डॉ. प्रकाश हिंदुस्तानी।
संजीव भट्ट को आजीवन कारावास की सजा पर सोशल मीडिया भी बंट गया है। एक वर्ग ने तो इस पर खुशी जाहिर की है और दूसरा वर्ग सन्न है और इसे षड्यंत्र करार दे रहा है। किसी आईपीएस को आजीवन कारावास होना कोई साधारण घटना नहीं है।
गुजरात के जामनगर की अदालत ने बर्खास्त आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट और उनके सहयोगी को हिरासत में मौत के एक पुराने मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई है।
मामला 1990 का है, तब संजीव भट्ट जामनगर के एएसपी थे। जामनगर में भारत बंद के दौरान व्यापक हिंसा हुई थी और पुलिस ने 133 लोगों को गिरफ्तार किया था।
शिकायत के अनुसार इन लोगों के साथ हिरासत में मारपीट की गई, जिसमें 25 लोग घायल हुए थे और उनमें से 8 लोगों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।
इसी दौरान एक आरोपी प्रभुदास माधवजी वैश्वानी की मृत्यु हो गई थी। संजीव भट्ट और उनके साथियों पर पुलिस हिरासत में मारपीट का मामला चला। मुकदमा भी दर्ज किया गया, लेकिन गुजरात सरकार ने इस मामले में भट्ट के खिलाफ ट्रायल की अनुमति नहीं दी थी।
सन 2011 में गुजरात सरकार ने संजीव भट्ट के खिलाफ ट्रायल की अनुमति दी। हिरासत में मौत का मामला फिर से पड़ताल में आया। मामले की कार्यवाही के दौरान संजीव भट्ट ने गुजरात हाईकोर्ट में अपील की कि हिरासत में मौत के मामले में कुछ और गवाहों को बुलाने की अनुमति दी जाए, लेकिन हाईकोर्ट ने इसकी अनुमति नहीं दी।
संजीव भट्ट की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में भी याचिका लगाई गई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर इनकार करने से मना कर दिया। गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया था कि जामनगर की कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई पूरी कर दी है और फैसला 20 जून तक के लिए सुरक्षित रखा गया है।
न्यायमूर्ति इंदिरा बेनर्जी और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी ने गुजरात सरकार और अभियोजन पक्ष की दलील को माना कि सभी गवाहों की पेशी हो चुकी है, अब दोबारा मुकदमे पर सुनवाई करना और कुछ नहीं, बल्कि उसे देर करने की रणनीति है।
संजीव भट्ट पर आरोप लगे कि वे बिना किसी स्वीकृति के कार्यालय में अनुपस्थित रहे और उन्होंने अपने आवंटित सरकारी वाहन का भी दुरुपयोग किया। 2011 में संजीव भट्ट को निलंबित किया गया था और 2015 में बर्खास्त।
संजीव भट्ट को आजीवन कारावास की घोषणा के बाद सोशल मीडिया पर हजारों प्रतिक्रियाएं पोस्ट की गई। लोगों ने लिखा कि यह नरेन्द्र मोदी सरकार से प्रभावित होकर किया गया फैसला है, क्योंकि 1990 में जामनगर में सांप्रदायिक दंगा हुआ था, उसके बाद 2002 के दंगों में संजीव भट्ट ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी (वर्तमान प्रधानमंत्री) के खिलाफ शपथ पत्र दिया था, लेकिन 2011 तक संजीव भट्ट के खिलाफ कोई विशेष कार्रवाई नहीं की गई।
2011 में संजीव भट्ट को निलंबित कर दिया गया और आरोप लगाया कि उन्होंने सरकारी वाहन और सरकारी आवास का दुरुपयोग किया तथा बगैर अनुमति के ड्यूटी पर गैरहाजिर रहे। अगस्त 2015 में संजीव भट्ट को बर्खास्त कर दिया गया, तब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे।
