प्रकाश हिंदुस्तानी
कोलंबो एयरपोर्ट पर उतरने के बाद ऐसा लगा नहीं कि किसी पराए देश की जमीन पर हैं। यह एहसास थोड़ी ही देर रहा। हमारे साथ ही उतरी दो महिला यात्रियों को कस्टम विभाग ने रोक लिया। वे दोनों महिलाएं तमिल भाषी थीं। हमारा वीसा और पासपोर्ट देखने के बाद हमें तो ग्रीन चैनल से जाने दिया गया, लेकिन हमारे ही एक साथी को कहा गया कि आपका वीसा नकली है। आपको फिर से आवेदन करना होगा और वीसा फीस भी देनी होगी। हमारे साथी अड़ गए और काफी हुज्जत के बाद एयरपोर्ट से बाहर आ सके। दरअसल वीसा की जांच कर रहे अधिकारी ने उनकी जन्मतिथि गलत फीड कर दी थी। जिससे उनकी यात्रा की पुष्टि नहीं हो पा रही थी। गलती सामने आने के बाद भी उस अधिकारी ने कोई खास विनम्रता नहीं दिखाई। कायदे से उसको माफी मांगनी चाहिए थी।
एयरपोर्ट के तमाम होर्डिंग्स और सूचनापट सिंहली में लिखे गए थे या अंग्रेजी में। हिन्दी का कहीं नामो निशान नहीं था। एयरपोर्ट पर बताया गया कि श्रीलंका में विदेशी यात्रियों से भुगतान या तो श्रीलंकाई रुपए में लिया जाता है या अमेरिकी डॉलर में। मेरे पास कुछ अमेरिकी डॉलर थे, तो मैंने उन्हें श्रीलंकाई रुपए में बदलने के लिए कहा। एक डॉलर के बदले 133 श्रीलंकाई रुपए मिले। भारत में एक डॉलर के 64 भारतीय रुपए मिल रहे थे। इस बात की राहत हुई कि श्रीलंका में भारतीय रुपये की कीमत दो गुने से भी ज्यादा है। कोलंबो एयरपोर्ट के रेस्तरां में भारतीय रुपया स्वीकार नहीं था। उन्हें डॉलर में भुगतान पसंद था। यहीं पता चला कि श्रीलंका के अंदर भारतीय रुपया दुकानदार स्वीकार कर लेते है और उनकी कीमत श्रीलंकाई रुपए की तुलना में दोगुनी है।
कोलंबो एयरपोर्ट पर आने वाले यात्रियों में भारतीयों की तादाद अच्छी-खासी थी, लेकिन विदेशी उससे भी अधिक थे। चीनी, जापानी, जर्मन, फ्रेंच और यूरोपीय देशों के यात्री बड़ी संख्या में नजर आ रहे थे। मुझ जैसे व्यक्ति के लिए सिंहली और तमिल में अंतर करना मुश्किल था। मैं जिस आयोजन में जा रहा था उसके अतिथियों में भी श्रीलंकाई सरकार का कोई प्रतिनिधि नहीं था। मुझे बताया गया कि श्रीलंका में भारतीयों से सरकार काफी डरी हुई लगती है। उसकी निगाह में सभी भारतीय पृथकतावादी, तमिल ईलम के समर्थक है। श्रीलंका में गृह युद्ध खत्म हो चुका है और अब वहां विकास की बात हो रही है। नए राष्ट्रपति बनने के बाद मैत्रिपाल सिरिसेना ने पहली विदेश यात्रा भारत की ही की थी, लेकिन अभी भी भारतवासियों के प्रति उनके मन में कुछ शक तो है। पिछले तीस साल में श्रीलंका गृह युद्ध की स्थिति से निपटता रहा है और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति आतंकवाद की भेंट चढ़ चुके हैं। पिछले तीस साल में करीब 70 हजार तमिलों की हत्या आतंकवाद के नाम पर की गई। तमिलनाडु में जब से यह खुलेआम ऐलान हुआ है कि हम श्रीलंका में स्वतंत्र तमिल राष्ट्र बनाने में पूरा सहयोग करेंगे, श्रीलंका की सरकार लगातार भारत से दूरी बनाए हुए है। यह बात और है कि श्रीलंका कि एकता बनाए रखने के लिए भारत के अनेक सैनिकों ने अपना बलिदान किया था। जो पीस कीपिंग फोर्स का हिस्सा थे। श्रीलंका को लगता है कि भारत से आतंकी उनके देश में कभी भी प्रवेश कर सकते है और वहां की एकता को खतरा हो सकते है। श्रीलंका के पास कच्चा तिवु द्वीप के इलाके में खूब मछलियां मिलती है और भारतीय मछुआरे वहां मछलियां पकड़ने जाया करते है। लंबे समय तक यह द्वीप विवादों में रहा और आखिरकार भारत ने उस पर से अपना दावा छोड़ दिया। भारतीय मछुआरे यहां जाकर विश्राम कर सकते है, लेकिन यहां मछलियां नहीं पकड़ सकते।
श्रीलंका के पर्यटन केन्द्रों पर जाएं तो ऐसा लगता है मानो यूरोप के किसी देश में आए हों। ऐसे देश में जहां के लोग भारत जैसे ही दिखते है, लेकिन वास्तव में है नहीं। श्रीलंका के तमाम होटल यूरोपीय पर्यटकों को लुभाने में कोई कमी नहीं छोड़ते है। उन्हें शायद डॉलर का ज्यादा मोह है। होटलों की सभी सेवाएं यूरोप के पर्यटकों को ध्यान में रखकर तय की गई है। बेहद महंगी और औसत दर्जे की। कैंडी के होटल में मैंने अपनी तीन कमीज ड्रायक्लीन के लिए दी। जिनका बिल आया 155 रुपए प्रति शर्ट। माना की श्रीलंका के रूपए की कीमत भारतीय रुपए से आधी है, लेकिन फिर भी यह एक डॉलर से अधिक ही होती है। पानी की आधा लीटर की बोतल सौ रुपए से कम की नहीं। एक कोल्डड्रिंक की बोतल 150 रुपए की। ऐसा लगा मानो उन्हें भारतीय पर्यटकों में कोई रुचि नहीं है।
