हेमंत कुमार झा।
70 के दशक तक आम लोगों की जुबान पर प्रायः दो नाम रहते थे टाटा और बिड़ला।
अक्सर कयास लगाए जाते कि इन दोनों में से किसके पास अधिक संपत्ति है। बजाज, महिंद्रा आदि जैसे कुछ नाम भी कभी-कभार चर्चाओं में आ जाते थे।
इन नामों की अपनी साख थी। टाटा कंपनी की ट्रक से लुंगी तक लोग विश्वास से खरीदते थे जबकि बिड़ला के कल्याणकारी कार्यों को लेकर लोक मानस अच्छी राय रखता था। गांधी जी के साथ निकट संबंधों ने कुछ उद्योग पतियों का एक अलग आभामंडल बनाया था जो पीढ़ियों के परिवर्त्तन के बाद भी कायम रहा।
हालांकि, 70 के दशक के उत्तरार्द्ध और 80 के दशक के पूर्वार्द्ध में भी राजनीतिक नेताओं को 'पूंजीपतियों का दलाल' कहने का चलन आम था और सरकार को कोसने के क्रम में 'पूंजीपतियों की सरकार' जैसे शब्द भी दुहराए जाते थे। समाजवादी और वामपंथी कार्यकर्त्ताओं को ऐसे शब्दों से खास लगाव था।
अब चूंकि कांग्रेस सत्ता में थी और लगातार थी तो उस पर आरोप लगते रहते थे कि वह छुपे तौर पर पूंजीपतियों के हितों को तरजीह देती है। अपने भाषणों में वाम और समाजवादी दलों के नेतागण ऐसे आरोप अक्सर लगाते रहते थे।
जाहिर है, सत्ता और पूंजी का गठजोड़ उस दौर के भारत के लिये भी कोई नई या अनोखी बात नहीं थी। जैसे, निचले स्तर के शासन-प्रशासन में सामंती शक्तियों के अपने दबाव थे, न्याय को प्रभावित करने की उनकी अपनी शक्तियां थीं, उसी तरह ऊपर के स्तर पर पूंजीपतियों का अपना प्रभाव था।
80 का दशक जैसे-जैसे आगे बढ़ा, धीरू भाई अंबानी नाम का एक सितारा भारतीय उद्योग जगत में तेजी से अपनी चमक बढ़ाता दिखा। 1977 में रिलायंस समूह की स्थापना करने वाले अंबानी की व्यापारिक सफलताएं किसी अविश्वसनीय पटकथा की तरह थी। भले ही उस दौर में वे संपत्ति के मामले में टाटा-बिड़ला की बराबरी पर नहीं पहुंचे थे लेकिन उनका नाम सर्वाधिक चर्चा में रहने लगा।
राजनीति और नौकरशाही की नैतिकता में दरारों की पहचान करने में अंबानी माहिर थे और उन्होंने जम कर इसका 'सदुपयोग' किया। नतीजा, देखते ही देखते वे भारतीय उद्योग-व्यापार की शीर्ष हस्तियों में शामिल हो गए।
भारतीय उद्योग जगत की पारंपरिक नैतिकता को अंबानी ने नई परिभाषा दी जो पारिवारिक विरासतों वाले उद्योग घरानों से अधिक चतुर, अधिक प्रभावी तरीके से गढ़ी गई थी। सत्ता से जुड़े बड़े नेताओं और नौकरशाहों की एक मंडली को उन्होंने अपने पैरोकार के रूप में विकसित किया।इसमें ऐसे-ऐसे नाम भी थे जो शीर्ष स्तर के नीति-निर्धारण में प्रभावी भूमिका निभाते थे। उदारीकरण के पहले, जब लाइसेंस राज का दौर था, जब प्रतियोगिता विहीन अवसर मिला करते थे, धीरूभाई ने अपने सम्पर्कों का लाभ उठा कर जम कर सरकारी कृपादृष्टि हासिल की।
90 के दशक में, जब आर्थिक उदारीकरण का सिलसिला आगे बढ़ा, भारतीय उद्योग-व्यापार जगत में एक नई जीवंतता आने लगी। 'विनिवेश' जैसे शब्द अर्थशास्त्र की किताबों से बाहर निकल कर अखबारों-पत्रिकाओं के पन्नों पर उछलते-कूदते नजर आने लगे।
