रवीश कुमार।
टाइम्स आफ इंडिया में आर जगन्नाथन का संपादकीय लेख पढ़ रहा था। जगन्नाथन ने भारत में नौकरियों की संभावना पर विश्लेषण पेश किया है। हिन्दी के अख़बार और चैनलों को इन विषयों से कम मतलब है और आप हिन्दी के पाठकों को भी नहीं है तभी पत्रकार और पाठक की जोड़ी लगातार हिन्दू बनाम मुस्लिम विमर्श पैदा की जा रही है। हिन्दी में आर्थिक चिन्तन की कमी तो नहीं होगी मगर वो कभी भी मुख्यधारा में नहीं आ पाती। जिसे देखिये वही हिन्दू बनाम मुस्लिम के मसलों को तरह तरह से लिख पढ़ रहा है। ख़ैर। मैंने सोचा कि जगन्नाथन के लेख को अपने सवालों के साथ हिन्दी में पेश करूँ। उनका लेख बता रहा है कि हाल फिलहाल में नौकरियों की उम्मीद बहुत न रखें तो ही बेहतर होगा।
जीडीपी बढ़ने का मतलब नौकरी बढ़ना नहीं है। बल्कि नौकरी घट जाती है। यह दुनिया का हर अर्थशास्त्री कहता है और इस लेख में जगन्नाथन ने भी रेखाकिंत किया है। यह यूपीए के समय भी हुआ, उससे पहले भी हुआ और आज भी हो रहा है। आपको बार बार 7 से 8 प्रतिशत का आंकड़ा रटाया जा रहा है ताकि आप इसे बड़ी कामयाबी मान लें, एक बार ठहर कर सोचिये कि 8 से 9 प्रतिशत जी डी पी अगर नौकरी नहीं देती है तो फिर यह किसके जश्न के लिए है। राजनेता आपको लगातार मूर्ख बना रहे हैं। जनता पिछले बारह साल से जीडीपी के नाम पर मूर्ख बन रही है। 1997-2000 के बीच जब एक प्रतिशत जीडीपी बढ़ती तो 0.39 प्रतिशत नौकरियां पैदा होती थीं। बाद के दशक में इसकी मात्रा घटकर 0.23 प्रतिशत रह गई जो अब घटकर 0.15 प्रतिशत रह गई है। यानी 1997 से लेकर अब तक जीडीपी बढ़ने पर नौकरियां घटती जा रही हैं। जगन्नाथन के लेख से साफ नहीं हो सका कि 0.39 प्रतिशत ठीक अनुपात है या नहीं। दुनिया के विकसित देशों में जीडीपी के बढ़ने और नौकरियों के बढ़ने का बेहतर अनुपात क्या है।
भारत सरकार के लेबर ब्यूरो की जुलाई-सितंबर2015 की तिमाही की रिपोर्ट बताती है कि सघन नौकरियां पैदा करने वाले सेक्टरों में सिर्फ 1 लाख 34 हज़ार नौकरियां पैदा हुईं। कपड़ा,चमड़ा,धातु,आटो,हीरे, जवाहरात,आईटी या बीपीओ,परिवहन, हैंडलूम और पावरलूम सबसे अधिक नौकरियाँ पैदा करने वाले सेक्टर माने जाते हैं। सितंबर के बाद की तिमाही के आंकड़ें लगता है आए नहीं हैं क्योंकि जहां भी लेबर ब्यूरो के आंकड़ों का ज़िक्र देखता हूं जुलाई-सितंबर 2015 के आंकड़े ही होते हैं। जगन्नाथन ने बताया कि इसके पहले की आठ तिमाही( 2013-15) में इन सेक्टरों में प्रति तिमाही नौकरियां पैदा होने का औसत मात्र एक लाख ही था। इसके पहले यानी 2009-2011 के बीच प्रति तिमाही नौकरियों का औसत करीब तीन लाख था। तीन लाख की संख्या कम है या ज़्यादा यह स्पष्ट नहीं हुआ मगर आप देख सकते हैं कि नौकरियों की संख्या आठ सेक्टरो में लगातार घट रही है। आप हैं कि हिन्दू बनाम मुसलमान किये जा रहे हैं। कभी कश्मीर के बहाने तो कभी कैराना के बहाने। क्या आज की पीढ़ी के लिए नौकरियों के सवाल समाप्त हो गए हैं?
जगन्नाथन लिखते हैं कि भारत में नौकरियां पैदा करने वाली मशीनें थमने लगी हैं। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे का आंकड़ा भी इसी ट्रेंड की पुष्टि करता है। 1999-2004 में छह करोड़ नौकरियां पैदा हुई थीं। 2004-2010 के दौरान दो करोड़ सत्तर लाख नौकरियों का सृजन हुआ। वाजपेयी शासन काल में जीडीपी की दर धीमी गति से बढ़ रही थी मगर तब नौकरियां काफी सृजित हुईं। ये सब आंकड़े बताते हैं मगर राजनीतिक नतीजे इसकी पुष्टि नहीं करते।इतनी नौकरियों के बाद भी वाजपेयी की हार क्यों हुई? यूपीए के शासन काल में जब जीडीपी के आंकड़ें आकाश छू रहे थे तब भी कहा जा रहा था कि यह नौकरीविहीन वृद्धी है। जॉब लेस ग्रोथ है। वैसे भारत में रोज़गार के आंकड़े अमरीका या अन्य मुल्कों की तरह विश्वसनीय तरीके से संग्रहीत नहीं किये जाते हैं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए। मगर दो जगहों से जमा किये गए आंकड़ों से आपको एक तस्वीर दिख सकती है।
जगन्नाथन साहब के लेख से मेरी दिक्कतें अब शुरू होती है। हालांकि मैं अर्थ जगत की जटिलताओं का अध्ययनकर्ता नहीं हूं फिर भी मेरी सहज बुद्धि उनके बताये कारणों और उपायों पर सवाल करती है। जगन्नाथन लिखते हैं कि नौकरियां इसलिए नहीं बढ़ रही हैं क्योंकि हमारे श्रम कानून नौकरी विरोधी हैं। किसी को नौकरी पर रखो तो उसे निकालना मुश्किल हो जाता है। व्यावहारिक रूप से यह कितना बड़ा झूठ है। क्या आपने किसी कंपनी को निकालने से मजबूर देखा है? क्या यही श्रम कानून वाजपेयी काल में जब सबसे अधिक नौकरियां बढ़ीं तब मुश्किलें पैदा नहीं कर रहे थे?
