पुण्य प्रसून बाजपेयी।
जो हालात मीडिया के हैं, जिस तरह की पत्रकारिता हो रही है, उसमें ये सवाल तो जहन में आता ही है कि जब हालात बदलेंगे, तब कौन सी पत्रकारिता होगी। क्या मौजूदा वक्त की पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों की भूमिका 2019 की चुनाव के तर्ज पर जनादेश के साथ बदल जायेगी। ये सवाल उतना ही मौजूं है, जितना मौजूं है 2014 के सपनों का चौथे बरस में फंस जाना।
याद किजिये 2014 में समूचा मिडिल क्लास किस रौ में बह रहा था। किस उम्मीद और आस को पाले हुआ था और देश के भीतर चली गुजरात की हवा एक ऐसे मॉडल के तौर उभर रही थी जिसमें शहर में कारपोरेट के लिये सुनहरी हवा थी। गांव या कहें हाशिये पर पड़े गुजरात के ग्रामीण जीवन के लिये आभासी मॉडल था कि दुनिया शहरों में बदली है तो गांव में भी बदल जायेगी। यही इल्यूजन जब 2014 से 2017 तक देश की हवा में समाया तो पहला लाभ साथ खड़े कारपोरेट को मिला।
लकीर बारीक है पर पहले तीन बजट का लाभ बखूबी उस बाजार इकॉनामी के जरीये सत्ता के करीबियों ने उठाया जो पूंजी से पूंजी बनाने के खेल में माहिर थे। पूंजी देश की, मुनाफा निजी। और इस निजीपन के मुनाफे के दौर ने ही चुनावी राजनीति को महंगा दर महंगा किय। कैसे एक राजनीतिक पार्टी सरकार से बड़ी हो गई। नगालैंड-त्रिपुरा सरीखा छोटा सा राज्य हो या यूपी - गुजरात सरीखा बडा राज्य, चुनाव प्रचार कितना महंगा हुआ, कितना पैसा बहा--बहाया गया, कहां से आ रहा है इतना रुपया और कहां से आता रहा ये रुपया?
कोई राजनीतिक दल ना तो फैक्ट्री चलाता है या ना ही कोई इंडस्ट्री। जिससे उत्पादन हो, माल बिके, मुनाफा हो, और उस पैसे के बूते चुनावी प्रचार-प्रसार में बे-इंतिहा रुपया बहाया जाये। कोई तो होगा जो पूंजी देता होगा। कोई तो होगा जो पूंजी के बदले ज्यादा बडा मुनाफा बनाने की सोच पाले हुआ होगा।
सवाल फिर वही सामने है कि लकीर महीन है इसे समझे। चौथे बजट को ही परख लें, हेल्थ इंश्योरेन्स! पांच लाख के इश्योरेन्स के लिये कम से कम तो पांच हजार रुपये सालाना किश्त तो देनी ही होगी ।
पर ये अगर 50 से 500 रुपये में होने लगे तो कौन सी इंशोरेन्स कंपनी करेगी। हां, अगर कोई पूछने वाला ना हो कि किसे इश्योरेन्स मिला या नहीं तो फिर कोई भी कंपनी करने को तैयार होगी। तो किस कंपनी को देश के 50 करोड लोगों के हेल्थ इंशोरेन्स का पैसा मिला। इस खबर का इंतजार अभी करना होगा। क्योंकि कम से कम 2 अक्टूबर से लागू होने के बाद अक्टूबर 2019 तक तो रुकना ही होगा। उसी के बाद पता चलेगा किस कंपनी को कितना लाभ इंशोरेन्स से हो गया।
जैसे फसल बीमा की रकम किसान तक पहुंचती नहीं। पहुंचती है तो वह बीस फिसदी से कम होती है। बाकि 80 फिसदी रकम किस कंपनी ने किसानों को दिया नहीं । उसका कच्चा-चिट्टा धीरे—धीरे छोटे—छोटे आंकडों के साथ आ तो रहा है और मैगजीन " डाउन टू अर्थ " धीरे धीरे आंकडे उभार भी रही है, पर मुश्किल ये नहीं है कि लूट कितनी हो रही है, कैसे हो रही है।
