हेमंत कुमार झा।
अमेरिका के विश्वविद्यालयों में गाजा में हो रहे नर संहार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। किसी एक या दो में नहीं, देश भर में फैले दर्जनाधिक विश्वविद्यालयों में। इंग्लैंड में, फ्रांस में, नीदरलैंड आदि यूरोपीय देशों के नामचीन विश्वविद्यालयों में भी ऐसे विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है।
ये सब ऐसे विश्वविद्यालय हैं जो दुनिया में अपना मान, अपना सम्मान रखते हैं। वहां अच्छी पढ़ाई होती होगी, बेहतरीन एकेडमिक माहौल होगा। तभी तो हमारे देश के नेता गण, अधिकारी गण, बड़े बड़े पैसे वाले गण आदि आदि अपने बच्चों को पढ़ने के लिए उन जगहों पर भेजते हैं।
मैं ने नहीं देखा, लेकिन मैं मानता हूं कि वहां परीक्षाओं में नकल नहीं होती होगी और छात्रों को गंभीरता से पढ़ाई करनी पड़ती होगी।
मैं यह भी मानता हूं कि वहां फैकल्टी का अकाल नहीं होगा और विषय विशेषज्ञों की टीम बेहतरीन आधारभूत संरचना के साथ छात्रों के साथ होगी। अच्छे हॉस्टल, शानदार पुस्तकालय, स्वच्छ और पौष्टिक खाना परोसने वाले मेस आदि तो होंगे ही। इतना भी तय ही है कि कोर्स पूरा कर कैंपस से निकलने के बाद अच्छा करियर उनका इंतजार कर रहा होता है।
तब भी, वे छात्र दुनिया से जुड़े हैं, मानवता की धड़कनों से जुड़े हैं, विश्व राजनीति की विडंबनाओं पर अपनी राय निर्धारित करते हैं, जरूरत पड़ने पर वैचारिक हस्तक्षेप करते हैं, अक्सर पुलिस की हिरासत में जाते हैं, कुछ कष्ट सहते हैं, स्लोगन बनाते हैं, लेख लिखते हैं, भाषण देते हैं, भाषण सुनते हैं।
गाजा नरसंहार कोई पहला मुद्दा नहीं है जिस पर वे छात्र प्रतिक्रिया दे रहे हैं। जागरूक और आलोकित परिसरों में ऐसा होता रहता है...अक्सर।
विश्व गुरु की राह पर बस अपने अंतिम मुकाम तक पहुंचने को ही है भारत। राम जी की कृपा से इस बार 300- 400 पार हो जाए तो फिर जैसे अमेरिका ने चांद पर पहला कदम रख दिया था, हम भी विश्व गुरु के ओहदे पर लपक कर बैठ जाएंगे।
लेकिन, हमारे विश्वविद्यालयों में जीवंतता तो खत्म सी ही होती जा रही है। पता नहीं, अगली पीढ़ी में विश्व गुरुकुल का कुलपति कौन होगा।
एकाध परिसरों में विश्व या देश की राजनीति पर, मानवीय विडंबनाओं पर छात्र गण प्रतिक्रिया देते हैं तो "टुकड़े टुकड़े गैंग" कहते हम हिकारत से भर उठते हैं। ये गए हैं पढ़ने, अफसर बनने या नेतागिरी करने? टैक्स देने वालों के पैसों का यह दुरुपयोग है।
वह भी देश के कुछ गिने चुने, शायद एकाध जगहों पर कुछ ऐसा होता हो। हमारे देश का मिडिल क्लास इस बात के सख्त खिलाफ है कि उसके बच्चे गाजा, यूक्रेन, सीरिया, मणिपुर आदि फालतू की बातों में नारेबाजी, भाषणबाजी में उलझें।
उन्हें कोर्स पूरा कर जल्दी से जल्दी यूपीएससी से लेकर एसएससी की कोई भी परीक्षा पास कर कलेक्टर से लेकर क्लर्क तक की कोई पोस्ट झपट लेनी चाहिए, ताकि उनका शादी ब्याह कर निश्चिंत हो जाएं।
हम जनता लोग भी जागरूक हैं। किसी भी छात्र समूह ने जहां मणिपुर, सीरिया आदि किया, तुरंत देशद्रोही आदि वाले व्हाट्सप संदेशों की अबाध फॉरवार्डिंग शुरू कर देते हैं।
बिहार पर तो भारी गर्व है हमें। यहां के विश्वविद्यालय और कॉलेज तो अनूठे हैं इस मामले में। मजाल है कि पांच दस प्रतिशत से अधिक छात्र बता दें कि गाजा आखिर है क्या? कोई देश है या शहर या कि समुद्र से हाल में खोजा गया कोई निर्जन द्वीप?
