हेमंत कुमार झा।
नरेंद्र मोदी के सामने मंच पर घिघियाहट अगर नीतीश कुमार के राजनीतिक रूप से जर्जर हो जाने का प्रतीक है तो के के पाठक की कारगुजारियां नीतीश के प्रशासनिक तंत्र की जर्जरता का सबूत हैं।
किसी सत्तासीन राजनेता की राजनीतिक जर्जरता अक्सर उसके प्रशासनिक तंत्र की जर्जरता के रूप में सामने आती है।
कुछ ही महीने तो बीते हैं जब नीतीश कुमार मोदी विरोध के एक सशक्त केंद्र के रूप में सामने आए थे। उनके प्रशंसकों में उम्मीद जगी थी कि वे अपने राजनीतिक तेज के साथ मोदी के बरक्स उठ खड़े होंगे और सत्ता परिवर्तन की मुहिम में बड़ी भूमिका निभाएंगे।
बावजूद इसके कि कांग्रेस और लालू प्रसाद की कलाबाजियों ने उन्हें हतोत्साहित किया लेकिन उनके प्रशंसक और बड़े-बड़े राजनीतिक समीक्षक यह मानने को बिलकुल तैयार नहीं थे कि अब वे फिर से भाजपा के पाले में जा कर मोदी के समक्ष नतमस्तक होने को तैयार होंगे।
आखिर, क्रेडिबिलिटी भी कोई चीज होती है और कई बार इधर-उधर होने के बावजूद नीतीश कुमार की क्रेडिबिलिटी कुछ न कुछ तो बची हुई थी ही। बार-बार के उनके पाला बदल के समर्थन में कई तर्क दिए जा सकते थे जो बहुत अधिक नहीं तो कुछ हद तक तो दमदार थे ही।
जातीय समीकरण आधारित बिहार की राजनीति में उनका सत्ता के केंद्र में बने रहना अधिक महत्वपूर्ण था बनिस्पत इसके कि वे किसके समर्थन से सरकार में हैं। वे सदैव ड्राइविंग सीट पर रहे और अपनी सोच या अपनी कार्य प्रणाली से कभी समझौता नहीं किया।
भाजपा के साथ लंबे समय तक रह कर भी उन्होंने उसके सांप्रदायिक एजेंडा को बिहार में हावी होने नहीं दिया और जब राजद के साथ आए तो उसे प्रशासन में अतिरिक्त हस्तक्षेप की कभी इजाजत नहीं दी।
लेकिन, इस बार का पाला बदल उनकी क्रेडिबिलिटी को रसातल में ले गया। उनके घनघोर प्रशंसकों से लेकर निष्पक्ष राजनीतिक समीक्षकों तक को कोई तर्क समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों हुआ और चार पांच दशकों की उनकी यशस्वी राजनीतिक यात्रा का ऐसा दारुण सैद्धांतिक पराभव क्यों हुआ।
अब वे अपने अतीत की छाया भी नहीं लगते। कभी भारतीय राजनीतिक आकाश पर एक चमकदार नक्षत्र की मानिंद चमकने वाले नीतीश जब मोदी के सामने मंच पर बार-बार, "अब हम कहीं नहीं जाएंगे, अब हम आपके साथ ही रहेंगे" की घिघियाहट भरे बोल दुहराते हैं तो शास्त्रों के ये वचन याद आते हैं, "मनुज बली नहिं होत है, समय होत बलवान।"
क्या कोई नीतीश से सार्वजनिक मंचों पर इन कातर वचनों की कभी थोड़ी भी उम्मीद करता था? उनके धुर आलोचक भी कभी ऐसा नहीं सोचते होंगे।
लेकिन, वो कहा गया है न कि सत्य कल्पना से भी परे जा सकता है। आज यह सामने दृष्टिगोचर है।
क्या कोई सोच सकता था कि विधान सभा में की गई मुख्यमंत्री की घोषणा की स्पष्ट अवहेलना कोई ब्यूरोक्रेट करे और करता ही जाए? बड़े बड़े संविधानवेत्ता अचंभित हैं लेकिन जो है वह सबके सामने है।
