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प्रकाश हिन्दुस्तानी [/caption]
डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी
भोपाल में 10 से 12 सितंबर तक विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है। भोपाल इस आयोजन की मेजबानी के लिए तैयार है। भोपाल में कोई भी आयोजन करने का मतलब है- इवेंट करना। इवेंट मतलब तामझाम, दिखावा और अपनी गोटी फिट करना। आयोजन का उद्देश्य क्या है, आयोजन से कहां पहुंचा जा सकता है, आयोजन का लाभ लोगों तक कैसे पहुंचे, जैसी बातों से आयोजकों को मतलब नहीं। मतलब होगा भी क्यों, क्योंकि यह आयोजन ही सरकारी है। विदेशी मामलों का विभाग इसे आयोजित कर रहा है और मध्यप्रदेश सरकार और उसके विभाग इसमें सहयोगी हैं। कोई भी विश्व स्तर का आयोजन हो और उसमें प्रधानमंत्री आ जाएं, तो सभी को अपनी-अपनी गोटी बिठाने का शानदार मौका मिल जाता है। बजट की कोई कमी भी नहीं रहती, क्योंकि प्रधानमंत्री आ रहे हैं। हमारे प्रधानमंत्री तो यूं भी हिन्दी के समर्थक हैं। आयोजक विदेश मंत्रालय सुषमा स्वराज के भरोसे हैं, जो भोपाल के पड़ोसी विदिशा से लोकसभा की प्रतिनिधि हैं। अब विश्व हिन्दी सम्मेलन के नाम पर हमारे मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के सामने अपना शो दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन को शानदार ग्लोबल इवेंट बनाने की सभी तैयारियां की जा रही हैं। पूरा तामझाम सजाया जा रहा है। एक-एक चीज का ध्यान रखा जा रहा है, सिवाय हिन्दी को बढ़ावा देने वाले और हिन्दी की सेवा करने वाले लोगों के। हमारे मुख्यमंत्री इसके पहले न्यूयॉर्क में इस साल के प्रारंभ में भारी सर्दी के बावजूद मध्यप्रदेश मित्र मण्डल के लोगों का शानदार जमावड़ा कर चुके हैं। जिस पर केवल तीन करोड़ रुपए खर्च हुए थे। अब भोपाल का यह आयोजन तो ग्लोबल इवेंट है, इसलिए इसमें पैसे की तो कमी होने वाली नहीं हैं।
भोपाल में इस आयोजन के लिए शानदार तैयारियां की जा रही हैं। शानदार तैयारियां मतलब भोपाल को सजाया-संवारा जा रहा है। प्रधानमंत्री के स्वागत में नई सड़कें बनाई जा रही हैं, होर्डिंग्स लगाए जा रहे हैं, पानी की टंकियों पर हिन्दी की बारहखड़ी लिखी जा रही है, तम्बू लगाने के ठेके दिए जा रहे हैं, सभी प्रमुख फाइव स्टार और फोर स्टार होटल सरकारी खजाने से पूरी की पूरी तरह बुक किए जा रहे है, ताकि कहीं कोई हिन्दी प्रचारक आकर रुक न जाए, या प्रधानमंत्री की सुरक्षा में या निजता में खलल न डाल दे। आयोजन में सहयोगी के रूप में भोपाल के अटल बिहारी हिन्दी विश्वविद्यालय को नहीं, पत्रकारिता विश्वविद्यालय को जिम्मेदारी दी गई है। पर्यटन विभाग भी इसमें सहयोग कर रहा है। नगर निगम, भोपाल विकास प्राधिकरण और अन्य स्थानीय सरकारी संगठन भी अपने-अपने स्तर पर मदद करने में लगे हैं। सबसे ज्यादा मदद कर रहे है निजी क्षेत्र के वे ठेकेदार, जो ऐसे आयोजनों में अस्थायी निर्माण कार्य करते हैं।
