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द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास आजकल थोड़ा हिला हुआ है, थोड़ा डरा हुआ भी है।

खरी-खरी            Jun 28, 2025


 

हेमंत कुमार झा।

द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास आजकल थोड़ा हिला हुआ है, थोड़ा डरा हुआ भी है।

  एयर इंडिया के प्लेन क्रैश ने उसे अंदर से हिला दिया है। उसका भरोसा दरका है इस सिस्टम से... कि कहीं न कहीं कुछ प्रॉब्लम तो है।

और, अब वह डर गया है युद्ध से।

यूक्रेन रूस के बीच युद्ध, फिर भारत पाकिस्तान के बीच एयरफोर्स का जलवा दिखाने की होड़, और अब...इजरायल ईरान का युद्ध।

दुनिया अशांत हो उठी है और भारत का द ग्रेट मिडिल क्लास भविष्य की डरावनी संभावनाओं से आशंकित है। फिलहाल, अब युद्ध उसके ड्राइंग रूम में बड़े से टीवी स्क्रीन पर चलने वाला राष्ट्रवाद का उत्सव नहीं, उसे डराने वाली त्रासदी है।

नहीं, वह इसलिए युद्ध को त्रासदी नहीं मान रहा कि इससे गरीब और गरीब होंगे, मजदूर बेरोजगार होंगे, भूख और बीमारी से जूझते लोगों की जिंदगियां और कठिन होंगी।

वह युद्ध से इसलिए डर गया है कि तमाम विशेषज्ञ आशंकाएं जता रहे हैं कि युद्धों के इस सिलसिले और अंतरराष्ट्रीय तनावों के गहराते जाने से वैश्विक जीडीपी के लुढ़कने का खतरा सामने आ गया है, भारत भी इस लपेटे में आएगा ही आएगा और...इन सबके कारण पहले से ही आर्थिक चुनौतियों से जूझते भारतीय मिडिल क्लास की परेशानियां और अधिक बढ़ेंगी।

नई आर्थिक संस्कृति और मीडिया ने भारतीय मध्य वर्ग को देश के विशाल वंचित तबके के हित अहित आदि के बारे में सोचने से भी विमुख कर दिया है। न सिर्फ विमुख किया है बल्कि उन्हें उनकी शोषण प्रक्रिया का अनिवार्य कंपोनेंट भी बना दिया है।

आज का इंडियन मिडिल क्लास अपनी थोड़ी सी सुविधाओं और अपने आर्थिक स्वार्थों के लिए बाकायदा वंचित विरोधी बन चुका है।

इसलिए, युद्ध उसे इसलिए नहीं डरा रहा कि इससे वंचितों का जीवन और कठिन होगा। वह इसलिए डर रहा है कि अब जो हालात बनते जा रहे हैं वे उनकी अपनी आर्थिक सेहत के लिए हानिकारक साबित होंगे।

ईरान इजरायल युद्ध और मध्यपूर्व में बढ़ते तनावों ने तेल की कीमतों के बढ़ने की आशंकाएं पैदा कर दी हैं, इधर महंगाई भी कुलांचें भरने को तैयार ही है।

हथियारों की होड़ बढ़ेगी, निवेश की प्राथमिकताएं तय करने में अब सरकारें नए सिरे से सोच रही हैं। भारत भी सोच विचार की मुद्रा में है। भारतीय वायुसेनाध्यक्ष ने वायुसेना के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के मंद रहने को लेकर क्षोभ व्यक्त किया है और रक्षा विशेषज्ञों का समूह भी चेतावनी दे रहा है कि भारत को अपनी रक्षा प्रणाली को चाक चौबंद करने के लिए बड़े पूंजी निवेश के बारे में गंभीरता से सोचना ही होगा।

 भारतीय, विशेषकर हिन्दी पट्टी का मिडिल क्लास यह तो चाहता है कि उसकी सेना ऊंची छलांगें लगा कर पीओके हासिल कर ले, करांची और क्वेटा तक जाकर अपनी शूरता की डुगडुगी बजा आए, यहां तक कि चीन को भी अहसास करवा दे कि "हम क्या चीज हैं"...लेकिन, उसकी यह भी चाहत है, बल्कि असली चाहत है कि उसकी आमदनी बढ़े, बढ़ती ही जाए, उसकी सुख सुविधाओं में इजाफा हो, होता ही जाए, नई नई वंदे भारत ट्रेनें खुलें, रेलवे स्टेशन आधुनिक हों, एयरपोर्ट आरामदायक हों, एक्सप्रेस हाइवेज का जाल बिछे, बिछता ही जाए, जिन पर अपनी लकदक एसयूवी पर "लांग ड्राइव" करते किसी ढाबे पर रुक कर वह मौज मजा करे आदि आदि।

  युद्ध और मध्य वर्ग की आर्थिक आकांक्षाओं के बीच भारी अंतर्विरोध हैं। हाल में युद्धों के बढ़ते सिलसिलों ने उसके मन में इस अंतर्विरोध को अधिक स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है। वह चाहता है कि अब यह सब खत्म हो और नेता लोग उसकी बेहतरी के लिए अपने दिमाग और देश के संसाधनों को लगाएं।

