डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी।
राहुल बारपुते ने 1955 से 1982 तक के नईदुनिया के बारे में लिखा है। श्री बारपुते ने लिखा है कि इन 27 वर्षो में रज्जू बाबू की प्रतिभा को बढ़ते देखना एक सुखद दौर था। श्री बारपुते ने लिखा है कि राजेन्द्र माथुर बहुत कम बार अपने कार्यालय से अनुपस्थित रहते थे। केवल तीन परिस्थितियों में वे नईदुनिया कार्यालय में नही होते थे - पहला, अगर उनका स्वास्थ्य खराब हो। दूसरा, जब वे इंदौर के बाहर हों और तीसरा, जब परिवार में कोई मांगलिक कार्य हो। श्री माथुर माणिकबाग रोड पर रहते थे और वे कभी-कभी टहलते हुए नईदुनिया के दफ्तर आ जाते थे। ऐसे मौके भी आए जब वे शाम को लालबाग में टहलने चले गए।
एक बार वे अपने सहयोगी से यह कहकर घूमने निकल गए कि मैं मटरगश्ती करने जा रहा हूं। जब संपादकीय बैठक का समय हुआ और श्री माथुर बैठक में नहीं तो मैंने ऑफिस उनकी में बहुत खोज करवाई पर वो नहीं मिले। बाद में श्री माथुर के सहयोगी ने उनसे कहा कि कृपया मुझे बताकर न जाया करें, जब भी कोई पूछता है तो यह बताने में बड़ी मुश्किल होती है।इस पर श्री माथुर ने सहजता से कहा कि बता दिया करो कि मैं मटरगश्ती करने गया हूं।
एक बार श्री माथुर अपनी पत्नी मोहिनी माथुर के साथ खरीददारी करने गए। वहां एक दुकान से दूसरी दुकान भटकते रहे। श्री माथुर अपने विचारों में खोए बाजार में टहलने लगे, फिर कोई काम याद आ गया तो अपना स्वूâटर उठाकर घर पहुंच गए। वहां देखा कि घर पर ताला लगा हुआ था। उन्होंने सोचा कि श्रीमती माथुर कहीं आसपास होंगी। सो दरवाजे पर ही इन्तजार करने लगे। थोड़ी देर बाद श्रीमती माथुर ऑटो रिक्शा से घर पहुंची तो उन्होंने पूछा कि कहां गई थीं? श्रीमती माथुर ने जवाब दिया कि आप तो मुझे छोड़कर आ गए, मुझे ऑटो से आना पड़ा।
श्री माथुर अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति बेहद सजग थे और अपने बच्चों को छोड़ने और लेने खुद ही जाते थे। जब स्कूल की छुट्टी होती थी तो वे अपने ऑफिस से आधा घंटे गायब रहते थे और बच्चों को स्कूल से लेकर घर छोड़ने जाते थे। एक बार की घटना है। उन्हें पत्रकारिता के प्रशिक्षण के लिए तीन महीने बैंकॉक जाना पड़ा, तब बच्चों को स्वूâल छोड़ने की जिम्मेदारी श्रीमती माथुर ने निभाई, लेकिन स्वूâल से लाने के वक्त वे अपने प्राध्यापन कार्य में ड्यूटी पर होती थी, तब बच्चों को स्वूâल से लाने का काम राहुल बारपुते ने किया।
आलोक मेहता ने अपनी किताब ‘सपनों में बनता देश’ में राजेन्द्र माथुर के बारे में लिखा है - ‘1985—86‘ के दौरान गुप्तचर एजेंसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने सवाल किया आखिर माथुर जी हैं क्या? लेखन से वे कभी कांग्रेसी लगते हैं, कभी हिन्दूवादी संघी, तो कभी समाजवादी? क्या है उनकी पृष्ठभूमि? उस जासूस की उलझन भरी बातों से मुझे खुशी हुई। मैंने कहा माथुर साहब हर विचारधार में डुबकी लगाकर ऊपर आ जाते हैं। उन्हें बहाकर ले जाने की ताकत किसी भी पार्टी या विचारधारा में नहीं है। वह कभी किसी एक के साथ नहीं जुड़े। वह सच्चे अर्थो में राष्ट्र भक्त हैं, उनके लिए भारत राष्ट्र ही सर्वोपरि है। राष्ट्र के लिए वे कितने भी बड़े बलिदान और त्याग के पक्षधर हैं‘।