इस सम्मेलन में शामिल होने के लिए रजिस्ट्रेशन फीस है 5000 रुपए (विद्यार्थियों के लिए 1000 रुपए)। सरकारी प्रतिनिधियों के लिए कोई शुल्क नहीं है। सरकारी प्रतिनिधियों के आने-जाने, खाने-पीने, ठहरने की सारी व्यवस्था मुफ्त। ये सरकारी प्रतिनिधि कौन होते हैं? निश्चित ही ये हिन्दी के साहित्यकार, लेखक, प्रचारक आदि तो नहीं ही होते हैं। न ही ये प्रतिनिधि वे होते हैं, जो हिन्दी के लिए समर्पित भाव से काम कर रहे हैं। पूरे आयोजन का ठेका कुछ सरकारी अधिकारियों और कुछ रिटायर्ड अधिकारियों के जिम्मे कर दिया गया है, जिनका एकमात्र मकसद लगता है आयोजन के बहाने चांदी काटना। चांदी काटने का अर्थ पैसा कमाना ही नहीं, स्थानीय बोली में जिसे झांकी-मंडप कहते है, वह सजाना।
आयोजकों को लगता है कि प्रधानमंत्री को तो ऐसे आयोजन में आना ही चाहिए। विश्व सम्मेलन है। भारत में हो रहा है। ऐसे प्रदेश में हो रहा है, जहां उसी पार्टी की सरकार है, जिस पार्टी की सरकार केन्द्र में हैं। विदेश मंत्री का आना भी अपरिहार्य है, क्योंकि वे ही तो आयोजक हैं। रही बात मुख्यमंत्री की, तो उनके बिना आयोजन होगा कैसे? अब आयोजन मध्यप्रदेश में हो रहा है, तो यहां के अफसरों के निर्देशन और सहयोग के बिना तो काम हो नहीं सकता। अब यह दिखाना भी जरूरी है कि यह आयोजन केवल नेताओं का नहीं है, इसलिए अभिनेताओं को भी बुला लिया जाए और अभिनेताओं में अमिताभ बच्चन से बड़ा अभिनेता तो कोई है नहीं, भोपाल के दामाद भी हैं, इसलिए उनका आना तो बनता है। हरिवंश राय बच्चन के बेटे है, तो उनका हक और तगड़ा हो गया। अब इतने बड़े-बड़े लोग आएंगे, तो उनकी सुरक्षा और दूसरे इंतजाम में भी बहुत बड़े-बड़े अफसर आएंगे, इसलिए इनको कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। हिन्दीसेवी आएंगे, तो हिन्दी की बात करेंगे, सवाल-जवाब करेंगे और गंभीर बातें कहना चाहेंगे। अब हिन्दी की बात करने से कोई कवरेज तो मिलेगा नहीं।
इतने बड़े आयोजन के लिए जरूरी है कि उसका ग्लोबल कवरेज हो। इसके लिए बड़े-बड़े चैनलों और प्रिंट मीडिया के संपादकों को बुलाना जरूरी है। कवरेज के लिए रिपोटर्स और कैमरापर्सन्स की जरूरत है। इन लोगों को भोपाल में कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए क्योंकि मामला हिन्दी से ज्यादा नरेन्द्र मोदी, सुषमा स्वराज और शिवराज सिंह चौहान से जुड़ा है और फिर ये सम्मेलन भी तो विश्व सम्मेलन हैं। इसमें बजट की कोई समस्या नहीं रहनी चाहिए। लोगों को याद रहना चाहिए कि वे भोपाल आए थे, जहां लाल परेड ग्राउंड में झमाझम मंडप सजे थे, एयर कंडिशंड तम्बू लगे थे। अमिताभ बच्चन ने हरिवंश राय बच्चन की कविताएं सुनाई थी। भोपाल की झील में शानदार विहार किया था। नवाब पटौदी के खानदान की होटल में अतिथियों को शानदार सेवा मिली थी।
हिंदी है कहां..?