के के पाठक नामक नौकरशाह के तमाम करतब नीतीश कुमार की राजनीतिक जर्जरता के कारण उत्पन्न प्रशासनिक तंत्र की जर्जरता के परिणाम हैं। कहने को शिक्षा विभाग शिक्षकों की लगाम कस कर सुधार की कवायदों में लगा है लेकिन यह सस्ते प्रचार और समाज में शिक्षकों के प्रति दशकों से बनती गई नकारात्मक भावनाओं का दोहन मात्र है।
जैसा कि कितने शिक्षक नेता, मीडिया पर्सन आदि आरोप लगा रहे हैं, के के पाठक का "आउट सोर्सिंग प्रेम" भ्रष्टाचार के बड़े और गंदे नाले के रूप में परिवर्तित होकर पूरे शिक्षा जगत में अजीब सी दुर्गंध फैला रहा है। स्कूलों के सतत निरीक्षण के नाम पर इतने सारे लोगों को इस काम में लगा दिया गया है जो परिसरों और शिक्षकों की गरिमा के नितांत प्रतिकूल तो है ही, शिक्षा शास्त्र की भी ऐसी की तैसी कर राह है।
जिसे देखो मुंह उठा कर स्कूलों में निरीक्षण के नाम पर पहुंच जा रहा है। अब तो ऐसे आरोप कोलाहल का रूप ले चुके हैं कि निरीक्षण के नाम पर लूट का बड़ा बाजार सज चुका है। सामग्रियों के क्रय और निर्माण कार्यों में भयानक भ्रष्टाचार के आरोपों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है।
यह अकाट्य सत्य है कि शिक्षा के तंत्र में सुधार शिक्षा शास्त्रीय पद्धतियों और नियम कायदों को अमल में ला कर ही कियाजा सकता है, ब्यूरोक्रेसी की हंटरबाजी से अगर सुधार आना होता तो यह तो बहुत आसान रास्ता होता। फिर, शिक्षा शास्त्र और उसके विशेषज्ञों की जरूरत ही क्या थी?
संवैधानिक और प्रशासनिक मर्यादाओं के जानकारों के लिए यह अकल्पनीय है कि कोई सरकारी अधिकारी मुख्यमंत्री के आदेश की अवहेलना करे, राज्यपाल के पत्रों की अवहेलना करे, उसकी कारगुजारियों से शिक्षा जगत का विवाद कर्कश कोलाहल में बदल जाए और यह सब बदस्तूर चलता रहे।
क्या कुछ वर्ष पहले के नीतीश कुमार के राज में यह संभव होता? के के पाठक को इस तरह की खुली छूट दे कर नीतीश कुमार बौद्धिक जगत की नजरों में कोई ऊंचा स्थान नहीं बना रहे।
एक ऐसा भी समय आया जब अवतार पुरुष कृष्ण भी अपनी पारी खेलने के बाद अप्रासंगिक और निरीह होने लगे थे। उनके अंत समय में उनकी विवशताओं के किस्से हजारों वर्षों से कहे सुने जाते रहे हैं।
मोदी के सामने मंच पर घिघिया कर और के के पाठक जैसे अधिकारियों की अव्यावहारिक और दूसरों की गरिमा पर चोट पहुंचाने वाली कार्यप्रणाली को सतत संरक्षण दे कर नीतीश कुमार ऐसा ही कोई विवश संदेश अपने उस राज्य को दे रहे हैं जिसने उन्हें बहुत प्यार और अथाह सम्मान के साथ ही अपार विश्वास दिया। अपने नायक को अपनी ही नजरों से उतरते देखना भला किसे सुहा रहा होगा?
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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