राकेश दुबे।
देश के बैंक वित्तीय एवं बैंकिंग व्यवस्था गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) यानी फंसे हुए कर्जों के भारी दबाव में हैं। अब उनकी चिंता प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत बांटे गये ऋण के बड़े हिस्से की वापसी की है।
बैंको का अनुमान है यह संकट और भी गंभीर हो सकता है। यह आशंका बेवजह नहीं है। इसके पीछे ठोस कारण है, रिजर्व बैंक की चेतावनी।
रिजर्व बैंक ने सरकार को आगाह किया है कि प्रधानमंत्री मुद्रा योजना में फंसे हुए कर्ज की राशि 11 हजार करोड़ रुपये तक जा पहुंची है। इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज लिमिटेड में पैदा हुई मुश्किलों का फिलहाल सामना कर रहे वित्तीय तंत्र के लिए यह बेहद चिंताजनक है।
उदाहरण के लिए ज्यादा दूर नहीं देखना है, पिछले वित्त वर्ष के आखिर में बीमा क्षेत्र के एनपीए में 26 प्रतिशत की बढ़त हुई थी और यह 18 हजार करोड़ से बढ़कर 22,700 करोड़ रुपये हो गया था|
आंकड़े कहते हैं मार्च, 2018 तक पूरे बैंकिंग सेक्टर के फंसे हुए कर्ज की राशि 10.25 लाख करोड़ तक पहुंच चुकी थी।
हालांकि, सरकार और रिजर्व बैंक ने एनपीए की वसूली और इसकी बढ़त पर लगाम लगाने के लिए बैंकों को पूंजी उपलब्ध कराने, नियमों को सख्त बनाने, कर्जदारों पर कड़ाई करने तथा दिवालिया कानून जैसे अनेक कदम उठाये हैं। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ज्यादातर ऐसे कर्ज सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और बीमा कंपनियों के खाते में हैं।
मार्च, 2015 से मार्च, 2018 के बीच सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के एनपीए में 6.2 लाख करोड़ की बढ़त हुई है।
देश में फंसे हुए कर्ज का आंकड़ा 11.6 प्रतिशत है, जो कि विकसित और उभरती अर्थव्यवस्थाओं से बहुत ज्यादा है। सिर्फ रूस ही ऐसा देश है, जिसका हिसाब भारत के बराबर है। चीन में यह 1.7 , जापान में 1.19 , अमेरिका में 1.13 ,दक्षिण अफ्रीका में 3.10 तथा ब्राजील में 3.9 प्रतिशत है।
कुछ महीने पहले भी रिजर्व बैंक ने अंदेशा व्यक्त किया था कि मौजूदा वित्त वर्ष के अंत तक यानी मार्च, 2019 तक यह आंकड़ा 12 प्रतिशत के पार जा सकता है। लेकिन, 31 दिसंबर को बैंक ने अपने वित्तीय स्थायित्व रिपोर्ट में उम्मीद जतायी है कि इसे 10.3 प्रतिशत तक लाया जा सकता है। काश ऐसा ही हो जाये।
आंकड़े कहते हैं कि चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही (अप्रैल-सितंबर) में बैंकों के कर्ज में एनपीए का अनुपात 10.8 प्रतिशत रहने में मुख्य योगदान रिजर्व बैंक की पहलों का नहीं,बल्कि बैंकों द्वारा कर्ज देने और इस्पात उद्योग में बेहतरी का है। इस दौरान कर्ज देने में निजी क्षेत्र के बैंक रहे हैं।
हालांकि, में रिजर्व बैंक ने इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज लिमिटेड के संकट तथा सार्वजनिक बैंकों के पास कम पूंजी होने की समस्याओं का संज्ञान गंभीरता से लिया है। लेना भी चाहिए था, इसके अतिरिक्त कोई विकल्प भी कहाँ था ?
सच यह है कि एनपीए के कारण बैंकों द्वारा कर्ज देने में हिचकिचाहट बढ़ी है तथा कई इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं लंबित हो गई हैं।
चूंकि यह समस्या एक लंबे समय में मौजूदा स्तर पर पहुंची है, इसलिए इसके तात्कालिक समाधान की अपेक्षा करना तो व्यर्थ है। लेकिन, एन पी ए कम हो और कम बना रहे, इस कोशिश में तेजी लाने की जरूरत है। इसके लिए ठोस रणनीति, कड़े कदम और पारदर्शिता की दरकार है। आसन्न लोकसभा चुनाव को सामने रख कर दिखाई जा रही दरियादिली में इस कारक को नहीं भूलना चाहिए।
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