जगन्नाथ कहते हैं कि नौकरियों से निकालने के कानून सख़्त हैं इसलिए कंपनियां मशीनीकरण करने लगीं। क्या वाकई मशीनीकरण का संबंध नौकरियों से निकालने के जटिल श्रम कानून से है? क्या आप पाठक मैट्रिक फेल हैं? हम किस आधार पर ये बात कर सकते हैं। क्या मशीनीकरण का संबंध अविष्कार, लागत और मानव संसाधन बचाने से नहीं होता होगा? दुनिया में कहां ऐसा हुआ है जहां नौकरियों से निकालने के श्रम कानून सरल हैं, मालिकों की मर्ज़ी के अनुसार हैं, वहां मशीनीकरण नहीं हुआ है? मुझे एक बात समझ में आती है। संकट के समय में भी सारे लोग कंपनियों के फायदे की ही वकालत करते हैं।
जगन्नाथ बताते हैं कि इस साल जनवरी से लेकर मार्च में आई टी क्षेत्र की पांच बड़ी कंपनियों में भर्तियां कम हुई है। उन्होंने विप्रो,एचसीएल,टेकमहिंद्रा का नाम लिया है। अब हम नहीं जानते हैं कि इन बड़ी कंपनियों ने कौन सी बड़ी मशीन लगाई है। किस तरह का मशीनीकरण किया है। क्या मशीनीकरण टाल सकते थे या बिना इसके उन्हें दुनिया के बाज़ारों से धंधा ही नहीं मिलता। जगन्नाथन ने बिजनेस अखबारों के हवाले से लिखा है कि कोई साफ्टवेयर कंपनी एक अरब डालर का धंधा करती है तो उसके लिए रखे जाने वाले लोगों की संख्या में लगातार गिरावट आती जा रही है। अब यह गिरावट मुनाफा कमाने के लालच से है या मशीन से या श्रम कानून की वजह से, हम और आप कभी नहीं जान पायेंगे। कोई हमें कंपनियों के अंदर ले जाकर नहीं दिखाने वाला।
जगन्नाथन फिर कहते हैं कि मशीनीकरण से एक क्षेत्र में नौकरियां कम होती हैं तो दूसरे क्षेत्र में बढ़ जाती हैं। कहते हैं कि आज किराना दुकानें बंद हो रही हैं तो मॉल मे गेटकीपर, सेल्समैन की नौकरियां बढ़ रही हैं। कभी आप मॉल जायें तो गेटकीपर और सेल्समैन की सैलरी और काम के घंटे के बारे में पूछ लीजिएगा। जगन्नाथ की शिकायत है और वे इसे मानव स्वभाव मानते हैं कि कामगार तेज़ी से नहीं बदलता। यानी अगर मशीनीकरण के कारण नौकरी जा रही है तो आप मशीन ठीक करने का कौशल ले लें। अब जब नई मशीन खराब होगी तब न काम मिलेगा। कंपिनयों ने साइकिल खरीद ली है क्या कि उसके सामने पंचर बनाने की दुकान खो लें ।
इसलिए ज़रूरी है कि हम हिन्दी के पाठक इन विषयों में समक्ष हों। मौजूदा दौर को इस नज़रिये से समझें। भारत में रोज़गार का बड़ा प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में हैं। वहां मुद्रा बैंक से मिलने वाले कर्ज़े के कारण संभावना व्यक्त की जा रही है। तो क्या बडे सेक्टरों में ब्लू कालर नौकरियां समाप्त प्राय होती जा रही हैं। जिस नौकरी के लिए हमें महंगे प्राइवेट स्कूल से लेकर कालेज तक में सपना दिखाया जाता है क्या वो अब नहीं है?असंगठित क्षेत्र की असुरक्षित नौकरियों से सामाजिक सुरक्षा तो नहीं आएगी। आपकी बेचैनियों का क्या होगा। अगर आप ये समझ जायेंगे तो मेरी इस खीझ को समझ पायेंगे कि क्यों हमें लगातार हिन्दू बनाम मुस्लिम मसलों की तरफ धकेला जा रहा है। मैं नहीं मानता कि आप इन झांसों में आ जाते हैं मगर जिन चैनलों और अखबारों के लिए आप हज़ार रुपये ख़र्च कर रहे हैं, क्या आप उनसे हर तीसरे दिन सिर्फ इसी विषय की मांग करते हैं? क्या आपको नौकरी नहीं चाहिए? क्या नौकरी के सवाल अब हिन्दू बनाम मुस्लिम सवालों से गौण हो गए हैं? सीताश्रीराम, अल्लाहो अकबर कहते हुए गहरी सांस लीजिए। टीवी बंद कर दीजिए।
कस्बा से साभार
Comments