बदलते आर्थिक परिदृश्य में, जब सत्ता और कारपोरेट का गठजोड़ मजबूत होने लगा था, जब इस नेक्सस की भूमिका नीतियों के निर्माण में अधिक प्रभावी होने लगी थी तो अंबानी घराना इसके सबसे बड़े लाभान्वितों के तौर पर उभर कर सामने आया।
लाइसेंस राज और खुलते बाजार, दोनों ही स्थितियों में अपने हित साधने की अद्भुत प्रतिभा थी उनमें।
नई सदी की आर्थिक खबरों में अब टाटा-बिड़ला से अधिक चर्चा अंबानी की होने लगी जिनके व्यापारिक उत्कर्ष की कहानी किसी परी कथा की तरह थी।
एक मामूली क्लर्क से देश के शीर्ष उद्योग घरानों में शामिल होने तक की धीरूभाई की यात्रा आर्थिक उदारवाद के नाम पर गढ़े गए अलग नैतिक प्रतिमानों से प्रेरित रही।
कह सकते हैं कि अंबानी घराने का उत्कर्ष आर्थिक उदारवाद के नाम पर सत्ता-कारपोरेट गठजोड़ के मजबूत होते जाने का सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष था। 'कैपिटलिज्म' से 'क्रोनी कैपिटलिज्म' तक की भारत की यात्रा अंबानी की व्यापारिक सफलताओं में एकदम सटीक तरीके से परिभाषित की जा सकती है।
सत्ता पर प्रभुत्व के साथ ही एक-एक कर मीडिया संस्थानों के स्वामित्व को हासिल करते अंबानी घराना देश का सबसे चर्चित और सबसे प्रभावी औद्योगिक घराना बन गया। हम अखबारों में पढ़ने लगे कि मुकेश अंबानी, जो अपने छोटे भाई अनिल से बंटवारे के बाद उनसे मीलों आगे बढ़ चुके थे, भारत ही नहीं, एशिया के सबसे अमीर व्यक्ति बन गए।
लेकिन...अर्थ तंत्र के उदारीकरण के भारतीय संस्करण का निहितार्थ आना अभी बाकी था। ऑक्सफेम जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं अपनी रिपोर्ट में लगातार बताती रहीं कि देश की आय का अधिकतम हिस्सा कुछ मुट्ठी भर लोग हजम करते जा रहे हैं और भारत में संपत्ति का केंद्रीकरण बेहद खतरनाक तरीके से बढ़ता जा रहा है, लेकिन, यह प्रक्रिया बेलगाम तरीके से तीव्र से तीव्रतर ही होती गई।
इस संदर्भ में निर्णायक मोड़ तब आया जब राष्ट्रवाद आर्थिक उदारवाद का सहयात्री बन कर सामने आया। यह उन कारपोरेट प्रभुओं के लिये वरदान बना जिन्होंने अत्यंत सुनियोजित ढंग से भारतीय राजनीति को अपने हितों के अनुकूल संचालित करने की शक्तियां प्राप्त कर ली थीं।
अब जो दृश्य था वह राष्ट्रवाद और मुक्त बाजारवाद के घालमेल का स्वाभाविक निष्कर्ष था।
भारत का भावी प्रधानमंत्री एक कारपोरेट हस्ती के निजी जेट विमान से चुनावी यात्राएं करते, रैलियों को संबोधित करते आमलोगों को 'न्यू इंडिया' के सपने दिखा रहा था।
राजनीतिक नैतिकता और व्यक्तिगत शुचिता अब कोई बड़े महत्व की चीज नहीं रह गई थी, इसलिये यह सवाल बेमानी था कि जो पूंजीपति किसी चुनाव में आज निजी जेट किसी नेता को मुहैया करवा रहा है, जो कारपोरेट घराने मुक्त हस्त से किसी पार्टी के चुनावी अभियान में अपने संसाधन झोंक रहे हैं वे कल अपने उचित-अनुचित हित क्यों नहीं साधेंगे।
इन्हीं सन्दर्भो में अचानक से एक नाम बहुत चर्चा में आने लगा। यह थे उद्योगपति गौतम अडानी। हालांकि, उन्होंने अहमदाबाद में अडानी समूह की स्थापना 1988 में ही की थी, लेकिन आम भारतीयों के लिए उनका नाम अब तक बहुत जाना-पहचाना नहीं था।
