हेमंत कुमार झा।
तेजस्वी यादव कोई जन नेता नहीं हैं, बावजूद इसके कि 2015 से 2017 तक वे बिहार के उप मुख्यमंत्री रहे, उनका कोई खास व्यक्तिगत आकर्षण ऐसा नहीं था कि जाति और जमात की सीमाओं को लांघ बिहार के युवा उनमें अपना भविष्य देखते।
लेकिन, 2020 के विधान सभा चुनावों में वे एक ऐसे नेता के रूप में उभरे जिनकी सभाओं में भारी भीड़ उमड़ रही थी, सभी जाति के युवा उन्हें देखने और सुनने बहुत उत्साह से जुटने लगे थे।
अचानक से उनकी छवि ऐसी बन गई कि राजद के चुनावी पोस्टरों से लालू जी तक गायब हो गए और तेजस्वी के बड़े-बड़े फोटो सर्वत्र नजर आने लगे।
अचरज यह कि राजद के पुराने समर्थकों ने भी लालू विहीन पोस्टरों पर कोई ऐतराज नहीं किया और यह मान लिया कि अब जमाना तेजस्वी का है।
वह तो सीमांचल में असदुद्दीन ओवैसी ने कई सीटों में खेल कर दिया वरना तेजस्वी बिहार के सर्वाधिक युवा मुख्यमंत्री बनने का रिकार्ड कायम कर देते। वे बहुमत से बहुत महीन फासले पर रह गए थे और इसका सबसे अधिक अफसोस अगर किसी वर्ग को हो रहा था तो वह बिहार के युवाओं का था।
और, बिहार के लाखों नियोजित शिक्षकों और शिक्षक अभ्यर्थियों को भी भारी अफसोस हुआ कि तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए, इन सबकी उम्मीदें तेजस्वी पर टिकीं थी।
ऐसा क्या हो गया था कि तेजस्वी यादव के प्रति बिहार के नौजवानों, बेरोजगारों, शिक्षकों आदि में प्रबल आकर्षण नजर आने लगा और माहौल ऐसा बन गया कि चुनावी परिचर्चाओं में विश्लेषक कयास लगाने लगे थे कि उनके नेतृत्व में सरकार बन सकती है।
इसका सबसे बड़ा कारण था कि तेजस्वी यादव ने घोषणा की थी कि अगर उनकी सरकार बनी तो पहली ही कैबिनेट मीटिंग में दस लाख सरकारी नौकरियों की वैकेंसी पर निर्णय ले लिया जाएगा। साथ ही, उन्होंने अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी कहा था और लगातार अपनी सभाओं में भी दोहराते रहे थे कि नियोजित शिक्षकों को राज्यकर्मी का दर्जा दिया जाएगा, उनके वेतन की विसंगतियों को दूर किया जाएगा।
यह बड़ी बात थी क्योंकि जिस दौर में सरकारी नौकरियों की वैकेंसी पर केंद्र की मोदी सरकार ताला लगा रही थी, संविदा और आउटसोर्सिंग का बोलबाला बढ़ रहा था, पढ़े लिखे बेरोजगारों के बीच त्राहि त्राहि मची थी, कोई युवा नेता अगर घोषणा कर रहा था कि सत्ता में आते ही वह दस लाख सरकारी नौकरियों का विज्ञापन जारी कर देगा तो यह ऐसा था जिसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं था और जिसने सर्वत्र एक उत्साह का संचार कर दिया था।
प्रशिक्षित और पात्रता परीक्षा पास लाखों शिक्षक अभ्यर्थी, जो वर्षों से अपनी बहाली के लिए आंदोलन करते हुए सड़कों पर पुलिस की लाठियां खा रहे थे, सरकारी अधिकारियों के कोरे आश्वासनों से ऊब चुके थे, उन्हें तेजस्वी में अपना तारणहार नजर आने लगा था।
सरकार के सौतेले व्यवहार से आजिज लाखों नियोजित शिक्षकों की उम्मीदें भी तेजस्वी के साथ परवान चढ़ चुकी थी।
2020 के विधान सभा चुनावों में तेजस्वी यादव बिहार की राजनीति के एक चमकते सितारे की तरह उभरे। ऐसा नेता, जिसकी लोकप्रियता ने जाति की सीमाओं का अतिक्रमण कर उम्मीदों को एक नया आसमान दिया था।
जाति आधारित राजनीतिक माहौल में किसी युवा नेता की स्वीकार्यता का ऐसा विस्तार बिहार के भविष्य के लिए सुखद संकेत था।
गठबंधन की राजनीति ने करवट बदली और 2022 के उत्तरार्द्ध में नीतीश कुमार-तेजस्वी यादव की सरकार अस्तित्व में आ गई।
तेजस्वी उपमुख्यमंत्री बने और जैसा कि नीतीश कुमार ने भी बार बार दोहराया, वे सत्तासीन महागठबंधन के भावी नेता भी मान लिए गए।
उम्मीदों को पंख लग गए...।
बेरोजगार नौजवानों, शिक्षक अभ्यर्थियों और नियोजित शिक्षकों के बीच उत्साह का माहौल व्याप्त हो गया। भले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार थे, उम्मीदों और उत्साह के केंद्र में तेजस्वी ही थे।
यह उत्साह तब दुगुना हो गया जब एक समारोह में नीतीश कुमार ने कहा कि तेजस्वी के वादे के मुताबिक 10 लाख सरकारी नौकरियां तो दी ही जाएंगी, 10 लाख अतिरिक्त रोजगार के अवसर भी सृजित किए जाएंगे।
लेकिन...
