राकेश कायस्थ।
जुलाई 2014 का महीना था। टीवी पर कॉमेडी शो लाफ्टर चैलेंज चल रहा था। व्हील चेयर पर आये कॉमेडियन बच्चे जय चिनियारा ने चुटकुला सुनाया—देश अब एसएमएस के सहारे चल रहा है।
“एसएमएस बोले तो सरदार मनमोहन सिंह।“
जज बने नवजोत सिंह सिद्धू उछले-“वाह गुरु छा गये.. ठोको ताली।“
लेकिन मनमोहन पर बनने वाले किसी भी चुटकुले पर तालियां उस तरह नहीं बजीं जैसी अटल बिहारी वाजपेयी पर बजती थीं। ना वीर रस, ना हास्य, ना श्रृंगार। मनमोहन में कोई रस नहीं था जबकि उनके पहले के पीएम रसरंग से भरे थे। कुछ चैनलों ने अपने कॉमेडी शोज़ में मनमोहन सिंह को कैरेक्टर बनाकर सरदारों वाले चुटकुले फिट करने की कोशिश की लेकिन ये आइडिया भी पिट गया।
अटल युग में ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग के चैंपियन अरुण जेटली भी थे, जो अपनी ही पार्टी के नेताओं के बारे में स्कैंडल से भरी खबरें देकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की रोजी-रोटी चलाते आये थे। लेकिन अब कुर्सी पर इतिहास का सबसे `बोरिंग’ प्रधानमंत्री बैठा था। वह फिस्कल डेफिसिट, इकॉनमिक इनक्लूजन और रुरल एंपावरमेंट जैसे भारी-भरकम जुमले इस्तेमाल करता था, जो चैनलों के दफ्तरों में ज्यादातर लोगों की समझ में नहीं आता था। समझ में आ भी जाये तो उनके किसी काम का नहीं था।
राजनीतिक खबरों को अचानक लकवा मार गया और बड़े-बड़े संपादक संज्ञा शून्य हो गये। ऐसे में न्यूज़ रूम में एक बड़ी क्रांति ने आकार लेना शुरू किया जिससे आगे चलकर भारत का भाग्य लिखा जानेवाला था। इस क्रांति की शुरुआत `इंडिया आइडल’ और `फेम गुरुकुल’ जैसे टीवी शोज के प्राइम टाइम हेडलाइन बनने से हुई और फिर `बिना ड्राइवर की कार’ `किले का रहस्य’ `गड्डे में प्रिंस’ और `चुड़ैल का बदला’ तक पहुंची।
न्यूज चैनलों के यशस्वी मालिक और सुधी संपादकों ने सरकार को कड़ा संदेश दिया कि अगर राजनीति मनोरंजन पैदा नहीं करेगी तो हम अपना मनोरंजन खुद मैन्युफैक्चर कर लेंगे। सूचना जगत का वो `मेक इन इंडिया मोमेंट’ था। क्लीवेज दिखाती और द्विअर्थीय संवादों के साथ क्राइम शो पेश करती एंकर की एंट्री हुई और ग्लैमरस हीरोइनों के इंटरव्यू चलाते वक्त न्यूज टिकर हटाये जाने लगे ताकि सबकुछ साफ-साफ दिखाई दे सके।
उधर बोरिंग प्रधानमंत्री चुपचाप अपना काम कर रहे थे। इकॉनमी आठ प्रतिशत की वास्तविक दर से आगे बढ़ रही थी। मिडिल क्लास मारुति-800 से वैगन आर और सेंट्रों की तरफ अग्रसर था, तो गाँव-कस्बों के ब्लैक एंड व्हाइट टीवी सेट रंगीन टीवी से रिप्लेस हो रहे थे। किराये के घर में रहने वाले सारे पत्रकारों ने बैकिंग बूम से पैदा हुई लोन क्रांति का फायदा उठाकर नोएडा, गाजियाबाद और फरीदाबाद में अपने घर खरीद लिये थे।
एक विशाल उपभोक्ता वर्ग तैयार हो रहा था और इसका सीधा फायदा न्यूज चैनलों को मिल रहा था। तीस मिनट के प्राइम टाइम स्लॉट में इतने एड थे कि पत्रकारों को सिर्फ 12-14 मिनट का कंटेट बनाना पड़ता था, बाकी सारा विज्ञापन। संपादक इस चमत्कार को अपना कौशल मान रहे थे और पत्रकारों के लिए सबसे अच्छा संपादक वही था, जो सबसे ज्यादा इंक्रीमेंट दिलवा दे।
किसी को पता नहीं था कि न्यूज चैनल चुपचाप `नये भारत’ की गाथा लिखने में जुटे हैं। सोशल मीडिया नहीं था। ऐसे में सूचना और मनोरंजन दोनों का बड़ा जरिया न्यूज चैनल ही थे और चैनल खुरच-खुरचकर जनता की राजनीतिक स्मृतियां मिटाने में जुटे थे।
सोचता हूं तो लगता है कि मनमोहन सिंह नई आर्थिक क्रांति की पटकथा लिखते वक्त इस पर ज्यादा विचार नहीं कर पाये कि अचानक मध्यवर्ग के हाथ में बहुत सारा पैसा आएगा, तो वह किस तरह रियेक्ट करेगा? क्या आर्थिक समृद्धि जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उसी अनुपात में शिक्षा और चेतना का स्तर भी बढ़ रहा है?
