डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी के खजाने से इस सप्ताह की शख्सियत हैं मूर्धन्य पत्रकार राजेंद्र माथुर। मल्हार मीडिया में वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्त के तीन कॉलम माथुर साहब पर चले थे इस बार डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी की नजर से उन्हें जानने का मौका मिलेगा नयी पीढ़ी के पत्रकारों को।
आजकल अखबारों का सम्पादकीय पन्ना ‘वेस्ट मटेरियल' बनता जा रहा है, जिस पन्ने पर लोग सबसे ज्यादा भरोसा करते थे और जिसे पढ़ने के लिए न केवल आतुर रहते थे, बल्कि जिसके एक-एक शब्द को पाठ्यपुस्तक की तरह पढ़ा जाता था, वह अब न्यूजपेपर नाम के प्रॉडक्ट का लगभग अवांछित हिस्सा बन गया है।
सम्पादकीय पेज पर से ही सम्पादकीय का स्थान लगातार कम होता जा रहा है, किसी भी विषय पर विषद चर्चा के बजाय उस विषय को छू भर लिया जाता है। बेशक, सम्पादकीय पेज पर अब लेखकों के फोटो भी छपने लगे हैं, लेकिन किन के? आज ़ज्यादातर अखबार सम्पादकीय पेज सजाने के लिए सेलेब्रिटी का उपयोग कर रहे हैंं और उनके ही लेख छापते हैं, जो जाने-पहचाने चेहरे हैं। विशेषज्ञों की ज़रूरत अब ख़त्म, सेलेब्रिटी जो लिखे, वही परम सत्य। वरिष्ठ पत्रकार राजेंन्द्र माथुर के दौर में यह शायद मुमकिन नहीं था। अब सम्पादकीय पेज के लेखक उस कद के नहीं बचे हैं क्योंकि अब संपादक उस कद के नहीं हैं।
अखबार को प्रोडक्ट बनाने की कोशिशें तो राजेंद्र माथुर साहब के जीते जी ही शुरू हो गयी थी, लेकिन तब माथुर साहब के रहते वे उतने घटिया प्रोडक्ट बनाने में कामयाब नहीं हो पाए, क्योंकि माथुर साहब का कहना था कि जो भी काम करो, बेहतरीन करो। अगर संपादक के नाम चिठ्ठी भी छापो तो ऐसी छापो कि लोग उसे पढ़कर याद रखें। वे सम्पादकीय पेज को अखबार का झंडाबरदार पेज मानते थे और कोशिश करते कि वहां एक शब्द भी अनुपयोगी और निरर्थक न हो। वे सम्पादकीय पेज खुद एडिट करते थे और आम तौर पर सम्पादकीय भी खुद लिखते। जब उन्हें फुरसत मिलती तब किसी और को सम्पादकीय लिखने का मौका देते और फिर पूरा वक्त देकर उस सम्पादकीय टिप्पणी को मांजते-चमकाते। मक़सद होता था, दूसरे लेखकों को मौका और प्रशिक्षण देने का। आमतौर पर सम्पादकीय पेज छपने वाले पत्रों का भी चयन और संपादन वे खुद करते थे और यही कारण था कि उन दिनों संपादक के नाम पत्र कॉलम बेहद लोकप्रिय हुआ करता था और लोग अखबार आते ही सबसे पहले यह कॉलम पढ़ना पसंद करते थे।
माथुर साहब का मानना था कि बेशक पत्रकारिता कोई सेवा नहीं, पेशा है, लेकिन किसी डॉक्टर या शिक्षक के पेशे की तरह। वे अपने अखबार को हमेशा सत्यनिष्ठ, स्पष्ट और न्याय का पक्षधर देखना चाहते थे और इसी मकसद के लिए कार्य भी करते थे। अगर वे आज होते तो देश में अखबार नाम के प्रोडक्ट ज़रा बेहतर किस्म के होते। इन प्रोडक्ट में वे लोग शायद नहीं होते, जिनका काम ही 'सेटिंग' करने का होता है। राजेंद्र माथुर होते तो आज भी अखबारों के मालिक रूपया कमाते, लेकिन इस तरह नहीं, बल्कि अखबार के कंटेंट और उसके बूते बिकने वाले अखबारों से, विज्ञापनों से। वे होते तो संपादक का कद शायद ज्यादा बड़ा होता। अखबार के सरोकार ज्यादा जनोन्मुख होते, जिससे पत्रकारिता का चेहरा भी ज्यादा साफ़ होता, सम्माननीय होता।
