राकेश दुबे।
पांच राज्यों के चुनावों से बहुत सी नसीहतें निकली हैं। ये नसीहतें भाजपा कांग्रेस के साथ मीडिया के लिए भी है। भाजपा के लिए नसीहत है कि “जनहित” उसके लिए प्राथमिकता होना चाहिए थी, जो नहीं थी।
कांग्रेस के लिए उसे अब उस “गोदी मीडिया” से बचना होगा , वरना उसकी दशा 2019 में भाजपा से बदतर हो जाएगी। मीडिया के लिए “बिना लाग-लपेट” स्वधर्म का पालन। ये नसीहतें देश के परिपक्व होते उस मतदाता की ओर से हैं, जिसका लोकतंत्र में अटूट विश्वास है।
विधानसभा चुनावों के बाद देश की राजनीति ने करवट ले रही है।
केन्द्र में सत्ताधारी पार्टी को 2014 की भारी चुनावी जीत के बाद इतनी बड़ी शिकस्त पहली बार मिली है। वैसे 2014 के बाद कई विधानसभाओं में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था लेकिन उसी के साथ हुए एकाध अन्य चुनाव में विधानसभा की जीत–हार से कोई बड़ा सबक नहीं निकला था।
इस बार निकला है कुछ जाने-पहचाने भाजपा प्रेमी चैनलों ने तो राहुल गांधी की तारीफ़ में कशीदे काढना शुरू कर दिए हैं।
जब उत्तर भारत के तीनों राज्यों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से चुनावी पूर्व तालमेल करने में कांग्रेस नाकाम रही तो भाजपा के नेताओं में खुशी साफ नजर आती थी।
राजस्थान के बारे में तो भारतीय जनता पार्टी आलाकमान को मालूम था कि वहां की मुख्यमंत्री की अलोकप्रियता के चलते राज्य में बुरी तरह से हार होने वाली थी लेकिन मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में जीत के प्रति बीजेपी नेता आश्वस्त थे।
चुनाव प्रचार ने जोर पकड़ा तो जमीनी राजनीति के जानकारों को यह बात समझ में आ गई कि भाजपा हार की ओर बढ़ रही है। इसीलिए मध्यप्रदेश और राजस्थान में वे सारी तरकीबें अपनाईं गईं जिन्हें अपनाकर भाजपा अब तक चुनाव जीतती रही है लेकिन किसी दवा ने काम नहीं किया। इसके विपरीत कांग्रेस को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला।
यदि इन तीनों राज्यों में सपा और बसपा के साथ अगर कांग्रेस चुनाव से पहले मिल गई होती तो भाजपा की निर्णायक हार होती।
मध्यप्रदेश का ही उदाहरण लें, अभी दोनों ही बड़ी पार्टियों के वोट प्रतिशत लगभग बराबर हैं, करीब 41 प्रतिशत लेकिन अगर कांग्रेस के साथ बसपा के 4 प्रतिशत को जोड़ दिया जाय तो आंकड़ा बदलता है।
भाजपा को सोचना चाहिए कि लोकसभा 2019 में इन तीनों पार्टियों में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान,हरियाणा, पंजाब और हिमाचल प्रदेश में सीटों का तालमेल हो गया तो भाजपा उत्तर भारत से साफ हो जायेगी, विपरीत परिस्थिति में कांग्रेस को जोखिम है।
कांग्रेस की नवगठित राज्य सरकारों को वाहवाही की जगह “जनकाज” में लग जाना चाहिए।
चुनाव होने के पहले किसी को भावी संसदीय दल के नेता के रूप में नामित करना संविधान विरुद्ध है और संसदीय लोकतंत्र को कमजोर करने की साजिश कहें तो भी गलत नहीं है।
मोदी हों या राहुल ऐसे प्रयोग तब और घातक होंगे, जब मतदाता संविधान पढ़ने लगा है।संविधान के अनुसार सदन में बहुमत दल के नेता को प्रधानमंत्री बनाने का प्रावधान है। अगर पार्टी पहले से ही किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री घोषित करती है तो वह संविधान सम्मत नहीं है| यह सत्य है।
अब मीडिया जो राजनीतिक बदलाव की आहट की धमक महसूस करते ही अपनी कर्तव्य निष्ठा से विमुख हो रहा है मीडिया का वह हिस्सा जो कल तक भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी का पैरोकार था, वह अब राहुल गांधी को महान नेता बताने के चक्कर में पड़ गया है।
इस चुनाव के बाद मीडिया को भी सबक लेना चाहिए कि उसका कर्तव्य और स्वधर्म पहले से तय है, निष्पक्षता और सत्य उसका सबसे बड़ा हथियार है।
आप किसी को जमीन उठाकर से अर्श पर लाइए लेकिन उनका सही मूल्यांकन अवश्य करिए, उसको खुदा बनाने की कोशिश मत करिए।
मंदिर-मस्जिद, मुस्लिम पाकिस्तान का खतरा आदि विषय नेता चलाते हैं, मीडिया को इनका हथियार बनने से बचना होगा, इसी में राष्ट्रहित है।
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