संजीव भट्ट पर आरोप लगाया गया कि वे अपराधिक छवि वाले पुलिस अधिकारी थे और उनके अधिकारी रहते पुलिस हिरासत में कई मासूम लोगों की निर्मम हत्या की गई।
संजीव भट्ट ने 27 फरवरी 2002 की शाम मुख्यमंत्री के निवास पर हुई एक बैठक के बारे में हलफनामा दाखिल किया था और कहा था कि जब गोधरा में दंगे हो रहे थे, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कथित रूप से पुलिस और प्रशासन के अफसरों को इशारा किया था कि वे दंगा रोकने की कोशिश न करें और हिन्दुओं को अपना गुस्सा उतारने दें।
न्यायालय में संजीव भट्ट के मामले कांग्रेस के नेता और वरिष्ठ अभिभाषक सलमान खुर्शीद ने लड़े। संजीव भट्ट को इसी आधार पर कांग्रेस समर्थक करार दिया गया। संजीव भट्ट की पत्नी श्वेता भट्ट ने 2011 में कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली थी और यहां तक कि 2012 में उन्होंने मणिनगर विधानसभा सीट से नामांकन पत्र भी जमा किया था।
संजीव भट्ट कई एनजीओ से भी जुड़े हुए थे और कई राजनैतिक दलों के नेताओं से उनके जीवंत संपर्क रहे है। आईआईटी मुंबई में पढ़ाई करने वाले संजीव भट्ट ने भारतीय पुलिस सेवा 1988 में प्रारंभ की और 1990 में उन्हें गुजरात कैडर दिया गया।
जिस 1990 के मामले में जामनगर न्यायालय ने सजा सुनाई है, उस मामले की शिकायत हिरासत में मरने वाले युवक के भाई ने की थी।
एक अन्य व्यक्ति विजय सिंह भट्टी ने भी संजीव भट्ट पर हिरासत में यातना देने की शिकायत की थी, लेकिन आईपीएस अधिकारी होने के नाते संजीव भट्ट के खिलाफ कोर्ट में ट्रायल शुरू नहीं हो सका था।
संजीव भट्ट ने अपने शपथ पत्र में नरेन्द्र मोदी की जिन बातों की शिकायत की थी। नरेन्द्र मोदी उसका खंडन कर चुके है और जिस बैठक का हवाला संजीव भट्ट ने दिया। उस बैठक में हुई वार्तालाप की रिकॉर्डिंग भी अल्पसंख्यक आयोग को सौंपी जा चुकी है। यह पाया गया कि रिकॉर्डिंग और संजीव भट्ट के हलफनामे में कोई तालमेल नहीं था।
2003 में संजीव भट्ट को साबरमति सेंट्रल जेल का अधीक्षक बनाया गया। वहां उन्होंने कैदियों के लिए कई फैसले लिए। कैदियों को भोजन में गाजर का हलवा जैसी मिठाई भी दी जाने लगी।
गुजरात सरकार ने पाया कि संजीव भट्ट कैदियों से बहुत ज्यादा आत्मीय हो गए है, इसलिए दो महीने में ही उनका ट्रांसफर कर दिया गया। उनके ट्रांसफर के बाद जेल के करीब 4 हजार कैदियों ने भूख हड़ताल भी की थी।
2007 में संजीव भट्ट की 1988 की आईपीएस बैच के अधिकारी आईजी बन गए, लेकिन संजीव भट्ट का प्रमोशन नहीं किया गया। उनके खिलाफ चल रही तमाम आपराधिक प्रकरणों और विभागीय जांच के चलते वे एसपी ही बने रहे।
14 अप्रैल 2011 को गुजरात दंगों के 9 साल बाद भट्ट जाग्रत हुए और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक शपथ पत्र जमा करके कहा कि 2002 के दंगों के वक्त पुलिस और प्रशासन को अपना काम नहीं करने दिया गया, ताकि हिन्दू समुदाय के लोग गोदरा कांड का बदला ले सकें।