अल्पमत की सरकार के प्रधानंत्री पर सारा दोष मढ़ना बेकार है। मुझे याद है कि प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने सामाजिक बदलावों पर कई बार चिंता जताई थी। एक बार मनमोहन ने ये कहा था कि इस देश में तनख्वाह समान रफ्तार से नहीं बढ़ रही है और इससे आगे चलकर समाज में असमानता पैदा हो सकती है। इस बयान को ज्यादातर न्यूज चैनलों के संपादकों ने बहुत पर्सनली लिया था।
उस दिन के प्राइम शो में ज्यादातर चैनलों ने तबियत से सरकार की पुंगी बजाई और उसे बताया कि हमारे पैसे मेहनत हैं, हम नेताओं और अफसरों की तरह कमाई नहीं करते हैं। अगर सैलरी बढ़ रही है तो प्रधानमंत्री की छाती पर सांप क्यों लोट रहा है। ऐसी ही एक खबर आई थी जब अमेरिका राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा था कि तीसरी दुनिया में मध्यमवर्ग के उदय से जो उपभोग बढ़ा है, उससे अमेरिका में अनाज महंगे हो रहे हैं। इस पर भी संपादकगण टूट बड़े थे और शो बने थे ‘अमेरिका ने हमें भुक्खड़ कहा!‘ और `बदत्तमीजी बंद करो बुश!’ आदि-इत्यादि।
कहने का मतलब यह कि संपादकीय विवेक का परिष्कार यूपीए वन के दौर में हो चुका था। सारे न्यूज चैनल एक प्रॉफिट मेकिंग वेंचर थे। उनपर होम मैन्युफैक्चर्ड एंटरटेनमेंट चलता था और `बोरिंग प्रधानमंत्री’ का चेहरा कोई नहीं दिखाता था। सरकार ने कहा- `न्यूज चैनल का लाइसेंस लेकर रात-दिन भूत-प्रेत दिखाना और अंधविश्वास फैलाना गलत है। इस पर लगाम लगाने के लिए हमें कुछ करना होगा।‘
न्यू इंडिया की तामीर करने में जुटे मालिक-संपादकों को ये बात पसंद नहीं आई। उन्होंने कहा-इस तरह तो आप हम पर सेंसरशिप लगा दें। हम अपनी संस्था बनाएंगे और सेल्फ सेंसरशिप लागू करेंगे। मनमोहन सरकार ने कहा ठीक यही कर लीजिये। उसके बाद क्या हुआ वो दास्तान थोड़ा रुककर फिलहाल आगे की कहानी।
पांच साल में हुई जबरदस्त आर्थिक तरक्की और मनरेगा जैसी योजनाओं के बूते ग्रामीण अर्थव्यवस्था के कायाकल्प ने यूपीए को 2009 चुनाव आसानी से जिता दिया। लेकिन चुनावी जीत से बोरिंग प्रधानमंत्री एंटरटेनिंग तो नहीं सकता था। ऐसे में न्यूज चैनलों पर स्व-निर्मित एंटरटेनमेंट कंटेट बढ़ता गया और पिछली राजनीतिक स्मृतियां जनता के दिमाग से छह-सात साल में पूरी तरह मिट गईं।
इसी बीच सोशल मीडिया आया। दुनिया में कई हुकूमतें फेसबुक के बूते उखाड़ी गईं। अरब स्प्रिंग हुआ तो अन्ना ने दिल्ली में गन्ना बोया। रणनीति अजित डोभाल ने बनाई, बाबा रामदेव शामिल हुए, पूरा संघ परिवार जुटा और न्यूज चैनलों पर बरसों बाद राजनीतिक खबरों की हरियाली लौट आई।
बाँझ गाय गाभिन हो गई और फिर से दूध देने लगी। चैनलों पर अन्ना गाँधी बना दिये गये केजरीवाल कारागर में पैदा हुए कृष्ण। दुनिया को पहली बार लगा कि कुर्सी पर बैठा ये आदमी तो सचमुच `मौन मोहन’ है, इतने साल से कुछ बोला ही नहीं। अगर बोलता तो टीवी वाले नहीं दिखाते क्या?
भारत में नये आये फेसबुक और व्हाट्स अप ने देश की जनता को ये बताना शुरू किया कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने राज्य को सिंगापुर बना दिया है और मौका दिया गया तो पूरे भारत को बना देंगे। मुझे एक व्हाट्स एप फारवर्ड अब भी याद है जिसमें ये दावा किया गया था कि हर शनिवार और रविवार मुख्यमंत्री मोदी वक्त निकालकर आईआईटी की तैयारी कर रहे बच्चों को अपने घर में गणित बढ़ाते हैं।
फिर क्या था, पूरे देश ने मोदी से गणित बढ़ने का संकल्प ले लिया। `मौन मोहन’ मौन की चादर ओढ़कर चले गये। दस साल से राजनीतिक खबरों से महरूम लोगों की आँखें न्यूज चैनलों ने खोल दी। बोधित्व प्राप्त करने वालों में ज्यादातर नौजवान थे और सबने ध्वनि मत से मान लिया कि भारत सचमुच 2014 में बना है।
`सेंसरशिप मेरी लाश पर आएगा’ टाइप भंगिमा अख्तियार करने वाले कुछ संपादक रिटायर हो गये, कुछ निकाल दिये गये, कुछ ने सेल्फ सेंसरशिप के लिए बनाई गई अपनी ही संस्था की गाइड लाइन मानने से इनकार कर दिया। कुछ जेल से निकलकर प्राइम टाइम की कुर्सी पर आ बैठे और जो बाकी बचे वो खुशी-खुशी अमित मालवीय की डाँट को चरणामृत मानकर ग्रहण करने लगे।
कुल मिलाकर कहानी का हैप्पी एंडिंग क्लाइमेक्स ये है कि मौन मोहन के जाते ही इस देश में सबकुछ ठीक हो गया। एक बोरिंग प्रधानमंत्री के कार्यकाल से न्यू इंडिया बनने तक की यह कथा अगर आपको पसंद आये तो मित्रों को जरूर पढ़ायें।
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