रजनीश जैन।
सागर का सिटी फारेस्ट वस्तुत: प्राकृतिक एक सघनवन का हिस्सा है जिसे फारेस्ट डिपार्टमेंट ने बड़े कायदे से सहेज कर रखा था। पीछे की तरफ से सागर विश्वविद्यालय की पहाड़ियों ने इसे सुरक्षित किया हुआ है। यहां तेंदुआ, जंगली सुअर, सियार,हिरणें, पक्षियों की विविध प्रजातियों जैसे प्रचुरता से मोर, फ्लाइकैचर की विविध किस्में, पैराडाइज बर्ड, कई प्रकार के सन बर्ड, बबलर, उल्लूओं की किस्में, तीतर आदि सैकड़ों किस्मों के पक्षी पाए जाते रहे हैं। समय- समय पर इससे जुड़ी पहाड़ियों की तराई में रहने वाले पशुपालकों से बात करें तो पता लगता है कि यहां भेड़िया और लकड़बग्घा भी दिखाई देते रहे हैं और बकरियों का शिकार करते रहे हैं। मोरों का तो यह सुरक्षित प्रजनन केंद्र है और श्रावण मास की वर्षा ऋतु में मयूरों की बड़ी संख्या अपने अंडों पर है या छोटे छोटे बच्चों को पाल रही है। वृक्षों, औषधीय पौधों की व्यापक विविधता यहां आरंभ से रही है। अजगर, ग्रीन वाइपर जैसे सर्पों की उपलब्धता इस क्षेत्र में है। लेकिन यह सारा प्राकृतिक सौंदर्य, जीव विविधता अब मनुष्यों के बढ़ते दखल के कारण खत्म होने की कगार पर है।
कुछ वर्ष पहले जब यह नैसर्गिक जंगल सिटी फारेस्ट के नाम पर दिया जा रहा था मैंने इसका विरोध किया था। तब वनविभाग और जनप्रतिनिधियों ने कहा था कि यहां का इंतजाम सिटी फारेस्ट ही संभालेगा और यहां मनुष्यों की सीमित, शोरविहीन गतिविधियां होंगी। कुछ निर्धारित ट्रेक होंगे जिन पर लोग निश्चित समयावधि में आ जा सकेंगे। लेकिन मनुष्य प्रजाति अपने लालचों से बाज नहीं आती। यहां सुबह लोगों ने मार्निंग वाक पर जाना शुरू किया।
इन जन समूहों में मित्र मंडलियां, परिवार, ध्यान व योग के आकांक्षी लोग शामिल थे। यह स्थान सुरम्य आपको भीतर बाहर से शांत कर देता था। धीरे-धीरे यहां लोग टहलने के दौरान चिल्लम चिल्ली के साथ राजनैतिक बहसों को भी लेकर झुंडों में विचरने लगे। मोबाइल पर गीत संगीत सुनाई देने लगे। फिर नशेड़ियों का जमघट लगने लगा।
दोपहर के प्रतिबंधित समयों में यहां कई स्थान, मचानें मदिरा प्रेमियों के लिए सुलभ होने लगे। प्रेमी जोड़े भी पहुंचने लगे। यदाकदा द्यूत क्रीड़ा के फड़ दिखाई देने लगे। वनविभाग ने कुछ आसपास के ग्रामों के संदिग्ध रिकार्ड वाले कर्मचारियों को यहां ड्यूटियां दे रखी हैं। उनकी आय इन गतिविधियों से जुड़ गई और यह प्राकृतिक स्थल उद्योग में बदलने लगा। खाने पीने के कचरे से यहां शहरी कुत्तों के झुंड आकर्षित होने लगे। कुत्तों के इन झुंडों ने मोरों, जंगली सुअरों व हिरणों का शिकार करना शुरू कर दिया। इस तरह यहां का प्राकृतिक जैविक चक्र और पर्यावरण बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हुआ।
पर मनुष्य इतने पर ही रुकने वाला नहीं है। अब इस जगह का इस्तेमाल चौपाटी की तरह हंगामों के साथ माइक, स्पीकर, डीजे , नाच गानों के साथ गीत संगीत और विभिन्न सांगीतिक व्यायामों के लिए हजारों की भीड़ के साथ होगा। इसकी व्यवस्था हमारे शहर के विधायक शैलेंद्र जैन ने की है। उनकी इच्छा व हुक्मनामे के अनुसार अब लाखा बंजारा तालाब के संजय ड्राइव पर होने वाली रविवारीय राहगीरी अब इस सिटी फारेस्ट में होगी।
इसमें शहर के लोग सैंकड़ों के कई समूहों में जुटते हैं और विभिन्न गतिविधियों में हंगामों के साथ शरीक होते हैं। इसे वे जुंबा, एरोबिक्स वगैरह कहते हैं। विधायक जी की शायद परिकल्पना में हो कि जंगली जीवों को भी अब जुंबा,योग, सुगम संगीत और हिपहाप वगैरह सिखाया जाए। जैन दर्शन की अद्भुत शिक्षाओं में से एक यह है कि हमारी उपस्थिति का न्यूनतम अहसास प्रकृति को होना चाहिए। लेकिन राजनैतिक आवश्यकताएं जंगलों में भी डिस्कोथेक खुलवा सकती है।
पर वनविभाग के आला अफसर क्या सो रहे हैं। वे क्यों नहीं रोकते इस सारे विनाश को। वनविभाग ने लाखों रुपए खर्च करके सिटी फारेस्ट में बहुत ऊंचा कांच के फर्श वाला वाच टावर बनवाया है, इसका उपयोग ही यह है कि जंगल की शांति को भंग किए बिना यहां की जैव विविधता और प्राकृतिक छटा का आनंद लिया जा सके।
विधायक शैलेन्द्र जी ओशो के अनुगामी हैं... पर सिटी फारेस्ट को व्यहृत करते समय उन्हें पत्रकार पंकज सोनी से प्रेरणा लेना चाहिए। ध्यान से उमगे प्रेम में पंकज की वृक्षों से लिपटी तस्वीरें देखता हूं तो जबलपुर आश्रम में ध्यान शिविरों का अनुभव ताजा हो जाता है। सिटी फारेस्ट की बची खुची नीरवता का सदुपयोग पंकज जैसे लोग ही कर पा रहे हैं। विधायक शैलेंद्र जी से अनुरोध है कि सिटी फारेस्ट में कल रविवार की राहगीरी आयोजन के निर्णय को निरस्त कर प्रकृति को न्याय प्रदान करें। सिटी फारेस्ट के निकट बन रहे पितृछाया वन को ऐसी गतिविधियों के लिए ही बनाया जा रहा है। कुछ समय बाद उसको ही राहगीरी का नया अड्डा बना लीजिएगा। (सागर सिटी फारेस्ट की तस्वीरें विभिन्न वर्षों, मौसमों की हैं, वाच टावर भी तस्वीरों में है)
लेखक के वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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