इस बात की पुष्टि तब हुई जब हमने अपने गाइड से कहा कि हमें अशोक वाटिका और सीता वाटिका देखना है। गाइड महोदय लगे हीला हवाला करने। वो खुद ईसाई थे, लेकिन गाइड का यह काम नहीं है कि वह अपनी राय किसी पर थोपे। गाइड ने कहा कि वहां देखने लायक कुछ है नहीं। आप वहां जाओगे तो निराश ही होओगे। हमने कहा कि हमें जाना ही है, तब उसने कहा कि अगर आप अशोक वाटिका और सीता वाटिका देखने जाएंगे तो आप बहुत सी जगहें नहीं देख पाएंगे। हमने कहा कि हमें तो वहां जाना ही जाना है। बड़े हताश मन से वह हमें सीता वाटिका और अशोक वाटिका लेकर गए। वहां रामायण कालीन इन धार्मिक स्थानों की दशा बहुत ही खराब थी। सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं। पर्यटकों के लिए कोई सूचना नहीं, पर्यटकों के लिए कोई सुविधा भी नहीं। सीधा सा ख्याल आया कि इन स्थानों को प्रचारित करके श्रीलंका करोड़ों पर्यटकों को बुलावा दे सकता है, लेकिन लगता है कि श्रीलंकाई सरकार के लिए हर भारतीय पृथकतावादी तमिल ही है।
श्रीलंका के भ्रमण में जगह-जगह चीन के सहयोग से बनी इमारतें नजर आ जाती है। भारत की रुचि श्रीलंका में दो बातों पर केन्द्रित है। पहली तो यह कि वहां रहने वाले भारतीय मूल तमिलों के अधिकारों की रक्षा हो और दूसरा भारत की सीमाओं पर कोई खतरा न मंडराए। श्रीलंका की सरकार ने भारत के साथ अपने संबंधों का उपयोग रणनीति के तौर पर किया। भारत के निवेश को कम प्राथमिकता दी और चीनी निवेश को बढ़ावा दिया। भारत श्रीलंका को बहुत बड़ी आर्थिक मदद देता आया है, लेकिन श्रीलंका चीन की गोदी में जाकर बैठ जाता है। भारत ने हमेशा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी श्रीलंका का साथ दिया, लेकिन श्रीलंका इतना वफादार नहीं रहा। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी श्रीलंका का यहीं रवैया जारी है और इसी के चलते उसने श्रीलंका बंदरगाह पर चीनी परमाणु पनडुब्बी को ठहरने की अनुमति दे दी थी।
श्रीलंकाई सरकार का चाहे जो रवैया हो, वहां के नागरिकों को भारतीयों से कोई शिकायत नहीं है। वे अपने आप को भारतीयों के ज्यादा करीब पाते है। जिस होटल में हम रुके थे, वहां भारतीय रुपया स्वीकार नहीं था, लेकिन डिनर के वक्त वहां लाइव म्युजिक के दौरान चार गायकों ने डेढ़ घंटे तक हिन्दी फिल्मी गाने सुनाकर हमारा दिल जीत लिया। होटल के कर्मचारी हमसे हिन्दी में ही बात करते। जब हम पूछते कि क्या आप भी भारत से है तो सभी एक सुर में यह कहना था कि हमने हिन्दी दुबई में सीखी है। पता नहीं वे भारत आए भी होंगे या नहीं। अगर वे आए भी होंगे कि वे यह कहने में सकुचाते हैं कि उनके भारत से संबंध हैं।
नोगेम्बो समुद्र तट पर एक छोटी सी चाय की दुकान में जब मैं चाय पीने गया तब वहां भारतीय ढाबों की तरह चाय उपलब्ध थी। इतना ही नहीं आलू बड़े, इडली, समोसे आदि भी उपलब्ध थे। चाय बना रहे व्यक्ति से हमने पूछा कि आप कहां से है तो उसने कहा कि मैं नेपाल से हूं। उसके हाव-भाव शक्ल सूरत कहीं से भी यह नहीं लग रहा था कि वह नेपाल से श्रीलंका गया होगा। बाद में मुझे पता चला कि श्रीलंका मे बड़ी संख्या में पाकिस्तानी और बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे हैं। कुछ इलाके तो भारत के बिहार और उत्तरप्रदेश के किसी गांव-कस्बे की तरह नजर आते है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर मस्जिदें और दरगाह नजर आती है। बुर्का पहने महिलाएं काम पर जाती हुई नजर आ जाती हैं। श्रीलंका के स्थानीय सिंहली लोगों से बात की तो उनका कहना था कि वे इन मुस्लिम समुदाय के लोगों से घुलना-मिलना पसंद नहीं करते। इन लोगों से उन्हें असुरक्षा की भावना पैदा हो जाती है।
एक निकटवर्ती पड़ोसी देश होने के नाते श्रीलंका में हमें जितना अपनत्व लगता है उतना अपनत्व वहां जाकर महसूस नहीं हुआ। यह अपनत्व नेपाल और भूटान में साफ नजर आता है। श्रीलंका में लगता है कि हम किसी अजनबी देश में है, जहां के लोग हम जैसे नजर आते है, लेकिन हैं नहीं।
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