अनेक वर्षो तक राजेन्द्र माथुर के सहयोगी रहे रामबहादुर राय कहते हैं - ’जब उन्हें लगा कि संपादक को संपादकीय के अलावा प्रबंधन क्षेत्र में भी काम करना होगा, तो वे द्वंद में पड़ गए। इससे उन्हें शारीरिक कष्ट हुआ वे अपने सपने को टूटते-बिखरते नहीं देख पाए। मृत्यु के कुछ दिन पहले मेरी उनसे बात हुई थी। मैं उनके घर गया था, मैंने उन्हें परेशान पाया। मैंने उनसे पूछा कि क्या अड़चन है? तो उन्होंने कहा कि देखो अशोक जैन (टाइम्स ऑफ इंडिया के मालिक) नवभारत टाइम्स पढ़ते थे, उनको मैं बता सकता हूं कि अखबार वैâसे बेहतर बनाया जाए, लेकिन उनके पुत्र समीर जैन नवभारत टाइम्स पढ़ते ही नहीं।
प्रसिद्ध पत्रकार राजेन्द्र माथुर ने लिखा था कि भारत में एक पाकिस्तान और पाकिस्तान में एक भारत सदैव जमा हुआ है। यह उन्होंने दोनों देशों की मानसिक-वैचारिक स्थिति के संदर्भ में कहा था। इस यथार्थ को हमारे प्रबुद्ध लोग प्राय: नहीं देखना चाहते। भारत की पाकिस्तान-नीति की पूरी विफलता में यही भगोड़ापन है। भारत की पाकिस्तान समस्या तथा पाकिस्तान की भारत केंद्रित रणनीति, दोनों ही मूलत: विदेशी नहीं, आंतरिक समस्या हैं। यह न देखना एक भूल है। पाकिस्तानी सेना द्वारा जब-तब सीमा का उल्लंघन करने, भारतीय जवानों के सिर काट कर फेंक देने या उन्हें बर्बरतापूर्वक मारने की घटनाएं बार-बार होती रही हैं।
यह सब वे चीनी, ईरानी या अफगानियों के साथ कभी नहीं करते। हमारे साथ करते हैं तो हमारी मानसिकता का आकलन करके ही। वे हमें जानते हैं। दुर्भाग्य से हमने इस सभ्यता-संघर्ष को पहचाना नहीं, इसीलिए उसकी तैयारी भी नहीं की। लगभग सौ वर्षों से हमारी स्थिति यथावत है। 1947 से पहले मुस्लिमों को आपने साथ करने के लिए कांग्रेस के विविध विफल प्रयासों और उसके बाद पाकिस्तान के साथ मैत्री-पूर्ण संबंध बनाने के वैसे ही प्रयासों में एक दु:खद समानता है। समस्या की सही पहचान उसके निदान पर गंभीर विमर्श, तदनुरूप अपनी नीति बनाना, यह न तब था, न अब है। कांग्रेस नेतृत्व मुस्लिम प्रश्न पर सदैव तात्कालिकता का शिकार रहा। उसके ऊपरी दो-एक नेता अपनी प्रवृत्ति से किसी उपस्थित मसले का कोई फौरी समाधान पाने का जतन करते थे। एक ही समस्या नए-नए रूप में उपस्थिति होती रहती थी। तब भी उस पर विस्तृत विमर्श नहीं किया गया। उससे किसी तरह तात्कालिक छुटकारा पाने तथा मूल समस्या से नजर बचाने की प्रवृत्ति रही। अधिकांश कांग्रेस नेता उसी प्रवृत्ति के थे।
1916 के लखनऊ पैक्ट से लेकर 1999 की लाहौर बस यात्रा, कारगिल और उसके बाद से भी वैसे ही कई कारनामों तथा वक्तव्यों- घोषणाओं तक कोई समाधान पाने या 'संबंधों में सुधार' कर लेने का भोलापन कभी नहीं बदला। इसीलिए जो दृश्य 1947 से पहले था, वही एक भयंकर विभाजन के बाद भी रूप बदल कर अविराम चल रहा है। चाहे वह भारत के विरुद्ध युद्धरत पाकिस्तान को भारत से ही धन खजाने का हिस्सा़ दिलाने के लिए गांधीजी का विचित्र अनशन हो, चाहे कश्मीर में पाकिस्तानी हमले को पीछे धकेलती भारतीय सेना को नेहरू द्वारा रोक देना, पुन: 1965 के हमलावर पाकिस्तान को भारत द्वारा विजित भूमि वापस कर देना या फिर उसके एक नए हमले और हार के बाद 1972 में एक लाख बंदी सैनिकों समेत जीती जमीन पुन: वापस कर देना अथवा और आगे राजीव-बेऩजीर, वाजपेयी-नवाज शरीफ आदि समझौते, सचमुच सद्भावपूर्ण संबंध पाने में इन सबसे मिली विफलता में एक अद्भुत, किंतु करुण समानता है।