अब इस सब में हिन्दी कहां है? हिन्दी सम्मेलन तो हैं पर इसमें हिन्दी गौण हो गई है। हिन्दी के बहाने यह सम्मेलन हो रहा है, लेकिन क्या वास्तव में यह सम्मेलन हिन्दी के लिए हो रहा है? वरिष्ठ लेखक असगर वजाहत ने विश्व हिन्दी सम्मेलन के बारे में भोपाल के एक कार्यक्रम में 24 अगस्त को कहा था कि लोग आते हैं, फोटो खिंचाते हैं, खाते-पीते हैं, मजे करते हैं और हो जाता हैं विश्व हिन्दी सम्मेलन। असगर वजाहत की विचारधारा कुछ भी रही हो, इसमें किसी को कोई शक नहीं कि वे हिन्दी के लिए समर्पित व्यक्ति हैं।
मध्यप्रदेश हिन्दी का गढ़ रहा है। भोपाल में भी अनेक प्रमुख हिन्दीसेवी हैं, जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दी के लिए जीवन समर्पित कर दिया। इनमें अनेक लेखक हैं, अनेक शिक्षक हैं, अनेक ऐसे लोग हैं, जो हिन्दी के प्रचार में चुपचाप अपना काम कर रहे हैं (यूं भी भोपाल में आधे आईएएस, आईपीएस या तो खुद हिन्दी लेखक- साहित्यकार हैं या उनकी बीवियां)। ऐसे लोगों की उपेक्षा करके विश्व हिन्दी सम्मेलन को सफल नहीं बनाया जा सकता। असगर वजाहत की बात को केवल असगर वजाहत की बात न समझा जाएं, बल्कि उसे उन सैकड़ों हिन्दी सेवियों की आवाज समझा जाएं, जो सरकारी नक्कारखाने में तूती बजा रहे हैं।
इस तरह करोगे सम्मेलन की सूचनाओं का प्रचार—प्रसार
विश्व हिन्दी सम्मेलन की वेबसाइट ही देखिए- उस पर लिखा है सरकारी संगठन। वेबसाइट पर सरकारी संगठन लिखने का उद्देश्य शायद यही है कि यह सरकारी संगठन और आयोजन भी सरकारी हो रहा है, इसलिए जो कुछ भी होगा, वह सरकारी ढर्रे से ही होगा। आप कुछ आशा न करें। विश्व हिन्दी सम्मेलन शुरू होने के पन्द्रह दिन पहले तक सम्मेलन के ट्विटर अकाउंट पर केवल आठ ट्विट नजर आते हैं। इन आठ ट्वीट में क्या है? सम्मेलन की सूचना हिन्दी सेवियों तक पहुंचाने के बजाय ये ट्वीट मंत्रियों की जी हुजूरी में लगते हैं। आठ में से सात ट्वीट मंत्रियों की तस्वीरों के हैं- विदेश मंत्री, विदेश राज्य मंत्री, मुख्यमंत्री... कौन करता है इस ट्विटर अकाउंट का संचालन? सोशल मीडिया पर इस तरह करोगे विश्व हिन्दी सम्मेलन की सूचनाओं का प्रचार-प्रसार?
बेहतर होता कि विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी को कारगर रूप से प्रचारित-प्रसारित करने की योजनाओं पर अमल होता। योजनाओं की समीक्षा होती। अगर कमियां पाई जाती उन्हें दूर करने के उपाय किए जाते। हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए क्या-क्या कदम उठाए जा सकते हैं, इस पर गौर किया जाता। हिन्दी केवल बॉलीवुड की भाषा नहीं, करोड़ों करोड़ लोगों की मातृभाषा होने के साथ ही एक सम्पर्वâ भाषा और कारोबार की भाषा भी है। इस बात को अगर अमेरिका और स्पेन की सरकार समझती है, तो भारत की सरकार क्यों नहीं समझती?
हिन्दी का प्रचार और ऐसे सम्मेलनों का आयोजन सरकारी मातहतों के जरिए करके हम क्या संदेश देना चाहते हैं? हिन्दी के लोकतांत्रिक स्वरूप का प्रचार-प्रसार कैसे किया जाएं, व्यावसायिक प्रयोग के क्षेत्र में हिन्दी को कैसे बढ़ावा दिया जाए, हिन्दी में शिक्षण-प्रशिक्षण और उसके अनुशीलन के लिए क्या योजनाएं बनाई जाएं? हिन्दी को नई तकनीक में किस तरह आगे बढ़ाया जाए। विश्व स्तर के भारतीय उत्पादों में हिन्दी का उपयोग किस तरह किया जाए? बैंकिंग, बीमा, कम्प्युटिंग, उच्च शिक्षा, विज्ञान, तकनीक आदि के क्षेत्र में कैसे हिन्दी को प्रोत्साहित किया जाए कि वह ज्यादा से ज्यादा चलन में लाई जा सकें? विदेश में हिन्दी को और लोकप्रिय बनाने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते है, इस पर विचार करने की जरुरत है। हिन्दी साहित्य के विशाल भंडार को दुनिया तक पहुंचाने के लिए कौन-कौन से कदम उठाए जा सकते हैं और विश्व के महान साहित्य कोष से हिन्दी में कौन-कौन सा साहित्य अनुवाद होकर उपलब्ध होना चाहिए, इस पर चर्चा क्यों नहीं होती? हिन्दी शिक्षण के लिए नई तकनीकों की उपेक्षा क्यों होती है? ‘हिन्दी’ का जिक्र होते ही अगर हमारे ही मन में हीनता या उपेक्षा का भाव आएगा, तब हम हिन्दी को विश्व स्तर पर पहुंचाने का कार्य कैसे कर पाएंगे?