मैंने कई बार लिखा है कि अखबारों के मालिक चाहे व्यक्ति हो, फर्म हो, साझेदारी संस्थान हो, कम्पनी हो - कोई भी हो, असली मालिक तो उसके पाठक ही होते हैं। उसी तरह टीवी चैनल्स के असली मालिक होते हैं दर्शक। सारे ही पत्रकार अपने मालिकों के लिए काम करते हैं यानी पाठकों और दर्शकों के लिए, लेकिन आज लगता है कि मीडिया के मालिक बदल गए हैं, उनका फोकस शिफ्ट हो गया है। अब मालिक पाठक या दर्शक नहीं, विज्ञापन देनवाले हो गए हैं। यही बदलाव मीडिया में हो रहे नकारात्मक परिवर्तनों के लिए जवाबदार है। मीडिया का जन-सरोकारों से दूर हो जाने का कारण भी यही है। अब खबरें विज्ञापनों की तरह सजाई जाती हैं। कोई भी अखबार पढ़ लीजिए या कोई भी चैनल देख लीजिए। अब अखबार ऐसा बनाया जाने लगा है कि वह विज्ञापनदाताओं को पसंद आए। अखबार का 'सुन्दर' होना अनिवार्य शर्त होने लगी है। अगर भूकंप, लूट, हत्या, बलात्कार के भी खबर हो तो भी अखबार में उसे सुन्दर तरीके से पेश किया जाना ज़रूरी हो गया है। इसी के साथ आजकल खबरों में सनसनी का तत्व अनिवार्य रूप से देना ज़रूरी हो गया है। यानी यही हाल अगर पिछली सदी के तीस और चालीस के दशक में होता तो गाँधी जी के नमक सत्याग्रह या भारत छोड़ो आन्दोलन की खबरें नहीं होतीं, बापू और मीरा बहन के किस्से जगह पाते। हो सकता है कि सत्य के साथ गांधीजी के प्रयोगों को लेकर कोई चैनल 'स्टिंग ऑपरेशन' कर देता।
मीडिया में ये बदलाव पाठकों और दर्शकों को ध्यान में रखकर नहीं, विज्ञापनदाताओं के लिए 'फील गुड' का अनुभव देने के लिए किए जा रहे हैं। विज्ञापन लाने वाले मैनेजर के बारे में मालिक को लगता है कि अखबार की आय उसी के कारण हो रही है, अगर ऐसा होता तो अखबारों में केवल विज्ञापन छापकर ही काम चला लिया जाता। लोग खबरें पढ़ने के लिए अखबार खरीदते हैं और उन्हें विज्ञापन मुफ्त में 'पढ़वाए' जाते हैं, लेकिन आजकल जो माहौल बनाया जा रहा है, उससे ये लगता है मानो अखबार विज्ञापन पढ़ने के लिए छापे और खरीदे जाते हैं और खबरों और सम्पादकीय लोगों पर थोपे जा रहे हैं। राजेन्द्र माथुर ने अखबार में सम्पादक की गरिमा को स्थापित करने में और उसे अक्षुण्ण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दुर्भाग्य से आज सम्पादक नाम की संस्था गौण हो गई है और ब्रांड हेड प्रमुख बन बैठा है। जो विज्ञापन मैनेजर कभी संपादक के केबिन के बाहर इंतज़ार करता रहता था, अब संपादक उससे मिलने के लिए वक्त मांगता नज़र आता है। राजेन्द्र माथुर अपने सम्पादन काल में न तो मालिक के केबिन में जाते थे और न ही ब्रांड मैनेजर के केबिन में। जिन्हें मिलना होता वे खुद उनसे मिलने आ जाते। राजेन्द्र माथुर के लिए वे खबरें महत्वपूर्ण रही, जिनका सरोकार आम आदमी से होता रहता है। आजकल की तरह नहीं। आज सानिया मिर्ज़ा की शादी की खबर नक्सलवादियों द्वारा सुरक्षाबलों पर हमले से बड़ी खबर है और मायावती का हेयर स्टाइल बदलना दलित महिला के खिलाफ हो रहे जुर्म से बड़ी खबर।