इस या उस 'वार्ता' से मिले कोरे शब्दों से संतुष्ट हो जाने के रोग से भारत सदैव ग्रस्त रहा। यह हमारी सैनिक नहीं, मानसिक दुर्बलता है, क्योंकि समस्या के सभी पहलुओं पर हम विचार करना ही नहीं चाहते। इस अर्थ में पाकिस्तान एक देश नहीं, बल्कि एक मानसिकता है, जो भारत पर विगत सौ वर्ष से अनवरत एक-सा प्रहार कर रही है। पूरी स्थिति पर खुले सोच-विचार के बदले भारत अपनी नई पीढ़ियों से भारत-पाकिस्तान या कांग्रेस-मुस्लिम लीग प्रसंग की सभी बातों, इतिहास के बड़े-बड़े तथ्यों तक को छिपाता है।
राजेन्द्र माथुर भारतीय परंपराओं और संस्कृति का हवाला देते हुए संकीर्णता की बेड़ियाँ काट आधुनिक दृष्टिकोण अपनाने पर भी जोर देते रहे। वे सभ्यता को अक्षुण्ण रखने के लिए जंगली जिंदादिली को जरूरी मानते थे। वे आदर्श महापुरुषों की पूजा करवाने के बजाय उनके गुणों और विचारों को अपनाने के पक्षधर थे।
पत्रकार राजेन्द्र माथुर के लेखन की समय सीमा तय नहीं हो सकती। इतिहास की परतें निकालने के साथ 21 वीं सदी की रेखाओं को असाधारण ढंग से कागज पर उतार देने की क्षमता भारत के किसी हिन्दी संपादक में देखने को नहीं मिल सकती। इसीलिए 1963 से 1969 के बीच राजेन्द्र माथुर द्वारा 'नईदुनिया' में लिखे गए लेख आज भी सामयिक और सार्थक लगते हैं।
अगस्त 1963 में उन्होंने लिखा था- 'हमारे राष्ट्रीय जीवन में दो बुराइयाँ घर कर गई हैं, जिन्होंने हमें सदियों से एक जाहिल देश बना रखा है। पहली तो अकर्मण्यता, नीतिहीनता और संकल्पहीनता को जायज ठहराने की बुराई, दूसरी पाखंड की बीमारी, वचन और कर्म के बीच गहरी दरार की बुराई।'
लगभग 50 साल बाद भी भारत उन बुराइयों से निजात नहीं पा सका है और पत्रकारिता में माथुर साहब को प्रेरक मानने वाले पत्रकारों या सामान्य पाठकों का कर्तव्य है कि वे उन बुराइयों के विरुद्ध अभियान जारी रखें। माथुर साहब की दृढ़ मान्यता थी कि केवल अनेकता के गौरव का शंख बजाने से काम नहीं चल सकता। देश को एक बनाने के लिए ज्यादा कष्ट उठाने पड़ेंगे। एकता का मतलब है देश में धर्म-निरपेक्ष, धन-निरपेक्ष, अवसर की समानता यानी आर्थिक और सामाजिक एकता।
माथुर साहब के लेखन में गांधी, नेहरू, माक्र्स, लोहिया के विचारों का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। आप उन्हें किसी धारा से नहीं जोड़ सकते। वे भारतीय परंपराओं और संस्कृति का हवाला देते हुए संकीर्णता की बेड़ियाँ काट आधुनिक दृष्टिकोण अपनाने पर भी जोर देते रहे। वे सभ्यता को अक्षुण्ण रखने के लिए जंगली जिंदादिली को जरूरी मानते थे। वे आदर्श महापुरुषों की पूजा करवाने के बजाय उनके गुणों और विचारों को अपनाने के पक्षधर थे। उनके लेखन में राष्ट्रवाद कूट-कूटकर भरा है, लेकिन भाषा, धर्म, क्षेत्र के आधार वाली कट्टरता कहीं नहीं मिलती।