केवल भावनाओं से विश्वभाषा नहीं बनेगी हिंदी
हिन्दी केवल भावनाओं से ही विश्व भाषा नहीं बनेगी। उसके लिए सभी को कार्य करने होंगे। सरकार को अपने मन में यह डर निकालना होगा कि इससे दूसरे अहिन्दी भाषी क्षेत्र के लोग नाराज हो जाएंगे। संयुक्त राष्ट्र की भाषा हिन्दी हो सकती हैं बशर्ते हम हिन्दी भाषी इसके लिए तैयार हो और कुछ त्याग और बलिदान करने के लिए तैयार रहे। संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी लाने के लिए बहुत बड़ी पूंजी की जरूरत है, जिससे कि वहां के तमाम दस्तावेज अनूदित हो सके। इसके लिए करोड़ों डॉलर का खर्च होगा। अगर अमेरिका की सरकार पचासों विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाने के लिए व्यवस्था कर सकती है, तो हम अपने ही देश में उससे कई गुना अच्छी व्यवस्था क्यों नहीं कर सकते?
विश्व हिन्दी सम्मेलन के सचिवालय का हाल यह है कि वह पूछताछ के लिए आने वाली ई-मेल का जवाब ही नहीं देता। ऐसे सम्मेलनों में दुनियाभर से लोग आते हैं और इससे पर्यटन को बढ़ावा भी मिलता है, लेकिन मध्यप्रदेश पर्यटन ने इस मौके पर सम्मेलन में आने वाले विद्वानों के लिए किसी भी तरह की छूट का प्रावधान तो दूर, उनके लिए आरक्षण ही बंद कर रखा है। अगर आपको मेरी बात पर विश्वास न हो, तो मध्यप्रदेश पर्यटन की वेबसाइट पर जाकर भोपाल के किसी भी होटल में 10 से 12 सितंबर का आरक्षण करवाकर बता दीजिए। पर्यटन विभाग के होटलों के अलावा अन्य प्रमुख होटलों के भी आरक्षण पूरी तरह से आयोजकों ने अपने नाम कर रखे हैं, ताकि अफसरों को ठहराया जा सके। 70 से अधिक अफसर दिल्ली से और करीब 150 अफसर भोपाल से इस आयोजन में हिस्सा लेंगे। भोपाल के अफसरों को सरकारी होटलों में क्या जरूरत है, क्योंकि उनके सरकारी बंगले तो भोपाल में है ही। अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर स्थापित भोपाल के हिन्दी विश्वविद्यालय को इस पूरे आयोजन से अलग रखना भी विचित्र बात है। जो विश्वविद्यालय ही हिन्दी के नाम पर चल रहा हो, उसे इस आयोजन से दूर रखना कहां की बुद्धिमता है? यह बात दीगर है कि यह विश्वविद्यालय हिन्दी की टांग तोड़ने में कोई कमी नहीं छोड़ रहा। यहीं वह विश्वविद्यालय है, जो अपने विज्ञापनों में ई-मेल की जगह ‘अणु डाक’ जैसे वाहियात प्रयोग करता है। ऐसे ही लोगों के कारण हिन्दी हंसी का कारण बनती है।
हिन्दी के प्रचार-प्रसार के नाम पर हम कब तक भारतेंदु हरिश्चन्द्र और महात्मा गांधी के उद्धरण सुना-सुना कर मन बहलाते रहेंगे? हिन्दी के नाम पर कब तक बॉलीवुुड के गाने और टीवी चैनल के सोप ऑपेरा की चर्चा करते रहेंगे? वक्त आ गया हैं ऐसे में भी अगर हम अपने गिरेबां में नहीं झाकेंगे, तो फिर इस पर कब गौर करेंगे?
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