डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी।
कुछ मित्रों का कहना है कि मैं नई फिल्मों के बारे में अपनी राय देने में बहुत कठोर हूं और फ़िल्म बनाने वाले से खार खाये रहता हूं। मैं फ़िल्म निर्माण में करोड़ों (कई बार अरबों ) रुपये लगानेवाले और बरसों तक रात-दिन खपाकर फ़िल्म की रचना में जुटे लोगों के प्रति असम्मान रखता हूं। कई फिल्मों के बारे में झेलनीय, अझेलनीय, बकवास, टाइमपास जैसी बातें लिखता हूं। फिल्मों के बारे में सितारे भी नहीं देता। यह गलत है और कला का असम्मान है।
मित्रो, यह तो सही है कि फ़िल्म निर्माण बहुत ही खर्चीला उद्यम है। एक फ़िल्म का निर्माण यानी सैकड़ों लोगों को कई साल का प्रत्यक्ष या परोक्ष रोजगार। हजार फ़िल्म का निर्माण लाखों को रोजगार देता है।
सही है।
मैं फ़िल्म के बारे में सकारात्मक हूं। सभी कलाकारों के प्रति मेरे मन में पूरा सम्मान है।
लेकिन....
लेकिन मेरे मित्रो, दर्शकों के बारे में भी तो सोचिए। जो दर्शक अपने खून-पसीने की कमाई में से सौ-दो सौ, और कहीं-कहीं तो पांच सौ-हज़ार का टिकट लेता है, दाड़की-नौकरी से समय निकालकर सिनेमाघर में जाता है, उसका क्या? क्या उसके रुपये का पूरा मूल्य उसे नहीं मिलना चाहिए? जो समय वह थियेटर में दे रहा है, उसका मज़ा बिगाड़ने का हक क्यों किसी को मिले?
दर्शक का भी कोई अधिकार है या नहीं? दर्शक को ग्राहक क्यों नहीं माना जाए? अगर किसी ग्राहक की चॉकलेट में कीड़ा निकल जाए तो ग्राहक चॉकलेट बनाने/बेचनेवाली कंपनी को कोर्ट में ले जा सकता है या नहीं? उससे जुर्माना पा सकता है या नहीं? पर क्या आपने कभी सुना कि किसी फिल्म कंपनी ने फ़िल्म पसंद न आने पर दर्शकों को टिकट के पैसे वापस किये? खराब फ़िल्म के कारण टाइम की बर्बादी पर किसी तरह की भरपाई की?
मैं अपने रुपयों से टिकट खरीदकर, अपना बेशकीमती समय लगाकर फ़िल्म देखने जाऊं और वहां दिमाग का दही हो तो लिखूं भी नहीं? किसी की दबेलदारी है क्या? जब कोई सच लिखता है तो करोड़ों-अरबों का धंधा करनेवाली कंपनियों का पूरा प्रचार विभाग, उनकी फिल्मों के प्रायोजक और सह प्रायोजक लांछन लगाने पर उतर जाते हैं।
मैं फिल्में देखता रहूंगा, अझेलनीय को अझेलनीय ही लिखता रहूंगा।
(अब कल मैं लिखूंगा कि बिकाऊ न्यूज़ यानी पेड न्यूज की शुरूआत ही फ़िल्म और बिजनेस पत्रकारिता से हुई है।)
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