राकेश कायस्थ।
2016 में आई इरफान खान की फिल्म मदारी को उतनी चर्चा नहीं मिली थी, जिसकी वो हकदार थी। संस्थागत लूट की बुनियाद पर खड़ा एक फ्लाइओवर गिरता है और उसके नीचे आये आठ साल के मासूम बच्चे की हालत कुछ ऐसी होती है कि उसके पिस चुके शरीर को पॉलीथिन बैग्स में भरकर पिता के हवाले किया जाता है।
पिता ये जानना चाहता है कि आखिर उसे किस बात की सजा मिली। लेकिन सवाल सुनने वाला कोई नहीं है। दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए वह राज्य के सबसे प्रभावशाली मंत्री के बेटे का अपहरण कर लेता है और उसे जान से मारने की धमकी देता है। उसके बाद आता है, क्लाइमेक्स जहां मंत्री कहता है--‘सरकार में करप्शन नहीं होता है बल्कि करप्शन के लिए ही सरकार होती है।‘
ये कोई दमदार डायलॉग नहीं बल्कि वो परम सत्य है, जिसका अनुभव आप अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में कर सकते हैं। नोएडा में फंसी अपनी प्रॉपर्टी के लिए मैंने दिल्ली से लखनऊ तक के अनगिनत चक्कर लगाये। लखनऊ में राज्य सरकार के सबसे ताकतवर नौकरशाह से भी मिला। उस पूरी भागदौड़ के दौरान मुझे अंदाज़ा हुआ कि पार्टी लाइन से परे बिल्डर-राजनेता-अफसर गठजोड़ अजेय है और आम आदमी पूरी तरह बेबस।
जिन संस्थाओं को हम बहुत पवित्र मानते आये हैं कि वो चीख-चीखकर अपना हाल बयान कर रही हैं। यूपीएसएसी से लेकर NTA ( नेशनल टेस्टिंग एजेंसी) का हाल हम सबने देख लिया। माननीय सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय की ध्वनि यही है कि भले ही नीट की परीक्षाओं में गड़बड़झाला हुआ हो लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता है।
उसके बाद देश के शिक्षा मंत्री का व्ही फॉर विक्ट्री की हस्तमुद्रा बनाना और ‘सत्यमेव जयते’ कहना है, हमारे समय का अश्लीलतम दृश्य है। कई परीक्षा केंद्र ऐसे हैं, जहां बहुत से बच्चों ने अप्रत्याशित रूप से ज्यादा अंक हासिल किये हैं। एक सेंटर से सेंट परसेंट स्कोर करने वाले बच्चे भी बहुत ज्यादा हैं। इस पर जब संसद में सवाल उठा तो माननीय शिक्षा मंत्री ने पलटकर पूछा— ‘ क्या आपको पिछड़े इलाकों के लोगों की मेधा पर भरोसा नहीं है?‘
आमतौर पर नीट की परीक्षा में छह सौ अंक लाने वाले बच्चों को होम स्टेट या कोई अच्छा सरकारी मेडिकल कॉलेज मिल जाता था। लेकिन इस बार कहानी पूरी तरह अलग है। अब सवाल ये है कि दो साल तक रात-दिन पसीना बहाने वाले बच्चे क्या करेंगे? साधनहीन बच्चे अपनी किस्मत को रोयेंगे और जिनके माता-पिता करोड़ रुपये तक खर्च कर सकते हैं, वो प्राइवेट मेडिकल कॉलेज का रुख करेंगे। प्राइवेट मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज किसके हैं? थोड़ा रिसर्च करके देख लीजिये।
आपको एक भी कॉलेज ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें किसी राजनेता या अफसर का पैसा ना लगा हो। नेता-अफसर गठजोड़ के बिना इस देश में किसी निजी शिक्षण संस्थान का बन पाना लगभग नामुमकिन है। बिना किसी अतिश्योक्ति ये कहा जा सकता है कि सरकारी तंत्र करप्शन के इस व्यवस्थित मॉडल को बनाये रखने के लिए काम कर रहा है, आम नागरिकों की सहूलियत के लिए नहीं। नागरिक इस बात के लिए बाध्य किये जा रहे हैं कि वो अपने बच्चों का दाखिला निजी शिक्षण संस्थानों में करवायें जहां फीस बेहिसाब महंगी है और शिक्षा की गुणवत्ता बेहद खराब। एक करोड़ में डॉक्टरी की डिग्री हासिल करने वाला आखिर अपने लागत की भरपाई कहां से करेगा? एक डॉक्टर को शुरुआती दिनों में कितनी तनख्वाह मिलती है ये सबको पता है। अब एक करोड़ वाला डॉक्टर करप्शन के इको सिस्टम को खाद-पानी नहीं देगा तो और क्या करेगा?
