हेमंत कुमार झा।
लग तो नहीं रहा कि नरेंद्र मोदी फिर से सत्ता में आ पाएंगे लेकिन यहां प्रासंगिक यह नहीं है कि वे जीत कर फिर से सत्ता में आएं या हार कर इतिहास के पन्नों में सिमट जाएं।
बल्कि, प्रासंगिक यह है कि उनके दौर ने कुछ ऐसी परतों को उधेड़ कर रख दिया है जिनसे भविष्य के अध्येताओं को भारतीय समाज और राजनीति के अंतर्विरोधों को समझने में आसानी होगी।
इस दौर के अध्येताओं के सामने भारतीय शहरी मध्य वर्ग और हिन्दी पट्टी के ग्रामीण सवर्णों के उस आत्मघाती मनोविज्ञान पर विशेष अध्याय होंगे। जिनमें यह समझने का प्रयास होगा कि आखिर कैसे और क्यों वे जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे और मन ही मन आश्वस्त हो रहे थे कि वे उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक विकल्प को मजबूती दे रहे हैं...कि यही वह विकल्प है जो उनके वर्त्तमान को बेहतर बनाएगा और उनके बच्चों के भविष्य को बेहतर उम्मीदों का आधार देगा।
भारतीय मीडिया का नैतिक पतन इस दौर के इतिहास का वह अगला अध्याय होगा, जिसमें लोग यह जानने-समझने की कोशिश करेंगे कि आखिर क्यों लाखों का पैकेज पाने वाला/वाली कोई एंकर सार्वजनिक रूप से टीवी के पर्दे पर भांड की भूमिका निभाने में बिल्कुल शर्म महसूस नहीं करता था।
पतन का आखिर वह कैसा मनोविज्ञान था जिसमें मीडिया अपनी विश्वसनीयता, जो उसके अस्तित्व का आधार है, को ही दांव पर लगा कर किसी नेता या पार्टी का अघोषित दलाल बन गया था।
आर्थिक उदारीकरण ने शहरी मध्यवर्ग का विस्तार भी किया और उसे समृद्धि भी दी, लेकिन, इसके साथ ही उसे आत्मकेंद्रित और खुदगर्ज भी बनाया। उसी तरह, उदारीकरण ने मीडिया को सत्ता-संरचना के एक प्रभावी कम्पोनेंट के रूप में विकसित और शक्तिशाली बनाया, किन्तु इसी क्रम में सत्ता ने मीडिया को अपना प्रवक्ता भी बना लिया और उसने बिना किसी शर्मिंदगी के अपने इस विकृत रूप को स्वीकार भी कर लिया।
तो...मध्य वर्ग का वैचारिक अंधकार और मीडिया के नैतिक पतन की पराकाष्ठा मोदी युग के अध्ययन में दो महत्वपूर्ण अध्याय होंगे जिन्होंने इस दौर में पूरी दुनिया के विचारकों का न केवल ध्यान आकृष्ट किया है, बल्कि चौंकाया भी है। यह मध्य वर्ग और मीडिया का भारतीय संस्करण है जिनकी कोई और मिसाल दुनिया के किसी भी अन्य जीवंत समाज में शायद ही मिले।
खुदगर्जी एक बात है लेकिन वैचारिक रूप से आत्मघाती होना बिल्कुल दूसरी बात है। मध्यवर्ग को पता है कि उसकी निरन्तर बढ़ती समृद्धि में निम्न वर्ग के शोषण की बड़ी भूमिका है। इसलिये, यह स्वाभाविक है कि वंचित समुदायों के मुद्दों और संघर्षों से मध्य वर्ग अपने को न केवल निरपेक्ष बनाता गया, बल्कि शोषण की इस प्रक्रिया में सहभागी भी बनता गया।
किन्तु, मध्य वर्ग ने इस तथ्य को समझने से इन्कार कर दिया कि निम्न वर्ग के संघर्षों से आंखें मूंद कर वह जिस सत्ता-संरचना को मजबूती दे रहा है वह अंततः उसके ऊपर भी अभिशाप बन कर टूटेगा। क्योंकि, यह सारा खेल अंततः कारपोरेट हितों से संचालित है और जब बात कारपोरेट के हितों की आएगी तो मध्य वर्ग को बलि का बकरा बनाने में सत्ता को कोई संकोच नहीं होगा।
हितों और संघर्षों के अलग-अलग बनते द्वीपों ने सत्ता को मनमानियां करने की असीमित शक्ति से लैस कर दिया। शहरी मध्य वर्ग इस खुशफहमी में पॉपकार्न चबाते, कोल्ड ड्रिंक के घूंट लेते मल्टीप्लेक्स में टांगें पसार फूहड़ फिल्मों के मजे लेता रहा कि दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी...कि नए उभरते भारत में उसकी समृद्धि और बढ़ेगी क्योंकि देश की विकास दर ऊंची है...कि भले ही निम्न वर्गीय श्रमिकों में रोजगार की निरंतरता को लेकर असुरक्षा भाव बढ़ता जा रहा हो, लेकिन उसकी सेवा-सुरक्षा को कोई खतरा नहीं...क्योंकि वह उच्च/तकनीकी शिक्षा प्राप्त विशेषज्ञ कर्मी है...कि तमाम बैंक, रेलवे, एयरवेज, विश्वविद्यालय, निजी या सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े-बड़े उपक्रम उसी की विशेषज्ञता और मेहनत के भरोसे चल रहे हैं।
