कौशल सिखौला।
छोड़ो मेंहदी खड्ग संभालो
खुद ही अपना चीर बचा लो
द्यूत बिछाए बैठे शकुनी
मस्तक सब बिक जाएंगे
सुनो द्रौपदी !
शस्त्र उठा लो
अब गोविंद ना आएंगे
पुष्यमित्र उपाध्याय की ये पंक्तियां दो दिनों से लगातार झकझोर रही हैं । इस देश में स्त्रियों पर जुल्मों सितम की कभी कमी नहीं रही । परतंत्र गुलाम भारत की या आक्रांता काल के भारत की बात छोड़ भी दें तो स्वतंत्र भारत में निर्भयाओं की कमी कहां रही है । भारत का कोई भी प्रांत हो , आज भी हाहाकार ।
मणिपुर तो सबको याद है , राजस्थान , बंगाल और छत्तीसगढ़ में इन्हीं दिनों में क्या क्या हुआ , हो रहा है , दिखाई नहीं देता क्या ?
प्रांतों में किसकी सरकार , यह बताकर राजनीति मत कीजिए । यह हमाम है , यहां सभी नंगे हैं ? यदि यही इक्कीसवीं सदी है तो कैसी होंगी आने वाली सदियां ?
शर शैय्या पर लेटे भीष्म पितामह जब पांडवों और परिजनों को ज्ञान मार्ग का संदेश दे रहे थे तो द्रौपदी हंस पड़ी । सब आश्चर्य से देख रहे थे , लेकिन कृष्ण मुस्कुरा उठे तो आश्चर्य और बढ़ गया । बताने की आवश्यकता नहीं कि द्रौपदी हंसी तो पांडवों के सिर भी झुक गए । आज ऐसा लग रहा है मानों सैकड़ों द्रौपदियां सवाल पूछ रही हों और सारा देश सिर झुकाए सुन रहा हो । आज तो कोई कृष्ण भी नहीं कि जिज्ञासाओं का समाधान कर दे ।
महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने पेड़ पर टंगे बर्बरीक के कटे सिर से पूछा कि युद्ध में क्या क्या देखा ? तो बर्बरीक ने कहा कि कैसा युद्ध कौनसा युद्ध ? मैंने तो कोई युद्ध देखा ही नहीं ? बस इतना देखा कि कृष्ण का सुदर्शन चक्र संहार कर रहा था और द्रौपदी रक्त से खप्पर भर रही थी । बर्बरीक बोले कि हे राजन , मैंने तो बस इतना ही देखा ।
तो जब चारों ओर बेबसों की जमातें पड़ी हों तो उठो द्रौपदियों , तुम स्वयं उठो । अपना अपना खप्पर बनाओ तभी कृष्ण आएंगे । अब क्लांत न बैठो तुम । मणिपुर देखकर देश के जनमानस की भुजाएं तो नहीं फड़फड़ा रही , उल्टे दिल बैठ गए हैं । वे युवा हैं ही कहां जो अबलाओं के लिए संग्राम करेंगे । वे पीढ़ियां फना हुई जिनकी नसें फड़फड़ाती थी ।
उन भुजाओं ने गोदने गुदवा लिए जो तलवार उठाया करती थी । झुक गए हैं वे सर जो कफन बांधकर निकला करते थे । कोई अपनी रोटियों की तलाश में है तो कोई अकूत संपदा को भोगने में लगा है । तुम्हें कौन देखेगा अब । कोई नहीं बचाने आएगा तुम्हें । ये वीरों की नहीं , मुर्दा जिस्मों की भीड़ है । तो तुम ही उठो रानी झांसी बनो । सावित्री बनो , यमराज के हाथों से अपना वजूद खुद ही छीन लाओ । उठो तुम खड्ग उठाओ तलवार संभालो ।
कब तक आस लगाओगी तुम
बिके हुए अखबारों से
कैसी रक्षा मांग रही
दुःशासनी दरबारों से
स्वयं जो लज्जाहीन पड़े हैं
वे क्या लाज बचाएंगे
सुनो द्रौपदी !
खड्ग उठा लो अब गोविंद ना आएंगे
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