मुश्किल तो ये है कि इकॉनामी ने जो रास्ता पकड लिया है उसमें करप्शन पकडने वाली तमाम एंजेसिया ही उस इकॉनामी से जुड गई है जो इकॉनामी करप्शन होने देने पर अंगुली उठाये तो अंगुली उठाने वाले की इकॉनामी डगमगायेगी और खामोश रहे तो संस्धान डगमगायेगें।
यानी सवाल इतना भर नहीं है कि मीडिया सस्थानों को कैसे जकड़ा जा रहा है या जकड़ा गया है। बल्कि नये परिवेश में मीडिया संस्धानों के भीतर होने वाली पत्रकारिता भी उसी हवा की कायल हो चली है जिस हवा को सियासत बहा रही है। क्योंकि हवा का रुख जब सरोकार की राजनीति के लिये अंत्योदय की बात करें और सरोकार से कटकर सेन्ट्रल एसी से अभीभूत होकर किसी कारपोरेट को भी मात देने वाले दफ्तर से बेहतर पार्टी दफ्तर खोल कर उर्जावान हो चला हो, तब ये सवाल पत्रकारिता कैसे उठायेगी कि खर्च कौन उठा रहा है। खर्च कौन उठायेगा?
लुटियन्स की दिल्ली पर तो राष्ट्रकवि रानधारी सिंह दिनकर ने भी ये कहकर सवाल उठाये थे कि "भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में। / दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में। " पर दिनकर के जहन में भी संसद थी। सांसदों के गैर सरोकार थे। पर अब तो संसद से बड़े राजनीतिक दल हो चले है, उनके खर्चे हो चले है। उन्हे भोगने वाले हो चले हैं।
तो कौन सी इकॉनामी किस तरह विकास-दर के सारे मापदंड को खारिज करते हुये बीपीएल शब्द भी बोल लेती है और दीन दयाल उपाध्याय के समाज के आखरी व्यक्ति तक पहुंचने की थ्योरी को भी जिन्दा रख लेती है। ये समझ हिन्दुस्तान में कब कैसे विकसित हो गई इसका पाठ पत्रकार अब कहां पढ़ेगा और कैसे पत्रकारिता करेगा जब मुनाफे की थ्योरी राजनीतिक सत्ता के आसरे जा टिकी हो।
संस्धानों ने काम करना बंद तो नहीं किया उल्टे ज्यादा तेजी से करने लगे कि जो उपर सोचा जा रहा है उसी सोच को बरकरार रखा जाये। यानी एक ही तरह की सोच के साथ समूचे देश को हांकने का जब प्रयास हो रहा हो तब देश एक सूत्र में कैसे पिरोया जायेगा। इस सोच के आसरे शिक्षा में भी बदलाव होगा। तो सवाल सिर्फ भविष्य में पत्रकार खोजने भर का नहीं है बल्कि छात्रों को भी खोजना होगा, जो क्रिटिकल हों, जो सवाल-जवाब कर सकते हों।
मसलन देश के चार-पांच प्रमुख यूनिवर्सिटी को लेकर कोई कुछ कह तो नहीं रहा है लेकिन जो कालेज चलाते हैं। जो यूनिवर्सिटी को करीब से देख समझ रहे हैं, इनसे मिल कर हवा के रुख को को तो पढ़ा ही जा सकता है। जेएनयू, डीयू, बीएचयू, एयू सरीखे यूनिवर्सटी का बजट कम कर दिया गया है। जिससे कालेज खुद वहां का प्रबंधन चलाये, वही व्यवस्था करें कि कैसे कमाई होगी।
हो सकता है अगली खेप में यूनिवर्सिटी भी कारपोरेट के हिस्से में चली जाये । फिर वहीं कोर्स भी तय करें और जिस तरह किसानो को कहा जाता है कि सिर्फ नकदी फसल वह क्यो नहीं उपजाते है।
