हेमंत कुमार झा।
फेसबुक ने हमारे जैसे लोगों की रीच बेहद कम कर दी है। लिखते रहो कारपोरेट के अमानवीय कल्चर के खिलाफ, निर्धनों और कमजोरों का खून चूसने वाली नवउदारवादी शक्तियों के खिलाफ, उठाते रहो मानवता से जुड़े मुद्दे।
तकनीक पर राज हमारा है, तकनीकी विशेषज्ञ हमारे इशारे पर सॉफ्टवेयर में ऐसे बदलाव करेंगे कि तुम्हारे जैसे लोगों का सारा लिखा किन्हीं खलाओं में खो कर रह जाएगा।
तुम लिखो, हमारे सॉफ्टवेयर विशेषज्ञ उसे लोगों तक पहुंचने ही नहीं देंगे।
तकनीक का विकास और उसका प्रसार जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण है तकनीक पर प्रभुत्व। जो इन मायनों में प्रभुत्वशाली हैं दुनिया उनकी मुट्ठी में है।
प्रभुत्वशाली लोगों को विचारों से चिढ़ है। विचार किसी भी तरह के अनैतिक प्रभुत्व को चुनौती देते हैं।
अमानवीयता के खिलाफ मानवता के विचारों को संप्रेषित करते शब्द प्रभुत्वशाली लोगों के लिए कितने खतरनाक हो सकते हैं यह आधुनिक इतिहास की तमाम क्रांतियों में देखा जा चुका है। तो शब्दों की पहुंच सीमित करो।
जो शब्द स्टैबलिशमेंट के खिलाफ मुखर हो रहे हैं उन्हें कुंद करने का यह सबसे अच्छा रास्ता है।
बहुत सारे लोग अब शिकायतें करते हैं कि उनके मित्रों का लिखा उन तक पहुंचता ही नहीं। शब्दों के प्रवाह को रोकना एक षड्यंत्र है।
अकल्पनीय तकनीकी विकास जब दुनिया में बदलावों का वाहक बना तो विशेषज्ञों ने यह चेतावनी दी कि तकनीक पर कुछ मुट्ठी भर लोगों का प्रभुत्व इन बदलावों की धार को भोथरा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखेगा।
अच्छे-अच्छे लिखने वाले शिकायत कर रहे हैं कि फेसबुक ने उनकी रीच इतनी कम कर दी है कि यहां पर कुछ लिखने का उनका उत्साह मंद पड़ रहा है।
कोई भी लिखने वाला लोगों के लिए ही लिखता है, लिखा हुआ जब लोगों तक पहुंचे ही नहीं तो लिखना कम होगा।
लिखना कम होगा तो लोग फेसबुक खोलेंगे और एक दूसरे की फोटो देखेंगे, जन्मदिन और विवाह दिवस की शुभकामनाएं देंगे और लेंगे, नई कार खरीद कर उसकी फोटो लगाने पर मुबारकबाद देंगे।
फेसबुक इन सब को खूब प्रोत्साहित करता है। इस तरह के मंच की कल्पना करने वालों और उसे जमीन पर उतारने वालों ने सोचा था कि लोगों को एक दूसरे से जोड़ने में, उन तक विज्ञापनों को पहुंचाने में यह सब मददगार होगा, हुआ भी।
लेकिन, समस्या तब खड़ी होने लगी कि ऐसे मंचों का उपयोग लोग सामूहिक हितों के लिए आवाज उठाने में भी करने लगे, विचारों के आदान-प्रदान में भी करने लगे।
विचार खतरनाक हैं, एक दूसरे तक उसकी पहुंच खतरनाक है, ये विचार ही हैं जो हर दौर में किसी भी तरह के प्रभुत्व को, किसी भी तरह के अन्याय को चुनौती देते हैं। इसलिए, विचारों के प्रवाह को बाधित करना है।
गनीमत है कि हमारे जैसे लोगों के शब्द आज भी दो चार लोगों तक पहुंच ही जा रहे हैं। पहले चार सौ तक पहुंचते थे, फिर चालीस तक ही पहुंच पाने लगे, अब चार तक ही पहुंच पा रहे हैं।
चार ही सही, जब तक इन चार-पांच लोगों तक भी बातें पहुंच पा रही हैं, लिखना सार्थक है। दीप जला और उसने किसी और दीप को जलने में मदद की तो दीप का जलना सार्थक हुआ।
बेहतर होता कि दीप जलते और उनकी लौ अनेकानेक दीपों को रौशन करने में भूमिका निभाती। लेकिन, तकनीक पर काबिज लोग दीप से दीप जलने को लेकर भयाक्रांत हो जाते हैं।
वे चाहते हैं कि आप दुनिया की समस्याओं, आम लोगों की चुनौतियों से आंखें मूंद कर अपनी मोहक फुलवारी में खड़े हो कर फोटो खिंचाएं, खिले हुए फूलों के साथ खिलखिलाता आपका चेहरा फेसबुक पर लोग लाइक करते रहें, आप मुदित होते रहें।
फेसबुक ने इधर कुछ महीनों से अधिकतर लिखने वालों को हतोत्साहित किया है।
कितनों के प्रोफाइल को तो "कम्युनिटि स्टैंडर्ड" के नाम पर समय समय पर स्थगित कर दिया है।
सामूहिक हितों के लिए आवाज उठाना तकनीक पर कब्जा जमाए लोगों की नजरों में अक्सर 'स्टैंडर्ड' का अतिक्रमण बन जाता है।
हालांकि, लिखने वाले लिख ही रहे हैं। भले अब महज दस बीस लोग उन्हें पढ़ पा रहे हैं, यह भी कम नहीं है।
जिस दिन यह भी नहीं होगा, उस दिन देखा जाएगा।
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