वे तो सिरे से ही इंकार कर देंगे कि गाजा नाम से उन्हें कोई साबका रहा। उन्हें तो फॉर्म भरना है, परीक्षा देनी है, नकल नहीं करने दो तो बड़ी संख्या में फेल कर जाना है और विश्वविद्यालय का सिर दर्द बढ़ाना है।
कितने संतोषी हैं, कितने आत्मतुष्ट, आत्मलीन हैं हमारे छात्र। उनके कॉलेजों में हिस्ट्री के सर जी हैं तो पॉलिटिकल साइंस के हैं ही नहीं कोई, हिंदी के हैं तो अंग्रेजी का पोस्ट खाली है, चार सौ, पांच सौ, छह छह सौ छात्रों पर हिस्ट्री , राजनीति शास्त्र, हिंदी आदि के एक एक शिक्षक हैं।
बेदम हैं न वेतन टाइम पर, न प्रमोशन टाइम पर। अगर बकाया आदि रह गया हो तो बूढ़े हो जाओ, एरियर के लिए एड़ियां घिस जाएंगी।
मुख्यालय जा कर मांगने की जहमत उठा ही ली तो अगला टेबुल और फाइल से नजरें उठाए बिना कहेगा, "सरकार से राशि आएगी तो मिल जाएगी।"
हमारे बिहार में विज्ञान के छात्र प्रयोगशाला नहीं जाते। अधिकतर कॉलेजों के प्रैक्टिकल रूम्स को खोलिए तो अचानक से लगेगा कि मानव के पदचापों से महरूम इन कक्षों के स्याह, धूल भरे अंधेरों में प्रेतात्माएं विचरती होंगी।
तीन दशक से अधिक हो गए, प्रयोगशालाओं में जरूरी स्टाफ की बहाली नहीं हुई। जो थे वे जाने कब रिटायर हुए, कितने मर खप गए। फिजिक्स में सब जोड़ कर कई सौ छात्र, टीचर एक, सहयोगी स्टाफ कोई नहीं, बोटनी में तो टीचर ही नहीं, मैथ निल।
हमारे बिहार के अधिकतर विश्वविद्यालय प्रतिभाओं की जागरूकता को नष्ट करते हैं। वे जानते हैं कि अपने विषय के टीचर्स की मांग करना बेकार है। उनकी नजरों के सामने है कि उनके भैया या उनकी दीदी भी बिना एक भी टीचर, बिना एक भी लैब असिस्टेंट, बिना एक भी लैब ब्वाय के साइंस ऑनर्स पास कर देश को विश्व गुरु बनाने के अभियान में लग गए हैं।
वीरान सागर में कुछ द्वीपों की तरह बिहार के कुछ शहरों में अच्छे कॉलेज हैं, अच्छा इंफ्रा स्ट्रक्चर है। गांवों की संस्थाओं से पलायन कर, किसी तरह जुगाड लगा कर न जाने कितने शिक्षक मुफस्सिल के अभागे परिसरों को छोड़ वहां सेट कर जाते हैं। सब नहीं कर पाते।
सेट करने की टर्म एंड कंडीशन भी होती है न, जो बहुत महंगी है। अब वह जमाना गया कि बड़े नेता जी के फोन पर या रोने घिघियाने पर सेटिंग हो जाती थी। जो रह गए वे घिसट रहे हैं, समाज की लानत मलामत झेल रहे हैं "ई परफेसरवन सब खाली मोटा दरमाहा उठाता है, हमार टिंकू तो कालेज जाता ही नहीं, वहां पढ़ाई की जगह राजनीति करता है सब"।
वह तो भला हो तकनीकी क्रांति का कि मोबाइल कंपनियां एक एक बित्ते की स्क्रीन वाले सस्ते मोबाइल लॉन्च करती रहती हैं, अपने अंबानी सर जियो की अबाध सेवा लिए तत्पर रहते हैं, रील्स बनाने वाली बेचैन आत्माएं तरह तरह के अनोखे दृश्य लिए हाजिर रहती हैं। कौन गाजा, मणिपुर आदि की टेंशन ले।
वह अमेरिका है , इंग्लैंड है, फ्रांस है। हम भारत हैं, हम बिहार हैं। हम सीधे विश्वगुरु बनने की देहरी पर खड़े हैं और गुरुकुल के केंद्रीय कक्ष की मुख्य कुर्सी पर छलांग लगाने ही वाले हैं। बस, अगली बार 400 पार हो जाए।
Comments