ओमप्रकाश गौड़।
आज 6 सितंबर का भारत बंद भ्रमित हो गया। जरा लोगों से पूछें कि उन्होंने बंद क्यों किया है या जो करवा रहे हैं या समर्थन कर रहे हैं उनसे पूछें कि बंद क्यों है? तो वे जवाब देंगे आरक्षण के विरोध में जबकि, इसकी चिंगारी दलितों के खिलाफ अपराध में बिना जांच के होने वाली गिरफ्तारी के विरोध में फूटी है।
गिरफ्तारी का प्रावधान पहले से ही था लेकिन सुप्रीम कोर्ट में उसमें गिरफ्तारी से पहले जांच का पेंच फंसा दिया। अग्रिम जमानत के प्रावधान को पुनर्जीवित कर दिया। इसे निष्प्रभावी करने के लिये सरकार संशोधन लाई। उसी के विरोध में ही तो यह आंदोलन है, इसका आरक्षण से कोई संबंध नहीं है। इसलिये मैं कह रहा हूं कि आंदोलन भ्रमित हो गया है।
जहां तक संशोधन की बात है तो इसके लिये सभी आरक्षण समर्थक पार्टियां व लोग काफी मुखर थे वे सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदलवाना चाह रहे थे। सरकार दबाव में आ गई, संसद में एक ने भी इस बदलाव का विरोध नहीं किया।
इनमें भाजपा, कांग्रेस, सपा सहित सभी पार्टियों के सांसद शामिल थे। बल्कि ये तो शेड्यूल 9 में इसे रखवाना चाह रहे थे ताकि इसे कोर्ट के दायरे से बाहर रखा जा सके। अभी भी खतरा है कि कोई अदालत में जाएगा तो यह संशोधन फिर अवैध करार दे दिया जाएगा और जांच के निर्देश बहाल हो जाएंगे।
आरक्षण ज्वलंत मुद्दा बन चुका है, इसका समाधान किसी के पास नहींं है। आज विरोधियों में उग्र युवाओं का बड़ा समूह बन चुका है जो आरक्षण को सहने को रंचमात्र भी तैयार नहीं है फिर चाहे आप संविधान की या सामाजिक न्याय की लाख दुहाई दे दें वह सुनने को तैयार नहीं है और मरने मारने के लिये उतारू है।
प्रतिभाशाली गरीब युवाओं पर आरक्षण का पड़ रहा दुष्प्रभाव इस आग में घी डाल रहा है। जब बात सरकारी नौकरियों की आती है तो मध्यम और उच्च वर्ग का युवा भी उसी उग्रता के साथ आरक्षण के खिलाफ नजर आता है।
ठीक इसी के विपरीत आरक्षण का लाभ उठा रही जातियों में भी आज ऐसा समर्थ और सक्षम युवा वर्ग पैदा हो चुका है जो आरक्षण के पक्ष में मरने मारने के लिये तैयार है। वह किसी भी दृष्टि से किसी से कमजोर नहीं है।
इसमें आरक्षित वर्ग के मध्यम व उच्च वर्ग के युवा भी उसी उग्रता से शामिल हैं। वे किसी प्रकार की आय सीलिंग को मानने को तैयार नहीं हैं। आरक्षण में जिस वर्ग को दलित, या कमजोर या गरीब कहा जा रहा है उसमें भी एक बड़ा मध्यम और उच्च वर्ग बना दिया है।
यह वर्ग गैर आरक्षित लोगों के लिये भारी ईष्या का विषय बना हुआ है और गुस्से का सबब भी। गैर आरक्षित वर्ग का मध्यम और उच्च वर्ग इसी से सबसे ज्यादा खफा है। एक तरह के उग्र वर्ग संघर्ष की स्थिति बन चुकी है जो काफी विस्फोटक है।
भाजपा, कांग्रेस, कम्युनिस्ट जैसी मध्यम मार्गी देशव्यापी राजनीति करने वाली पार्टियों के लिये यह खतरे की घंटी है।
संसदीय लोकतंत्र में जीत हमेशा संगठन की होती है भीड़ की नहीं। आरक्षण के समर्थन या विरोध की उग्र राजनीति करने वालों की निजी तौर पर या संगठन के तौर पर पराजय तय है। ये वोट काटने से ज्यादा अहमियत नहीं रखते।
इसलिये समय रहते ऐसे सामाजिक और राजनीतिक उपाय तलाशे जाने चाहिये जो शांतिपूर्ण होने के साथ मध्यममार्गी हों ताकि सामज में तालमेल, सौहार्द और शांति बनी रहे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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