राकेश दुबे।
अब देश में आर टी आई के माध्यम से जानकारी लेना जानलेवा होता जा रहा है। आर टी आई से सूचना प्राप्त करने वालों में ज्यादा संख्या पत्रकारों की होती है। वैसे तो यह अधिकार हर भारतीय के लिए सुलभ है, पर इसका अधिकार का प्रयोग पत्रकार और उनसे ज्यादा आर टी आई एक्टिविस्ट करते है।
मध्य प्रदेश के मुरैना शहर में एक आरटीआई ऐक्टिविस्ट मुकेश दुबे को पीट-पीट कर मार डाला गया,इस मामले में गिरफ्तारी दूर पूछताछ तक नहीं हुई। इससे पहले रविवार को केरल के वर्काला कस्बे में पत्रकार संजीव गोपालन को कथित तौर पर पुलिस वालों ने न केवल पीटा बल्कि पत्नी और बेटी के सामने उनके कपड़े उतार दिए।
जनहित से जुड़ी सूचनाएं जनता तक पहुंचाने के काम में लगे इन दोनों तरह के लोगों पर हमले इधर कुछ ज्यादा ही बढ़ गए हैं। पत्रकार तो लंबे समय से पेशागत चुनौतियों का सामना करते आ रहे हैं, मगर अब आरटीआई ऐक्टिविस्ट भी लगातार हमले का शिकार होने लगे हैं। दुःख की बात यह है कि सूचना के अधिकार को कानून मानने वाली सरकारें भी हमेशा उन लोगों के साथ जाकर खड़ी हो जाती हैं, सूचना को छिपाने में जिनके हित जुड़े होते हैं। आर टी आई से जानकारी मांगने पर जानकारी बाद में आती है, पहले धमकी आती हैं।
मध्यप्रदेश में इन दिनों यह चलन कुछ ज्यादा बड़ा हो गया है। कागज पर सरकार आर टी आई के तहत सूचना को जन अधिकार बताती है और सबसे ज्यादा जानकारी सरकार ही छिपाती है।
सूचना का अधिकार एक दशक पहले लोगों को मिला ऐसा पहला बड़ा अधिकार था जिसने सही मायनों में प्रशासनिक तंत्र में जनता का खौफ पैदा किया है। सरकारी अमला इसको लेकर अभी तक सहज नहीं हो पाया, उसे तो छिपाने का प्रशिक्षण जो मिला होता है। शुरू में उसने सूचना के अधिकार को गंभीरता से लिया था, अब तो सूचना के बदले धमकी और हत्या तक बात जा पहुंची है।
सूचनाएं जब सचमुच दी जा रही थीं और लूटतंत्र पर इसका असर भी देखा जा रहा था। इसके चलते पिछली यूपीए सरकार में भी यह सवाल उठने लगा था कि ऐसी दबाव की स्थिति में आखिर काम कैसे होगा?
अफसर निर्णय कैसे लेंगे, जब उन्हें यह डर सताता रहेगा कि कल को उनका फैसला उनके सिर पर तलवार बनकर गिर सकता है? जरूरत इस सवाल का ऐसा जवाब तलाशने की थी जिससे सूचना का अधिकार और ज्यादा प्रभावी हो। साथ ही सरकारी अमले की जायज चिंता भी दूर हो लेकिन सरकार बदलने के बाद न केवल तंत्र के अंदर सूचनाओं की मांग को टरकाने की प्रवृत्ति तेज हुई बल्कि सूचनाएं निकलवाने और उन्हें लोगों तक ले जाने के काम में लगे लोगों को डराने-धमकाने और उन्हें हतोत्साहित करने की हरकतें बहुत ज्यादा बढ़ गईं।
इस क्रम में पत्रकार और आरटीआई ऐक्टिविस्ट अधिकाधिक असुरक्षित होते गए। पत्रकारों व ऐक्टिविस्टों की सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकारों की जिम्मेदारी है लेकिन इसमें लगे लोगों को भी समझना होगा कि जनहित का काम जन भागीदारी के बिना संभव नहीं है।
ऐसे मामलों में सरकार संरक्षक की भूमिका में चाहकर भी नहीं आ सकती, सरकार के चहेते सबसे पहले इसकी जद में आते हैं। इक्का दुक्के मामलों में इस अधिकार के दुरूपयोग की बात भी सामने आईं हैं। ऐसे में जनता का समर्थन ही ऐसे योद्धाओं की ढाल बन सकता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और प्रतिदिन पत्रिका के संपादक हैं।
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