उन्होंने विदेशी आक्रमण, अकाल, भूकम्प की परिस्थितियों में भी निराशा भरी टिप्पणियाँ नहीं लिखीं। ऐसे नाजुक अवसरों पर भी समाज में आत्मविश्वास पैदा करने का प्रयोग उन्होंने सदा किया। आज 2009 में हम अमेरिकी बाजार से प्रभावित आर्थिक मंदी से विचलित हैं। ऐसा लगता है कि इतनी भयंकर परिस्थितियाँ कभी नहीं थीं। जबकि माथुर साहब के 1965 में लिखे गए लेखों-संपादकीय टिप्पणियों में आर्थिक मायूसी के उल्लेख के साथ इस बात को रेखांकित किया गया कि विकास का रथ भी चलता रहता है। 1965 में लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे। जहाँ जमशेदजी टाटा तक आर्थिक मायूसी पर चिंता व्यक्त कर रहे थे, वहाँ माथुर साहब याद दिला रहे थे-
‘बरौनी में रिफाइनरी शुरू हुई। बोकारो में 15 लाख टन इस्पात बनाने वाला कारखाना तैयार हुआ। मुंबई में परमाणु संयंत्र का उद्घाटन हुआ। ईरान में तेल की खोज के लिए समझौता हुआ।' इन विकास कार्यों के बावजूद एक अंदरूनी खोखलेपन पर उन्होंने प्रहार किए। आज भी इसी तेवर की आवश्यकता है।'
इस समय हम चीन से प्रतियोगिता करते हुए अमेरिका के साथ रिश्ते प्रगाढ़ करते जा रहे हैं। 1962 के युद्ध के कटु अनुभवों के बाद भी अगस्त 1963 में राजेन्द्र माथुर ने अपने लेख में चेताया था- ‘यदि हमें चीन की चालों को सफल नहीं होने देना है, तो अपने समाजवादी औद्योगीकरण को तेजी से आगे बढ़ाएं ताकि प्रतिस्पर्धा में पीछे न रहें, जो चीन और भारत के बीच चल रही है। दूसरे अमेरिका से हथियार लेने के बाद हम यह ध्यान रखें कि अमेरिका का राजनीतिक या आर्थिक प्रभुत्व हम पर हावी न हो जाए और बीजिंग के पंजे से बचने के लिए हम वाशिंगटन के प्यादे न बन जाएँ।'
वास्तव में माथुर साहब समाज के हर व्यक्ति की गरिमा की रक्षा के पक्षधर थे। उनके लेखन में बेहद पैनापन था, लेकिन किसी तरह का पूर्वाग्रह और दुर्भावना का अंश कभी देखने को नहीं मिला। पं. नेहरू को आदर्श मानने के साथ वे स्वयं सच्चे अर्थों में 'डेमोक्रेट' संपादक थे। अपने सहकर्मियों की राय को सुनने तथा लेखन के लिए पूरी स्वतंत्रता देने के साथ ही पाठकों के पत्रों की राय को सम्मान देना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। 'नईदुनिया' और 'नवभारत टाइम्स' में अत्यंत व्यस्त प्रधान संपादक रहकर भी वे पाठकों के अधिकांश पत्र खुद पढ़ते और संपादित करते थे।
वे कहते थे-'यदि देश कहीं दो बुनियादों पर टिका है तो वह राजनेताओं पर कम और न्यायपलिका तथा पत्रकारिता पर ज्यादा टिका है, क्योंकि जब कहीं आशा नहीं रहती तो निराश व्यक्ति या तो अदालत के दरवाजे खटखटाता है और उम्मीद करता है कि अमुक प्रकरण में उसे न्यायालय से न्याय मिलेगा। फिर वह अखबार के दफ्तर में जाता है, जहाँ सबको लगता है कि जहाँगीर के जमाने की घंटी लगी है जिसको यदि बजाएँगे तो एकदम संपादक नामक जहाँगीर आएँगे और न्याय करके ही उसे वापस लौटाएँगे।' इस महती अपेक्षा को पूरी करने के लिए माथुरजी जीवनभर जिम्मेदार पत्रकारिता पर बल देते रहे। यही कारण है कि उनके लेखन में कभी जहर की बूँद नहीं दिखाई दी। वे ऋषि की तरह समाज और राजनीति का आकलन करते रहे।
