फिल्म समीक्षा : बेबी जॉन, भाईजान और बीबीजान !

पेज-थ्री            Dec 25, 2024


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।

क्रिसमस पर रिलीज बेबी जॉन फिल्म देखकर लगता है कि वरुण धवन को रजनीकांत फेसबुक पर जरूर फॉलो करते होंगे।  रजनीकांत ने वरुण धवन को अपने सारे प्रोफेशनल  सीक्रेट डीएम भी किए होंगे। बेबी जॉन देखते हुए भरोसा हो गया कि रजनीकांत की आत्मा का परकाया प्रवेश हो गया है और वह परकाया श्रीमान वरुण धवन की ही है। फिल्म में वरुण इतनी तेज भागते हैं कि समय पीछे छूट जाता है।

फिल्म में डीसीपी बने वरुण धवन की तरफ आने वाली हर गोली उनसे पूछती है कि सर जी, मैं  कहाँ से निकलूं? आपके ऊपर से या नीचे से, बाएं से या दाएं से? वरुण आग के बीच  जाते हैं तो अग्निदेव पूछते हैं - सर आपको तपिश तो नहीं हुई?  बच्चों से भरी बस के नदी में गिरने पर हीरो पानी में कूदता है तो नदी पूछती है - बॉस, आपके कान, नाक अथवा किसी और छेद में पानी  तो नहीं भरा?

वरुण धवन ने इस फिल्म में कुली नंबर वन जैसी कलाकारी तो नहीं की है, लेकिन फिल्म देखने पर समझ में आता है कि दुनिया भर की शिपिंग कंपनियों के पास कंटेनर की कमी क्यों हो गई है? इसलिए कि सारे के सारे कंटेनरों में अपहरण की गई लड़कियों को छुपाकर विदेश ले जाया जा रहा है।  बचे हुए कंटेनर इस फिल्म की शूटिंग में लगे थे। एटली के निर्देशन  में तमिल में बनी सुपरहिट थेरी का यह हिंदी वर्ज़न है - नाम होना था 'तेरी तो '

बेबी जॉन के फाइट सीन्स को आठ एक्शन डायरेक्टरों ने डायरेक्ट किया है - ढिशुम, ढिशूंग, धाँय, ढुंग, ढिश्कियाऊं, ढिश्कियांग, ढमांग और ढंशियूंग।  इसीलिए इसे एक्शन फिल्म भी कहा गया है। इसमें कॉमेडी भी है जिसे देखकर दर्शक दर्दभरी आहें भरते हैं। रोमांस के सीन भी है जो दर्शकों  को याद दिलाते हैं कि बाहर पॉपकॉर्न और समोसे भी बिक रहे हैं।

फिल्म के गाने याद दिलाते हैं कि पुष्पा 2 के गाने ही सबसे बुरे नहीं थे। फिल्म में सभी मसाले उस तरह डाल दिए गए हैं जैसे किसी डिश में नमक, मिर्च, धनिया, हल्दी, जीरा, राई, सरसों, हींग, लहसुन, जावित्री, जाफ़रान, पत्थर फूल, जायफल, मुलेठी, अमचूर, कोकम, इमली,  शक्कर, गुड़,  शहद आदि सभी मसाले घोंट दिए जाएं और इस उम्मीद से परोस दिया जाए कि इससे बढ़िया तो कुछ हो नहीं सकता! इस अदा  पर वारा जाऊं मैं तो ! कुल मिलाकर दर्शक मनोरंजन के लिए ऐसे तरस जाता है जैसे कोई शराबी बिहार में शराब के लिए तरसता होगा।

दावे से कह सकता कि आईपीएस अधिकारियों की इतनी बेइज्जती तो उनकी बीवियां भी नहीं करती होंगी जितनी कि इस फिल्म में की गई है। फिल्म बताती है कि आईपीएस अधिकारी उसके  पट्ठे होते हैं। उन्हें यह तहजीब नहीं होती कि कहां वर्दी पहननी है और कहां लुंगी? उनमें हीरोगीरी का शौक होता है।

बिना सहयोगियों के ही अपने बूते पर अपराधी का खात्मा करने का जुनून होता है उनमें। वे कहीं भी गोली चला देते हैं। मारपीट करने लगते हैं और बात को अनपढ़ गुंडों की तरह पर्सनल ले लेते हैं। 

क्या आईपीएस सिलेक्ट होते ही किसी को सीधा डीसीपी बना दिया जाता है? उनकी शारीरिक, मानसिक, कानूनी ट्रेनिंग नहीं होती? उनकी लीडरशिप, कम्युनिकेशन, अन्वेषण करने की खूबियां गायब हो जाती हैं?  

क्या आईपीएस को केवल मैं, मैं, मैं सिखाया जाता है? उनका काम केवल गन लेकर घूमना और गोलियां चलाना ही है?  क्या कोई आईपीएस अधिकारी इस तरह नौकरी से भागकर गुमनाम जिंदगी जी सकता है?  मुखर्जी नगर और भंवरकुआं में आईपीएस की तैयारी करने वाले तमाम नौजवान सुन लें। उन्हें अगर आईपीएस बनना है तो बढ़िया डांस करना आना चाहिए। स्लो मोशन में चलने का आदी भी होना चाहिए।

बेबी जॉन कमजोर कहानी के कारण दर्शकों के मन में नहीं बैठती। कई दृश्य ऐसे हैं जहां पहले ही अंदाज हो जाता है कि आगे क्या होगा। इमोशनल कनेक्ट की कमी है। एक्शन, कॉमेडी और इमोशनल सीन के बीच कोई तालमेल नहीं है। फिल्म में जगह-जगह सेंटर फ्रेश और एस्ट्रल पाइप के  विज्ञापन भी दिखाए गए हैं। 'कॉमेडी इज़  सीरियस बिजनेस' और 'आजकल अखबार पढ़ता ही कौन है' जैसे संवाद गलत स्थानों पर हैं।

अंत में बर्थडे बॉय सलमान खान का कैमियो अनावश्यक लगा। जैकी श्रॉफ खलनायक के रूप में प्रभावित नहीं कर पाये। तमिल की हीरोइन कीर्ति सुरेश और वामिका गब्बी फिलर की तरह रहे। वरुण की  छोटी सी बेटी बनी  जारा ज़ायना की मासूमियत अच्छी लगी। साल का अंत किसी यादगार फिल्म से होता तो ठीक होता।

अझेलनीय फिल्म !

 


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