अपने शपथ पत्र में संजीव भट्ट के 6 गवाहों का हवाला दिया था। बाद में न्यायालय में रखे गए सबूतों के अनुसार संजीव भट्ट अपनी सरकारी कार का उपयोग गुजरात कांग्रेस के नेता के यहां आने-जाने के लिए करते थे, जब उनके ड्राइवर ने इसकी शिकायत की, तो संजीव भट्ट ने उसे जान से मारने की धमकी दी थी।
गुजरात दंगों की जांच के लिए विशेष जांच टीम गठित की गई थी। जिसके प्रमुख आर.के. राघवन थे। उस समिति के खिलाफ भी संजीव भट्ट ने कई आरोप लगाए थे। बाद में जांच में वे झूठे पाए गए। 2011 में संजीव भट्ट ने विशेष जांच टीम के खिलाफ ही मोर्चा खोल लिया था और यह आरोप लगाया था कि उसने ठीक से काम नहीं किया।
गुजरात के एडवोकेट जनरल तुषार मेहता कभी संजीव भट्ट के मित्र हुआ करते थे। उनकी दोस्ती को लेकर भी सोशल मीडिया पर बहुत से कमेंट लिखे गए है।
2011 में संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल दाखिल की, जिसमें मांग की गई थी कि 2002 में हुए गुजरात दंगों की जांच के सभी मामले गुजरात के बाहर किसी न्यायालय में ट्रांसफर किए जाए, क्योंकि गुजरात में होने वाली जांच प्रभावित हो रही है।
13 अक्टूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एच.एल. दत्तू और न्यायमूर्ति अरूण मिश्रा ने एसआईटी के खिलाफ लगाए गए संजीव भट्ट के मामलों को आधारहीन करार दिया।
संजीव भट्ट ने वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह के खिलाफ भी शपथ पत्र दिया था। यह शपथ पत्र साबरमति जेल में बंद एक व्यक्ति द्वारा हरेन पंड्या हत्याकांड से जुड़ा था। न्यायालय ने उसे भी नहीं माना। 30 सितंबर 2011 को जब संजीव भट्ट को गिरफ्तार किया गया, तब उन पर आरोप था कि वे हिरासत में मौत के मामले के गवाहों को प्रभावित कर सकते है, लेकिन संजीव भट्ट और उनके समर्थकों ने कहा कि संजीव भट्ट से बदला लिया जा रहा है।
18 दिन बाद ही संजीव भट्ट को अहमदाबाद के न्यायालय में जमानत मिल गई। उन्होंने कोर्ट में कहा था कि वे जांच में पूरी मदद करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को दाखिल दफ्तर कर दिया। 2011 में ही संजीव भट्ट को मौलाना मोहम्मद अली जौहर अकादमी में सम्मानित किया था। उसी कार्यक्रम में 1984 में दिल्ली में हुए सिख दंगों के कथित आरोपी जगदीश टाइटलर को भी सम्मानित किया था।
टि्वटर पर संजीव भट्ट काफी सक्रिय रहे हैं , वे खुलकर अपनी बात लिखते रहे हैं। कई लोगों ने उन्हें कांग्रेस का प्रतिनिधि करार दिया है, जो वर्दी में रहकर कांग्रेस का कार्य करते थे। कई लोगों ने उन्हें हत्यारा भी लिखा है।
संजीव भट्ट की सजा के साथ ही कई लोगों को सोहराबुद्दीन प्रकरण की भी याद आ रही है। एक यूजर ने लिखा कि भारत में न्यायालय में देरी होती है, लेकिन अपराधी को सजा मिलती जरूर है। संजीव भट्ट के साथ ही कांस्टेबल प्रवीण झाला को भी सजा सुनाई गई है।
कई लोगों ने संजीव भट्ट को अरबन नक्सली गिरोह का सदस्य भी लिखा है। जामनगर के जामजोधपुर में हुई हिरासत की मौत का मामला अंतत: दो लोगों के आजीवन कारावास तक पहुंचा। कई लोगों ने संजीव भट्ट के पुराने ट्वीट शेयर किए, जिसमें उन्होंने आरएसएस के बारे में भी अनेक आरोप लगाए है।
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