नीट के परिणाम छोड़िये, CUET (कॉमन यूनिवर्सिटी इंट्रेस टेस्ट) की बात कीजिये। ये टेस्ट मई महीने में हुआ था और परिणाम का अब तक कोई अता-पता नहीं है। इस दौरान निजी शिक्षण संस्थान काउंसिलिंग और अन्य दूसरे तरीकों से अभिभावकों पर इस बात का दबाव बना रहे हैं कि अगर अभी दाखिला नहीं लिया को बाद में नहीं मिलेगा। अभिभावकों की असुरक्षा का आलम ये है कि वो एक से ज्यादा जगह पर दाखिला करवा रहे हैं। बिना कुछ किये धरे प्राइवेट इंस्टीट्यूशंस को मोटी आमदनी हो रही है क्योंकि वो दाखिला रद्द होने पर मोटी रकम काटते हैं। कुछ संस्थान ऐसे भी हैं जो बिल्कुल रीफंड नहीं करते। क्या ये लूट का व्यवस्थित मॉडल नहीं है?
CUET की परीक्षा वही नेशनल टेस्टिंग एजेंसी लेती है, जिसने नीट के परिणामों के बाद पर्याप्त `यश’ अर्जित किया है। क्या आपने अभिभावकों को इस बात पर आंदोलित होते देखा है कि CUET के रिजल्ट में जानबूझकर देरी क्यों की जा रही है। क्यों छात्रों को इस बात पर बाध्य किया जा रहा है कि वो दिल्ली विश्वविद्यालय या बीएचएयू, जामिया, एमयू छोड़कर किसी निजी संस्थान में दाखिला लें। आमतौर पर एक मध्यवर्गीय व्यक्ति अपने छोटे-छोटे सपनों और कुंठाओं में जीता है। उसे अपने पड़ोसी और रिश्तेदार से थोड़ा सा ज्यादा चाहिए और कुछ नहीं। इसलिए ऐसी बातें उसे परेशान नहीं करती हैं, वर्ना ये वही बिरादरी है, जो टू जी करप्शन से नाराज़ होकर दिल्ली की सड़कों पर आ गई थी।
अंडर ग्रेजुएट कोर्सेज के लिए बड़ी संख्या में बच्चों का विदेश की तरफ रूख करना भी एक डरावना दृश्य है। अगर मेधा असाधारण हो और कोर्स बहुत अच्छा तो बात समझ में आती है लेकिन बेसिक एजुकेशन लिए विदेश जाना ये बताता है कि फाइव ट्रिलियन डॉलर इकॉनमी बनने का सपना देखने वाले देश शिक्षा व्यवस्था को करप्शन ने दीमक की तरह खोखला कर दिया है। मैं कई ऐसे बच्चों को जानता हूं जो यूके, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा से कोई कोर्स करने के बाद भारत लौट आये हैं और या अच्छी नौकरी हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
शिक्षा से इतर स्वास्थ्य और बाकी दूसरी सेवाओं पर नज़र डालिये, वहां भी आपको भ्रष्टाचार का व्यवस्थित तंत्र काम करता नज़र आएगा। घूम-फिरकर अंतिम सत्य यही लगता है कि करप्शन सरकार में नहीं है बल्कि सरकार ही करप्शन के लिए है।
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