मल्हार मीडिया ब्यूरो।
अभिव्यक्ति की आजादी सर्वोपरि है लेकिन इसका मनमाना प्रयोग भी नहीं किया जा सकता। खासकर मीडिया के संबंध में। इसकी आड़ लेकर मीडिया किसी व्यक्ति की गरिमा, प्रतिष्ठा और गोपनीयता के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं कर सकता। इस तरह की टिप्पणियां न्यायालय की तरफ से मीडिया के लिए हमेशा सलाह, सीख के तौर पर सामने आती रही हैं।
अब केरल हाईकोर्ट ने एक मामले में मीडिया को लेकर ऐसी ही टिप्पणी की है। हाईकोर्ट ने कहा कि मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी को किसी नागरिक की गरिमा, प्रतिष्ठा और गोपनीयता के अधिकार से ज्यादा तवज्जो नहीं दी जा सकती, खासकर आपराधिक मामलों की रिपोर्टिंग करते समय। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, अदालत का कहना है कि केवल एक निर्णायक प्राधिकारी ही प्रतिवादी के अपराध या निर्दोष होने की घोषणा कर सकता है।
पांच न्यायाधीशों की एक बेंच ने अपने फैसले में कहा कि मीडिया खुद ही जांच एजेंसियों, अदालतों और निर्णायकों की भूमिका नहीं निभा सकती और जांच पूरी होने से पहले फैसला नहीं दे सकती।
69 पन्नों के फैसले को पांच न्यायाधीशों, जिसमें जस्टिस एके जयशंकरन नांबियार, कौसर एडप्पागथ, मोहम्मद नियास सीपी, सीएस सुधा और श्याम कुमार वीएम ने लिखा। उन्होंने कहा कि मीडिया की स्वतंत्रता न्याय प्रणाली के साथ हस्तक्षेप करने का लाइसेंस नहीं है।
साथ ही अदालत ने कहा कि मीडिया को नियंत्रित करने के लिए हर मामलेके आधार पर अलग से विचार किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, "न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता और अभियुक्तों के अधिकारों की रक्षा के लिए आपराधिक अदालती सुनवाई के दौरान मीडिया रिपोर्टिंग पर प्रतिबंध की अनुमति दी जा सकती है।"
उन्होंने कहा, हालांकि, मीडिया को बोलने का अधिकार है और अभिव्यक्ति मौलिक अधिकारों के लिए आवश्यक है, लेकिन किसी आपराधिक मामले में किसी आरोपी के अपराधी या निर्दोष होने को लेकर मीडिया द्वारा की गई कोई भी टिप्पणी संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत मिले अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत भी सुरक्षित नहीं मानी जा सकती।
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