राजेन्द्र माथुर ने जिस तरह की पत्रकारिता की थी, उसे इमर्जेन्सी में लोगों ने देखा। आज़ादी के बाद के उन काले दिनों में राजेन्द्र माथुर ने भारतीय लोकतंत्र के दाग-धब्बों से अपने पाठकों को लगातार परिचित कराया और फिर चुनाव की घोषणा होने के बाद पूरी शिद्दत से इंदिरा गाँधी और उनकी पार्टी को हराने का अभियान चलाया। इमर्जेन्सी हटने के बाद भी वे चुप नहीं रहे कि अब तो चुनाव की घोषणा हो गयी है, अब सब कुछ सामान्य है। उन्होंने इस बात के लिए लोगों को प्रेरित किया कि वे ऐसी व्यवस्था करने के लिए आगे आयें कि आगे फिर कभी इमर्जेन्सी का भूत बाहर ना आ सके।
राजेन्द्र माथुर ने कभी भी अपने अखबार के 'टीजी' (टार्गेट आडियेंस) को संकीर्ण भाव से नहीं देखा। उनके मत में अखबार के पाठक समझदार और जिज्ञासु, बेबाक और बेखौफ, विचारवान और निर्णायक होते हैं। यह सोचना कि पाठकों की दिलचस्पी केवल सनसनी, अपने मतलब की खबरों, मनोरंजन की फूहड़ सूचनाओं और सेल के विज्ञापनों में होती है, अपने पाठकों का अपमान तो है ही, अपना बौद्धिक दीवालियापन भी है। नईदुनिया उन दिनों भले ही क्षेत्रीय अखबार रहा हो, उसके सरोकार व्यापक थे और खबरों और विचारों का प्रवाह वैश्विक था। झाबुआ-बड़वानी के आदिवासियों की जुबान बनते वक्त उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि अनपढ़ आदिवासी हमारे पाठक नहीं हैं, इसलिए हमारे उनसे कोई सरोकार नहीं हैं। आदिवासी इलाकों की हर उस खबर ने नईदुनिया में जगह पाई, जिसकी उसे दरकार थी। विचारों के पन्ने पर भी उन्होंने जो कुछ भी लिखा और छापा, उसका सरोकार पूरे समाज और शासन से था। 1969 में जब आदमी ने चाँद पर कदम रखा, तब भी नईदुनिया का चार पन्नों का विशेष रंगीन परिशिष्ट प्रकाशित हुआ। वे नईदुनिया को हिन्दी का नहीं, देश का सर्वश्रेष्ठ अखबार बनाना चाहते थे। वे हमेशा ही श्रेष्ठता के पक्षधर रहे। जब वे नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बने तभी हिन्दी अखबारों का व्यापक फैलाव शुरू हुआ। उन्होंने हिन्दी की अपार संभावनाओें को पहले ही समझ लिया था और इसलिए नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक बनने के बाद नवभारत टाइम्स के जयपुर, लखनऊ और पटना संस्करणों की शुरूआत कर दी थी। वे कहते थे कि हिन्दी का साम्राज्य काफी बड़ा है और यह और भी ज्यादा व्यापक हो सकता है। आज तमाम हिन्दी अखबारों का बोलबाला है, इसकी कल्पना उन्होंने पचास साल पहले कर ली थी। वे एक परिपक्व सम्पादक थे और अपने पाठकों की परिपक्वता को ब़ढ़ाने के लिए प्रयत्नरत रहते थे।
भारतीय पत्रकारिता में अनूठी छाप छोड़ने वाले श्री राजेन्द्र माथुर ने मध्यप्रदेश के धार जिले के छोटे से कस्बे बदनावर से अपना सफर शुरू किया था। अंग्रेजी के प्रोपेâसर और हिन्दी के सम्पादक के रूप में उन्होंने भारतीय पत्रकारिता की दिशा को मोड़ा। भारतीय पत्रकारिता को उन्होंने एक मुहावरा दिया और अपने लेखन की रूपक शैली में नए-नए मुहावरे गढ़ते चले गए। उन्होंने अपनी जिन्दगी में दो अखबारों के लिए काम किया। नईदुनिया और नवभारत टाइम्स। इन दोनों ही अखबारों में उन्होंने ऐसे पत्रकारों को प्रशिक्षित किया, जिन्होंने सम्पूर्ण हिन्दी जगत की पत्रकारिता का नेतृत्व किया और अब भी कर रहे हैं। दूसरे प्रेस आयोग के सदस्य के रूप में उन्होंने पूरे प्रेस जगत की ही दिशा बदल दी। उन्होंने युवा पत्रकारों को लेखन, सम्पादन और रिपोर्टिंग की नई-नई शैलियों से परिचित कराया। साथ ही प्रतिभावान पत्रकारों को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई।
