राकेश कायस्थ।
इटावा के यादव कथावाचक से नाराज़ ब्राम्हण समाज के लोगों ने उसका सिर मूड़ा और उसके बाद ‘पंडित जी का पेशाब’ छिड़क कर बकायदा उसका `शुद्धिकरण’ किया गया। जातीय उत्पीड़न की यह एक अत्यंत जघन्य घटना है लेकिन पहली नहीं है।
इस कांड के तीन दिन के भीतर समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने पीड़ित यादव कथावाचक को पार्टी के दफ्तर में बुलाया, उससे भागवत कथा करवाई और 51 हजार की मोटी दक्षिणा भी थमाई।
अखिलेश यादव ने कहा कि भागवत धर्म सबके लिए है। जातिगत जनगणना के एलान के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत भी रात-दिन यही समझने में जुटे हैं कि हिंदू धर्म सबके लिए है। आरएसएस हर जातीय समूह के बीच ऐसे लोगों को खड़ा करना चाहता है, जो कर्मकांड पर आधारित `हिंदू दर्शन’ का प्रचार-प्रसार करके हिंदू राष्ट्र की नींव मजबूत करें।
तो क्या अखिलेश यादव और मोहन भागवत एक ही वैचारिक धरातल पर खड़े हैं? क्या अखिलेश यादव परोक्ष रूप से मोहन भागवत की ही राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं? यह एक जटिल लेकिन दिलचस्प सवाल है और इसका जवाब हाँ और ना दोनों है।
इटावा में यादव कथावाचक का उत्पीड़न यह बताता है कि हिंदू धर्म की मूल संरचना में ही जातिगत भेदभाव अंतर्निहित है। यह भेदभाव मोहन भागवत के आशीर्वचन से दूर नहीं हो सकता है। यही कारण है कि आरएसएस को `हिंदू एकता’ को मजबूत करने के लिए कोई काल्पनिक शत्रु ढूंढना पड़ता है और जाहिर है यह तलाश मुसलमान पर आकर खत्म होती है।
न्यू इंडिया के जागृत हिंदू को भले ही पांच मंत्र याद ना हों लेकिन उसे इतना जरूर पता है कि हिंदू संस्कृति श्रेष्ठ है और दुनिया की सारी समस्याओं की जड़ इस्लाम है। `जागृत हिंदुओं’ की सबसे बड़ी तादाद उसी आबादी से आती है, जिसके प्रतिनिधित्व के सवाल को लेकर राहुल गाँधी और अखिलेश यादव भारतीय राजनीति की धारा मोड़ना चाहते हैं।
राहुल गाँधी अपनी हर जनसभा में पूछते हैं कि आपके समाज से कितने लोग यूनिवर्सिटी प्रोफेसर, हाईकोर्ट जज या आईएएस-आईपीएस हैं? यह सवाल पूछना बनता भी है। लेकिन अखिलेश यादव का नज़रिया ज्यादा व्यवहारिक है।
वे जानते हैं कि वे जिस तबके की राजनीति कर रहे हैं कि उसका बड़ा हिस्सा किसी यूनवर्सिटी प्रोफेसर या हाईकोर्ट जज को नहीं बल्कि अपने आसपास के सफल ठेकेदार या विधायक को रोल मॉडल को तौर पर देखता है।
अखिलेश यादव ये भी समझते हैं कि यह हर बात में `जै-जै’ करने वाला समाज है। धार्मिक प्रतीकवाद के इस्तेमाल के बिना यहां चुनावी राजनीति में सफल हो पाना असंभव है। इसलिए फुले-अंबेडकर का इंजेक्शन यथासंभव लगाते रहो लेकिन साथ-साथ भजन-कीर्तन भी करवाते रहो। पिछड़े-दलित तबको में जिसे जो बात पसंद आएगी, वो उस आधार पर वोट दे देगा।
हिंदू पोंगापंथ का सबसे बड़ा प्रवर्तक आरएसएस जब अंबेडकर,फुले और कर्पूरी ठाकुर का नाम जप सकता है, तो फिर सामाजिक न्याय की शक्तियां हिंदू देवी-देवताओं के जयकारे लगाकर वोट क्यों ना बटोरें? कोई भी वैचारिक लड़ाई आखिर में वही आकर खत्म होती है कि उसके ज़रिये सत्ता की चाबी मिलेगी या नहीं? बदलाव बिना सत्ता के संभव नहीं है।
शुद्ध देशी भाषा में समझें तो कुल मिलाकर खेल जनता को और ज्यादा मूर्ख बनाने का है। यकीनन आरएसएस इसमें सबसे आगे है। बहती गंगा में थोड़ा सा हाथ समाजवादी पार्टी भी धो ले तो इसमें भला एतराज करने लायक बात क्या है?
काँग्रेस का रवैया थोड़ा सा अलग है। सॉफ्ट हिंदुत्व की पिच पर खेलकर नाकाम हो चुकी पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे अब खुलेआम कह रहे हैं कि अगर आपको पता है कि कोई चीज़ ज़हरीली है तो आप उसे थोड़ा सा चाटकर नहीं देख सकते हैं। काँग्रेस ने पिछले कुछ समय से अपने आपको धार्मिक प्रतीकवाद से दूर किया है। खड़गे और राहुल की काँग्रेस अंबेडकर-फुलेवाद में हिंदू राजनीति का एंटी डॉट ढूंढ रही है लेकिन ऐसा कर पाना आसान नहीं है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं यह टिप्पणी उनकी फेसबुक वॉल से ली गई है
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