निराधार मिथ टूटने के लिये ही होते हैं। जेट एयरवेज का धराशायी होना और चिकने चेहरों का सड़कों पर बिलखता हुजूम इन्हीं खुशफहमियों के बिखरने का एक उदाहरण है। अधिक दिन नहीं गुजरे, जब इसी तरह किंगफिशर एयरलाइंस के कर्मियों की सांसें अपने भविष्य की आशंकाओं को लेकर अटकी हुई थीं।
नहीं...न माल्या डूबा था न नरेश गोयल डूबा है। डूबी हैं वे कंपनियां, जिनके वे मालिक थे, डूबे हैं वे कर्मचारी जिनकी मेहनत से कम्पनियां चलती थीं।
यह नए दौर का अर्थशास्त्र है जिसमें कंपनियां दिवालिया घोषित हो जाती हैं, डूब जाती हैं लेकिन मालिकान की शानो-शौकत कायम रहती है, उनका राजनीतिक रसूख और सामाजिक जलवा कायम रहता है।
आम लोग समझ नहीं पाते कि पूंजी कहां से आई थी और कहां चली गई। कम्पनी बीमार हुई या सोच समझ कर बीमार कर दी गई और पूंजी वहां से निकल कर कहीं और स्थानांतरित हो गई...'गीता' में उदधृत 'आत्मा' की तरह...जो मरती नहीं, बल्कि देह के जीर्ण हो जाने की सूरत में किसी अन्य देह के जन्म के साथ उसमें स्थानांतरित हो जाती है।
यह उत्तर औद्योगिक दौर का 'फाइनांशियलाइज्ड' सिस्टम है जिसमें पूंजी का प्रवाह रहस्यमय तरीके से अपनी दिशा बदल लेता है। कम्पनियां जन्म लेती हैं, मरती हैं और फिर नए रूप में, नई जमीन पर जन्म ले लेती हैं। अक्सर कई कम्पनियां तो कागज पर ही जन्म लेती हैं, कागज पर ही मर जाती हैं और हजारों करोड़ का वारा-न्यारा हो जाता है। इस खेल में राजनीति और कारपोरेट के खिलाड़ियों की आपसी जुगलबंदी आम लोगों की समझ से परे होती है।
ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी के आने के बाद यह सब शुरू हुआ। यह तो आर्थिक उदारीकरण का एक आयाम है जो 1990 के दशक में ही परवान चढ़ने लगा था। लेकिन, मोदी युग में यह खेल खुल कर खेला जाने लगा क्योंकि सत्ता और शर्म में जो दूरी इस दौर में बढ़ी, सत्ता का जो जनविरोधी रूप इस दौर में सामने आया, वह अतीत के किसी भी ऐसे उदाहरण को बौना साबित कर देता है।
जेट एयरवेज की परिणति महज एक पड़ाव है। बीएसएनएल और एमटीएनएल जैसी बड़ी कम्पनियां बर्बादी के कगार पर हैं। उनके इंजीनियर और कर्मचारी सड़कों पर उतर चुके हैं। अभी बहुत कुछ होना बाकी है। जिनके हलक 'मोदी...मोदी...मोदी...मोदी' का जयघोष करते सूखते नहीं थे उन्हें चिलचिलाती धूप में सड़कों पर अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिये 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारे लगाते देखना, अपने बाल-बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, उनकी परवरिश की दुहाई देते देखना, धूप में नारे लगाने से सूखते हलक को हाथ में थामे बोतल के पानी से तर करते देखना विस्मयकारी अनुभव है।
मोदी रहें या जाएं, उनके राज में जिन अट्टालिकाओं की दीवारें खोखली हुई हैं उनमें से अनेक का ढहना अभी बाकी है। कुछ का ढह जाना तो अब महज समय की बात है। सार्वजनिक क्षेत्र की दूर संचार कम्पनियों से लेकर कई बैंक तक इस खतरे से जूझ रहे हैं। एयर इंडिया के हालात देश के सामने हैं।
पहले से ही विश्वविद्यालयों की दीवारों में सेंध लग चुकी थी। मोदी की नीतियों ने उनकी जड़ों को हिला कर रख दिया है। अकादमिक प्राचीरों के झड़ते पलस्तर इस देश के नेट-पीएचडी उत्तीर्ण युवाओं के 'एडहॉकिज्म' का शिकार बनने की कहानियां सुना रहे हैं। 'तदर्थ' और 'अतिथि' के रूप में नियुक्ति ही अब अधिकांश नियुक्तियों की प्रकृति है।