श्री माथुर का सम्पूर्ण लेखन त्वरित रहा है। वे खुद एक जीते-जागते संदर्भ ग्रंथ की तरह थे। हजारों लोगों के नाम और तारीखें उनकी स्मृति में अंकित थी। दुनियाभर की सामयिक घटनाएं मानो किसी डाक्यूमेन्ट्री फिल्म की तरह उनके मस्तिष्क में वैâद रहती थीं। आमतौर पर वे कभी संदर्भ-सामग्री का सहारा नहीं लेते थे और न ही किसी सम्पादकीय या लेख को लिखने के पहले कभी रफ ड्राफ्ट तैयार करते। अगर उनके सामने २० लोग बैठकर भी बातचीत कर रहे होते तो भी वे बिना डिस्टर्ब हुए अपना काम करते रहते थे।
उन्होंने अपनी भाषा में दूसरी भाषाओं और बोलियों के शब्द आने में गुरेज नहीं किया। जो अधिकार उनका हिन्दी भाषा पर रहा, अंग्रेजी पर भी वही अधिकार था। द टाइम्स ऑफ इंडिया में उनके लेख नियमित प्रकाशित होते थे। मैं तब नवभारत टाइम्स में कार्यरत था। टाइम्स के कई पत्रकार और कई लोग तो उन्हें अंग्रेजी का ही पत्रकार समझते थे। यह वह दौर था, जब हिन्दी पत्रकारिता को वह सम्मान हासिल नहीं था, जो अंग्रेजी की पत्रकारिता को था। हिन्दी के सम्पादकों का वेतनमान भी अंग्रेजी के सम्पादकों की तुलना में कम होता था। राजेन्द्र माथुर ने अंग्रेजी पत्रकारिता के उस साम्राज्य को ढहाने में बड़ी भूमिका निभाई।
राजेन्द्र माथुर ने उस दौर में अपनी कलम से वैसे ही चमत्कार किए, जैसे मकबूल फिदा हुसैन ने अपने ब्रश से, सचिन तेंदुलकर ने अपने बल्ले या उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने अपनी शहनाई से। श्री माथुर की शैली की एक और खासियत थी, वे शब्दों का नपा-तुला प्रयोग करते थे। वे कहते थे कि अगर ‘जरूरत’ से काम चल जाता है तो ‘आवश्यकता’ शब्द क्यों लिखें। आखिर इसमें डेढ़ अक्षर की बचत भी तो होती है। वे रिपोर्टरों और डेस्क के सब एडिटर से कहते थे कि रिपोर्ट या लेख इस तरह से होना चाहिए कि पूरी बात भी आ जाए और शब्दों की फिजूलखर्ची भी न हो। वे कहते थे कि हमेशा यह मानकर लिखो, मानो आप टेलीग्राम भेज रहे हो और आपको हर शब्द के पैसे चुकाने हैं। जितनी मितव्ययता आप करोगे, उतनी ही चुस्त रिपोर्ट या लेख बनेगा। वे खुद कहते थे कि मैं सम्पादक की टेबल पर लेखों की कतरब्योंत ऐसे करता हूं, जैसे कोई डॉक्टर ऑपरेशन करना है, लेकिन लोग मुझे जल्लाद समझ लेते हैं।
इमरजेंसी के दिनों में उन्होंने नईदुनिया का सम्पादन किया था, तब प्रेस सेन्सरशिप लागू थी। सेन्सर लागू होने के अगले ही दिन नईदुनिया का सम्पादकीयवाला स्थान खाली था। जब वह अखबार लोगों के हाथों में पहुंचा, तब लोग उसका अर्थ समझ चुके थे। इमरजेंसी के दौर में ही नईदुनिया में उनकी लेखमाला ‘मुद्दे’ शीर्षक से छपी, जिसमें इंदिरा गांधी की सरकार को उखाड़ पेंâकने की खुली अपील थी। दिलचस्प बात यह है कि इमरजेंसी के दौर में भी नईदुनिया की प्रसार संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई थी। श्री माथुर जब नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक के रूप में दिल्ली में थे, तब लोग उन्हें मध्यप्रदेश का एम्बेसेडर मानते थे। यह बात और थी कि उन्होने खुद को संकीर्ण दायरे में नहीं रखा।
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