राकेश अचल
विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर भाई लोग दुखी हैं। दुखी होना भी चाहिए,क्योंकि दिया तले अन्धेरा जो है। प्रदेश के हिंदी सेवियों के लिए इस सम्मेलन में झाँकने तक की मुमानियत है। दरअसल ये सम्मेलन हिंदी साहित्यकारों का नहीं बल्कि हिंदी के उन विद्वानों का है जो संसद सदस्य होने के नाते,सरकारी विद्वान होने के नाते हिंदी सेवी घोषित कर दिए गए हैं।
दुर्भाग्य से मैं अब तक के किसी सरकारी हिंदी विश्व सम्मेलन में न बुलाया गया और न गया,गैर सरकारी स्तर पर होने वाले अनेक विश्व हिंदी सम्मेलन मैंने जरूर देखे। इस सम्मेलन में दिल्ली और भोपाल की सरकार पैसा पानी की तरह बहा रही है,लेकिन हिंदी वालों को नहीं बुला रही है। बुलाया उन्हें ही गया है जो या तो मानव संसाधन मंत्रालय में अपनी पैठ रखते हैं या फिर उनका किसी चड्डी-बनियान गिरोह से गहरा ताल्लुक है।
चूंकि मुझे इस सम्मेलन में जाकर हकीकत का सामना करना था इसलिए मैंने अपने महीने की कमाई का एक बड़ा हिस्सा बचा कर इस सम्मेलन के लिए पंजीयन करा लिया ,क्योंकि मुझे पता था की मुफ्तखोरों की फेहरिस्त में न तो मुझे शामिल किया जाएगा और न ही मै इसमें शामिल होऊंगा। बहरहाल मै सुखी हूँ क्योंकि किसी गिरोह या चौकड़ी का सदस्य हुए बिना भी मै इस विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रवेश कर स्काऊंगा। मेरी न प्रधानमंत्री जी के भाषण में दिलचस्पी है और न अमिताभ बच्चन के भाषण में। इन दोनों महात्माओं की हिन्दी के बारे में मै क्या सारी दुनिया अच्छी तरह जानती है।
मै इस सम्मेलन में सिर्फ इसलिए जा रहा हूँ ताकि तस्दीक कर सकूँ की हिंदी के नाम पर रोटियां सेंकने वाले लोग कौन-कौन हैं? कैसे हिंदी के नाम पर सरकारी और हमारे जैसे श्रमजीवी हिंदी सेवियों के फहन की होली खेली जाती है ?इस सम्मेलन में हिंदी के कम मनीषी पहुंचेंगे इसका क्षोभ है किन्तु ख़ुशी है कि असली हिंदी सेवियों के साथ गणवेशधारी हिंदी सेवियों की नफरी भी यहां की जा सकेगी। मेरे रहने का इंतजाम मेरे मित्रों ने कर दिया है और पांच हजार रूपये देकर खाने का इंतजाम मैंने खुद कर ही लिया है।
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