त्रासद यह कि स्थायित्व की गरिमा और सुरक्षा से वंचित किये जा रहे हिन्दी पट्टी के बहुत सारे उच्च योग्यताधारी युवा आज की तारीख में भी राजनीति के जातीय ध्रुवीकरण से निर्देशित हो विकल्पहीनता की थोथी दलीलें देते नहीं सकुचाते.. "मोदी... मोदी,
मोदी...मोदी।" यह वैचारिक अंधकार है जो सर्वत्र पसर चुका है। इस अंधकार में तर्क अप्रासंगिक हैं, चेतना कुंठित है और दृष्टि धुंधली।
भारतीय राजनीति वैचारिक और व्यावहारिक, दोनों स्तरों पर अपने निकृष्टतम दौर में है। सारे दल, तमाम राजनेता इसके जिम्मेवार हैं। लेकिन, नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी सर्वथा अग्राह्य है। क्योंकि, नोटबन्दी की विभीषिका के बाद, कारपोरेट लूट का रिकार्ड तोड़ने के बाद भी मोदी राष्ट्रवाद और धर्म-संस्कृतिवाद की खतरनाक आड़ ले सकते हैं, ले रहे हैं, पुलवामा के शहीदों के नाम पर वोट मांगने की राजनीतिक अनैतिकता का खुलेआम प्रदर्शन कर रहे हैं जबकि अमित शाह बालाकोट में 250 आतंकियों के मारे जाने की नितांत झूठी खबर को चुनावी रैली में राजनीतिक अस्त्र की तरह इस्तेमाल कर चुके हैं।
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की इस स्वीकारोक्ति पर कि..."बालाकोट हमले में न कोई पाकिस्तानी सैनिक मरा, न कोई नागरिक"...अमित शाह को कोई शर्म महसूस नहीं होगी न उन चैनलों को कोई लाज आने वाली है जो 350 को मारने की खबरों के शोर से आसमान सिर पर उठाए थे।
मध्यवर्ग चिंतित है किंतु आत्मचिंतन को तैयार नहीं...तब तक, जब तक कि उसके पैरों के नीचे से दरी न खींची जाने लगे। आज कोई बीएसएनएल के इंजीनियर्स से पूछे जो गवाह हैं कि किस तरह जियो के उत्कर्ष की बलिवेदी पर उनके संगठन को जानबूझ कर बर्बाद किया गया।
कल तक जेट एयरवेज के कर्मी, जिनमें 90 प्रतिशत से अधिक शहरी मध्यवर्गीय सवर्ण होंगे, किसी राजनीतिक सवाल पर या तो कंधे उचका कर, मुंह बिचका कर 'आई हेट पॉलिटिक्स' बोलते होंगे या मोदी का विकल्प नहीं होने की बात दुहराते होंगे।
आज वे आत्म चिंतन कर रहे होंगे क्योंकि सत्य उनके सामने चुनौती बन कर आ खड़ा हुआ है। वे सब अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग हैं। वे समझ रहे होंगे कि उनके संगठन के साथ, उनके करियर के साथ, उनके बच्चों के भविष्य के साथ कौन सा खेल खेला गया है और इस खेल में "मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स" की क्या भूमिका है।
यह भी कि... कंपनी डूबने का वास्तविक खामियाजा कौन उठा रहा है...नरेश गोयल जैसा कारपोरेट का शातिर खिलाड़ी या उनके जैसे मेहनतकश कर्मचारी। जैसे-जैसे मुक्त आर्थिकी के इस दुष्चक्र का भान उनको होता जाएगा वैसे-वैसे निम्न श्रेणी के श्रमिकों के साथ संघर्षों में उनकी भागीदारी बढ़ती जाएगी। जैसे फ्रांस में बढ़ रही है, हंगरी, नीदरलैंड,फिनलैंड जैसे अन्य यूरोपीय देशों में बढ़ रही है।
वक्त और हालात हर किसी को आत्म चिंतन को विवश करते हैं। समय आएगा जब हिन्दी पट्टी के सवर्ण भी सोचने-समझने को बाध्य होंगे। वह दौर बीत चुका जब उनकी जातीय दबंगई और श्रेष्ठता के अहंकार के सामने राजनीति नतमस्तक होती थी। दौर बहुत आगे निकल चुका है और अपने जड़ अहंकार के साथ वे पीछे छूट चुके हैं। जिस दिन उनके बच्चे इस सत्य को समझ लेंगे कि गांव के अन्य गरीबों की नियति के साथ ही उनकी नियति भी बंधी है उसी दिन उनकी राजनीतिक चेतना का परिष्कार होगा और वे उन कंधों से कंधा मिला कर आगे बढ़ सकेंगे जिनसे उनकी दूरी उन्हें भी कमजोर बनाती है और अन्य गरीबों को भी।
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