लेकिन, मुश्किल यह है कि नवउदारवाद के हिलोर में भारतीय ही नहीं, दुनिया के अनेक हिस्सों में मध्य वर्ग के जिस मानस का विकास हुआ है, उसने जिन और जैसे नेताओं को राजनीति के रंगमंच पर प्रतिष्ठापित किया है, उनमें "कंस्ट्रक्टिव थिंकिंग" का अभाव है। उनकी डोर लोकतांत्रिक आकांक्षाओं से अधिक कॉरपोरेट के हितों से संचालित होती है।

नतीजा...दुनिया के जिस भी हिस्से में राष्ट्रवाद के उबाल ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित किया है वहां का मध्य वर्ग आर्थिक परेशानियों से घिर गया है। द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास भी इन परेशानियों से अछूता नहीं है।

ईरान पर अमेरिका के हवाई हमलों ने इस घटनाक्रम में चीन और रूस की भूमिका के बढ़ने की आशंकाएं बढ़ा दी हैं। यह डरावना है।

जो लोग आधी रात को टीवी पर "इस्लामाबाद पर भारतीय सेना का कब्जा" और "करांची की तबाही" के फेक न्यूज और फेक विजुअल्स को देख कर अपने आरामदायक पलंगों के अति आरामदायक गद्दों पर उछल रहे थे, उनके ब्लडप्रेशर को तो ट्रंप की सीज फायर की घोषणा ने लो कर दिया। कहां तो पीओके ले रहे थे, इस्लामाबाद कब्जा रहे थे, कहां ऐसी वैसी खबरों से साबका पड़ने लगा।

तभी से भारतीय मिडिल क्लास थोड़ा-थोड़ा युद्ध विरोधी टाइप होने लगा। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने उसे समझा दिया कि जटिल वैश्विक राजनीति में उसकी अतिराष्ट्रवादी आकांक्षाओं का पूरा होना आसान नहीं और चीन की सरपरस्ती में पाकिस्तान इतना भी कमजोर नहीं कि आनन-फानन में उससे कुछ भी छीन लिया जाए।

तो, हुआ यह कि सीज फायर की घोषणा के बाद महामानव की "घुस कर मारने वाली" छवि में डेंट तो लगा ही, खास कर हिन्दी पट्टी का मिडिल क्लास थोड़ा थोड़ा युद्ध विरोधी भी हो गया।

  अब, ईरान इजरायल युद्ध और उसमें अमेरिका के डायरेक्ट कूद पड़ने ने उसे डरा दिया है। अब वह महंगाई बढ़ने के डर से, तेल की कीमतों के बढ़ने के डर से चिंतित है। तेल अबीब, हाइफा से लेकर तेहरान और इस्फहान तक में मिसाइलों की मार से छाई भयानक तबाहियों के विजुअल्स उसे युद्ध की विभीषिकाओं से सीधा रूबरू करवा रहे हैं। जो लोग गजा के नरसंहारों के विजुअल्स से विचलित नहीं हो रहे थे, वे भी अब कुछ कुछ सोचने लगे हैं।

  लेकिन, इनके सोचने से कुछ नहीं होता।

दुनिया के बड़े हिस्से में जिस राजनीतिक संस्कृति का विकास हुआ है उसमें यही सब होना था। वंचितों की वंचित ही जानें, भारतीय मध्य वर्ग ने भी जिस राजनीतिक संस्कृति को सिर माथे बिठाया, उसका दंश उन्हें भोगना ही होगा।

एयर इंडिया त्रासदी की जांच रिपोर्ट आई नहीं है, आएगी लेकिन कुछ खास पता शायद ही चले कि आखिर हुआ क्या था। शाह जी ने दुर्घटना मात्र घोषित कर दिया तो कर दिया। इन सवालों का क्या मतलब रह गया है कि एयरपोर्ट प्रणाली और विमानों के रख रखाव में कौन सी त्रुटियां थीं, मुनाफे के लिए सर्वशक्तिमान कॉरपोरेट समुदाय किस हद तक मनुष्यता विरोधी बन सकता है और कमजोर नियामक तंत्र किस हद तक विवश नजर आ सकता है।

सप्ताहों तक अपने बैग में लगाए गए एयरोप्लेन के प्लास्टिक नुमा कागज के टैग को न हटाने वाले और इस तरह अपनी हवाई यात्रा को अपनी हैसियत की मुनादी बनाने वाले भारतीय मध्य वर्ग के लोग अहमदाबाद प्लेन त्रासदी के बाद हिल से गए हैं लेकिन वे निरुपाय से हैं।

उनका मन कहता है कि "कुछ तो गड़बड़ है जिसे ठीक करना होगा", लेकिन, इस आशंका को वे प्रभावी शब्द नहीं दे पा रहे। उनकी आवाजों में दम नहीं आ रहा।

बस, विमान के टेक ऑफ करते ही वे हनुमान जी का स्मरण करते हैं। उन्होंने कॉरपोरेट संपोषित सत्ता संरचना को निर्लज्ज और निडर बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। अब वे उसके शिकंजे में हैं। न वे युद्ध रोक सकते हैं न  अपनी जिंदगियों से खिलवाड़ रोकने की प्रभावी शक्ति उनके पास रह गई है।

 

लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं

 


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