नरेंद्र मोदी के 'गुजरात मॉडल' ने विकास की जो एकायामी गाथा लिखी उसमें अडानी समूह बड़े लाभान्वितों में था। जाहिर है , 2007-08 में मोदी जी में 'प्राइममिनिस्टर मैटेरियल' देखने वाले उद्योगपतियों में अंबानी आदि के साथ अडानी भी अग्रिम पंक्ति में थे।
2014 का आम चुनाव इस मायने में ऐतिहासिक था कि इसमें मतदाताओं के 'मानसिक अनुकूलन' के लिये तकनीक का बड़े स्तर पर उपयोग किया गया था और इस मायने में भी अनूठा था कि कारपोरेट वर्ल्ड एक नेता के पीछे खड़ा स्पष्ट नजर आ रहा था। बड़े जतन से हालात विकसित किये गए कि कोई राजनेता 'उद्धारक' की छवि के साथ देश के राजनीतिक परिदृश्य पर छा जाए।
सत्ता बदली, उद्धारक सिंहासनारूढ़ हुए और अडानी महाशय की चल निकली। ऐसी चली कि फिर तो राजनीतिक लोकलाज भी कहीं धूल में लोटता नजर आने लगा। अंबानी तो पहले से ही फले-फूले थे, और भी पसरने लगे, लेकिन, अडानी की नई गाथा शुरू हुई। एक नामालूम सा नाम अचानक से सुर्खियां बटोरने लगा। प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं में अक्सर उन्हें भी शामिल होते देखा जाने लगा। दिलजले किस्म के पत्रकार और स्तम्भकार इन विश्लेषणों में लग गए कि किस देश की यात्रा में अडानी ग्रुप के लिये कौन सा अवसर तलाशा गया, कौन से मौके निकाले गए।
देश में तो अपना राज था। सो, अडानी ग्रुप निर्द्वन्द्व भाव से रेलवे प्लेटफार्म से लेकर बड़े-बड़े सरकारी बंदरगाहों पर काबिज होने लगा। खनन उद्योग से लेकर न जाने किन-किन जाने-अनजाने क्षेत्रों तक इसकी पहुंच सुगम होने लगी।
उद्धारक की छवि के साथ सत्ता पर काबिज होने वाले राजनेता के शासन काल में ऐसा भी वक्त आया कि महज एक वर्ष में अडानी की संपत्ति दुगुनी से भी अधिक हो गई। फिर तो...दो दूनी रात चौगुनी का मुहावरा चरितार्थ होने लगा।
कोरोना काल में, जब महामारी ने आर्थिक विभीषिका के रूप में भी देश-दुनिया और समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया, अडानी जैसों की संपत्ति रहस्यमय तरीके से बेहिंसाब बढ़ती रही।
फिर, अभी पिछले सप्ताह अखबारों में खबरें छपीं, "गौतम अडानी देश के सबसे अधिक धनी व्यक्ति बने।" शायद एशिया के भी। यानी मुकेश अंबानी को उन्होंने पीछे छोड़ दिया।
संभव है, अंबानी फिर आगे बढ़ें, लेकिन बड़ी ही तीव्रता से उनकी बराबरी में आकर अडानी ने भारतीय अर्थतंत्र की अंधी सुरंगों को दुनिया के सामने एक तरह से बेपर्दा कर दिया है, जहां नीतियां बनाने वाले, फैसले लेने वाले लोगों की नीयत और नैतिकता गम्भीर सवालों के घेरे में आ गई है।
कैपिटलिज्म से क्रोनी कैपिटलिज्म तक की भारतीय अर्थ तंत्र की यात्रा ने अंबानी को शीर्ष पर पहुंचाया, जबकि, क्रोनी कैपिटलिज्म से 'गैंगस्टर कैपिटलिज्म', जैसा कि कनाडा के एक शीर्ष रिसर्च संस्थान ने भारतीय पूंजीवाद की दशा-दिशा को एक नाम दिया, तक की यात्रा ने अडानी की विकास गाथा लिखी।
यात्रा अभी जारी है। इसे अभी अनेक मुकाम तय करने हैं। राजनीतिक और आर्थिक नैतिकताओं की अभी कितनी धज्जियां उड़नी बाकी हैं। प्रतीक्षा करें।
लेखक पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय में एशोसिएट प्रोफेसर हैं।
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