तो कोर्स भी मार्केट इकॉनामी को देख कर होनी। इस कतार में इतिहास या राजनीतिशास्त्र य़ा फिर हिन्दी साहित्य कहां मायने रखेगा। जो छात्र यूनिवर्सिटी में पढेगें उन्हे रोजगार अनुरुप पढाया जाये। सरकार को यूनिवर्सिटी को कुछ बजट देने के बदले टैक्स के तौर पर यूनिवर्सिटी चलाने वाले कारपोरेट ही कुछ देने लगेंगे। तो आने वाले दौर में यूनिवर्सटी से ना तो शरद यादव , रविशंकर प्रसाद , लालू यादव या नीतिश कुमार सरीखे नेता निकलेंगे, ना ही कन्हैया कुमार या शाइला रशीद सरीखे छात्र सवाल करते दिखायी देंगे। लकीर को वाकई बारीक है।
हालात परखें तो बीते हफ्ते दिल्ली में दो दिन का रोजगार मेला रहा । 10 से 15 हजार रुपये की महीने की नौकरी और 10 से 12 वीं की पढ़ाई से आगे बात कहा गई । रेलवे में भी भर्तियां निकली पर न्यूनतम शिक्षा वहीं 10 से 12 वी पास । तो क्या जिस देश में हर बरस पांच लाख से ज्यादा छात्र जो उच्च शिक्षा के लिये देश छोड कर बहार जा रहे है । उनकी कतार और बडी होगी । बीते तीन बरस में जिस तरह 18 हजार रईसों ने देश छोड दिया उनकी कतार भी आने वाले वक्त के साथ और बडी होगी ।
ये ऐसे सवाल है जिसके अक्स में कभी माल्या तो कभी नीरव मोदी के सवाल उलझायेंगे ही । पर इन हालातों के बीच कौन सी पत्रकारिता की जाये? हिन्दु-मुस्लिम, कश्मीर-पाकिस्तान, शहीद-देशभक्ति सरीखे सवाल उलझायेंगे जरुर और नये हालात में पत्रकार को भी 12 वी पास से ज्यादा पढ़ाई की जरुरत क्या है।
थियेटर की समझ, चंद मिनटो का वन-एक्ट-प्ले, कैमरे के सामने अकेले हो कर भी भावनाओं का उभार। मदारी की तर्ज पर मुद्दों को परिभाषित करने की क्षमता से आगे पत्रकारिता कहां जायेगी, और जब संसद से सडक तक एक सूत्र में पिरोकर एक सरीखे लोगो का ही समाज बनाने की सोच होगी तो फिर क्रिटिकल होकर आप सोचेगें कैसे? पर समझना तो होगा कि अगर हिन्दुत्व धर्म नहीं जीवन जीने का तरीका है तो फिर वह मुस्लिम धर्म से कब तक टकरायेगा । और एक वक्त के बाद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कैसे-कहा टिकेगा।
क्या मौजूदा हालात में ये कहा जा सकता है कि देश कहीं फंस सा गया है, क्योकि चुनावी अक्स में सत्ता परिवर्तन को तो वोटरो के मिजाज से हर कोई देख समझ रहा है। पर चौथे बरस के बजट के बाद जब इकानामी पहले तीन बरस की अच्छाइयो को निगल लेने पर आमादा हो । और ग्रामिण जीवन के विकास के नाम पर लूट या दस्तावेजी विकास होने लगा हो तो फिर बचेगा क्या। हालात संभालने के लिये सिर्फ नेता परिवर्तन या सत्ता परिवर्तन से काम तो चलेगा नहीं। सुप्रीम कोर्ट में संविधान की व्याख्या करने के लिये लायक जज चाहिये ही होगें।
यूनिव्रसिटी में समझदार प्रोफेसरो की जरुरत होगी ही। सिस्टम को पटरी पर लाने के लिये इमानदार नौकरशाह की जरुक होगी है। और इन हालातो को बताने के लिये पत्रकारों की जरुर होगी ही। और अगर ये भी ना होगें तब क्या होगा। इसे सिर्फ सोचिये...महसूस किजिये। क्योंकि 2019 का चुनाव देश का सच नहीं है बल्कि 2019 से पहले की शून्यता देश का सच है।
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