों विदेशी कंपनियां भारत आ गई हैं, बड़े उद्योग खुल रहे हैं। लेकिन बेरोजगारी कम हो ही नहीं रही है।
जितनी भी विदेशी कंपनियां भारत आईं वे देश को रोजगार का सुनहरा सपना तो दिखा रही हैं, लेकिन उनका उद्देश्य तगड़ा मुनाफा बटोरना और बिना टैक्स दिए अपने देश को चले जाना है।
भारत में वे सिर्फ पैसा कमाने आए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में उनका कर के रूप में योगदान इतना कम है कि उनको उपलब्ध करवाए गये संसाधन, जमीन और पानी भी उससे ज्यादा कीमती है।
साफ़ दिख रहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था में एक रुपया का योगदान और हजारों का लाभ। कई ऐसी विदेशी कंपनियां हैं जो दशकों से भारत को आर्थिक गुलामी की ओर ले जा रही हैं। ये कंपनियां भारत को रोजगार देने के नाम पर छलावे के अलावा कुछ नहीं कर रहीं हैं।
भारत में विस्तार कर रही ज्यादातर विदेशी कंपनियों का साफ कहना है कि उनका भारत में विस्तार का एक मात्र कारण यहां के तेजी से बढ़ते बाजार का लाभ उठाना। यहां रोजगार के नाम पर भी वे देश की श्रम शक्ति का दोहन भी औने-पौने कर रही हैं।
देश में पांच ट्रिलियन (पचास खरब) डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य वर्तमान हालातों को देखते हुए हासिल करना काफी मुश्किल लगता है। भारत की आर्थिक वृद्धि दर की समस्या यह है कि उसके साथ नौकरियां नहीं बढ़ रही हैं।
इसीलिए भारतीय अर्थव्यवस्था की ग्रोथ को जॉबलेस ग्रोथ कहा जाता है। प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं कि भारत विश्व मंच पर एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर उभरे लेकिन इसके लिए केवल आर्थिक वृद्धि दर ही काफी नहीं है बल्कि इसके लिए गरीबी कम करने के साथ रोजगार के मौके भी बढ़ाने होंगे।
भारत में बेरोजगारी का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि भारतीय रेलवे ने 63 हजार नौकरियां निकालीं तो एक करोड़ 90 लाख लोगों ने आवेदन किए हैं।
इस समय देश दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है लेकिन गरीबी और बेरोजगारी की चुनौती अब भी बरकरार है। देश जब तक विदेशी निवेश पर निर्भर है तब तक आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं माना जा सकता है।
मेहनत भारतीय कर रहे हैं और लाभ विदेशी कंपनियों की तिजोरियों में जा रहा है,आने वाली पीढ़ी फिर रोजगार के लिए भटकती फिरेगी।
देश का पैसा देश में रहेगा तो ही सरकार में आर्थिक आजादी आ पाएगी तथा देशवासियों को रोजगार और सम्मानजनक स्थिति का जीवन सुविधा उपलब्ध हो सकेगी।
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