इसके बाद जो हुआ वह अकल्पनीय था। पात्रता परीक्षा पास चार लाख शिक्षक अभ्यर्थियों और करीब चार लाख ही नियोजित शिक्षकों के विश्वास को तोड़ कर अचानक से नई नियमावली ले आई गई। ऐसी नियमावली, जिसमें न जाने कितने झोल हैं, न जाने कितनी उलझने हैं।
अभ्यर्थियों और नियोजितों से जुड़े इन मामलों से जो सीधे नहीं जुड़े हैं, वे कह सकते हैं कि इस नई नियमावली में अच्छी बात ही तो है। आयोग से परीक्षा ले कर शिक्षक नियुक्ति से गुणवत्ता सुधरेगी।
लेकिन, इस विमर्श के कई अध्याय हैं, बहसों की कई परतें हैं। यहां उसके डिटेल में जाने की जरूरत नहीं है।
कहने का मतलब यह है कि लाखों नियोजित शिक्षकों और पात्रता परीक्षा पास शिक्षक अभ्यर्थियों के साथ ये सरासर धोखा है।
यह धोखा तेजस्वी यादव ने नहीं दिया, बल्कि नीतीश कुमार की ब्यूरोक्रेसी पर अत्यधिक निर्भरता ने दिया।
लेकिन, इसके सबसे बड़े शिकार तेजस्वी यादव ही हुए। अचानक से उनका आभामंडल क्षीण सा नजर आने लगा। ब्यूरोक्रेसी के इस विवेकहीन कदम का समर्थन करते हुए तेजस्वी यादव कितने दयनीय नजर आने लगे हैं यह उनके सलाहकार अगर नहीं समझ सके हैं तो वे भी दयनीय ही हैं।
कहा जाता है कि आशा और विश्वास में भगवान बसते हैं, तेजस्वी यादव ने इसे तोड़ कर लाखों लोगों का दिल तोड़ दिया है।
विडंबना यह कि शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने जो शिक्षा व्यवस्था में सुधार के नाम पर शिक्षकों को लांछित और अपमानित करने का नया सिलसिला शुरू किया है, वह भी अंततः तेजस्वी के खिलाफ ही जा रहा है।
नीतीश अपनी पारी के अंतिम दौर में हैं लेकिन तेजस्वी को अभी लंबी पारी खेलनी है। बिहार का जो वर्तमान परिदृश्य है वह तेजस्वी के लिए कोई बहुत अच्छा संकेत नहीं है। उनकी पार्टी के कोटे से बने शिक्षा मंत्री एक ब्यूरोक्रेट से बेइज्जत होकर सप्ताहों से अपने विभाग नहीं जा रहे और लोग इस सबका मजा ले रहे हैं।
बात यहां तक पहुंच गई कि एक शिक्षक संगठन के नेता के आरोप के मुताबिक उस अधिकारी ने उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का भी फोन तक नहीं उठाया।
नायक पूजा वाले इस समाज में अगर किसी लोकप्रिय, उदीयमान नेता की छवि में ऐसी गिरावट आती है तो यह उसके भविष्य की राजनीति के लिए अच्छा संकेत तो नहीं ही है।
जिन लोगों के लिए तेजस्वी कुछ महीनों पहले तक उम्मीदों और आस्था के केंद्र थे, उनकी नजरों में वे अब वैसे नहीं रहे। लोग मानते हैं कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है और इसकी सबसे बड़ी जिम्मेवारी तेजस्वी पर ही डाली जा रही है।
नीतीश के ब्यूरोक्रेट प्रेम के सामने तेजस्वी न सिर्फ विवश नजर आए बल्कि आत्मसमर्पण करते भी नजर आए।
विवश और असमर्थ नेता नायकत्व प्राप्त नहीं कर पाते। उम्मीदों और विश्वास के साथ छल करने वाले नेता कभी नायक नहीं बन पाते।
बात तेजस्वी यादव की राजनीति और उनके राजनीतिक कद की है। अचानक से उनकी छवि में न जाने कितने खरोंच नजर आने लगे हैं।
बिहार के शिक्षा जगत में कोलाहल का दौर चरम पर पहुंचता जा रहा है और तेजस्वी की छवि में खरोंचें बढ़ती जा रही हैं।
यह तेजस्वी यादव को सोचना है, उनके सलाहकारों को सोचना है कि उनकी छवि, उनकी राजनीति के साथ क्या हुआ है, क्या हो रहा है और आगे क्या होगा।
जन नेता वही बनता है जो उम्मीदों का केंद्र होता है। उम्मीदें तोड़ने वाला, विश्वासघात के आरोपों से घिरने वाला न जन नेता बनता है, न नायक बनता है।
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