राजेन्द्र माथुर के 60 के दशक (1963 से 1969) तक के लेखों का महत्व इक्कीसवीं शताब्दी में और बढ़ गया है। समय का रथ चलता रहता है, लेकिन परिस्थितियाँ कभी विकट होती हैं और कभी सुखद। 1991 में उनके निधन के बाद हिन्दी पत्रकारिता में बड़ी रिक्तता आई है। लेकिन उनके जीवन-मूल्यों और पत्रकारिता को आदर्श मानने वालों की संख्या भी बहुत है।
राजेंद्र माथुर रचनात्मक लेखक नहीं थे लेकिन उनके पीछे भी अंग्रेजी और हिंदी साहित्य की गहरी पृष्ठभूमि थी। इन लोगों के लिए समाचार पत्र प्रकाशित-संपादित करना सिर्फ एक प्रोफेशन नहीं था।ये अपने विचार भी देना चाहते थे। अपने विचारों के साथ ही समाचारों को भी देखते थे तो उनके बनाए हुए समाचार या उनके दिशा-निर्देशों में बनाए गए समाचारों में विचारों की गंध होती थी, विश्लेषण होता था, पूरे समाज की समझ होती थी। वे खाली कटे-छँटे समाचार नहीं होते थे कि सिर्फ एक घटना है और उसे दे दिया, ऐसा नहीं होता था और इस मामले में मैं समझता हूँ कि सबसे प्रोफेशनल एटीट्यूड राजेन्द्र माथुर का था, हालाँकि इस मामले में अज्ञेय भी बेहद योग्य और कुशल संपादक थे। उन्होंने भी, जब वे 'नवभारत टाइम्स' के संपादक हुए तो उसे एक नया तेवर दिया, नई तरह की पत्रकारिता दी और संयोग से उसके बाद ही राजेंद्र माथुर आ गए।
- राजेन्द्र यादव
राजेन्द्र माथुर व्यक्ति नहीं विचार थे श्री राजेन्द्र माथुरजी ने कलम के माध्यम से न केवल मध्यप्रदेश अपितु देश की पत्रकारिता को नई दिशा प्रदान की है। श्री माथुर ने नये दौर के पत्रकारों और लेखकों के लिये पत्रकारिता के आदर्शमानदण्ड स्थापित किये हैं। श्री माथुर के द्वारा दिखाये गये मार्ग पत्रकारिता के क्षेत्र में मिल के पत्थर साबित होंगे
- शिवराजसिंह चौहान
राजेन्द्र माथुर ने कभी किसी विचारधारा का अंध समर्थन नहीं किया। उनकी पत्रकारिता विशुद्ध राष्ट्रवाद को समर्पित थी। जड़ता की स्थिति में पहुंचाने वाली विचारधाराओं से उन्होंने सदैव दूरी बनाए रखी। पत्रकार के रूप में विचारधारा एवं पार्टीवाद से ऊपर उठकर वे पत्रकारिता के मिशन में लगे रहे। वर्तमान समय में जब पत्रकार विचारधाराओं के खेमे तलाश रहे हैं, ऐसे वक्त में राजेन्द्र माथुर की याद आना स्वाभाविक है
-रामबहादुर राय
‘‘नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन जाने के बाद वे भविष्य में क्या बनेंगे, इसको लेकर उनके मित्रों में दिलचस्प अटकलबाजियां होती थीं और बात राष्ट्रसंघ एवं केन्द्रीय मंत्रिमंडल तक पहुंचती थी। लेकिन अपने अंतिम दिनों तक राजेन्द्र माथुर ‘एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया‘ जैसी पेशेवर संस्था के काम में ही स्वयं को होमते रहे। राजेन्द्र माथुर जैसे प्रत्येक व्यक्ति के चले जाने के पश्चात ऐसा कहा जाता है कि अब ऐसा शख्स दुबारा दिखाई नहीं देगा। लेकिन आज जब हिंदी तथा भारतीय पत्रकारिता पर निगाह डालते हैं और इस देश के बुद्धिजीवियों के नाम गिनने बैठते हैं तो राजेन्द्र माथुर का स्थान लेता कोई दूसरा नजर नहीं आता। बड़े और चर्चित पत्रकार बहुतेरे हैं, लेकिन राजेन्द्र माथुर जैसी ईमानदारी, प्रतिभा, जानकारी और लेखन किसी और में दिखाई नहीं दी।‘‘
-विष्णु खरे
राजेन्द्र माथुर : भाषा को दिया मुहावरा (अब अखबारों का मालिक पाठक नहीं होता)
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