प्रकाश भटनागर।
कई भारी-भरकम काण्ड के साथ कांग्रेस का बाल काण्ड अंतत: खत्म हो गया। रामचरित्र मानस में यह पहला काण्ड है। इसमें goswami tulsidas गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा था, 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।' यानी किसी अन्य के आधीन होने की स्थिति सपने में भी सुख नहीं दे सकती है। लेकिन कांग्रेस के ‘बाल’ काण्ड में इससे ठीक उलटा हो रहा है।
पार्टीजन चीख-चीखकर कह रहे हैं, ‘स्वाधीन सपनेहु सुख नाहीं।’ सुख केवल गांधी नाम में है। यह नाम किसी पवित्र धाम की तरह उनकी सोच के रेशे-रेशे में समाया हुआ है। कोशिश तो थी कि Rahul राहुल को ही बाल्यसुलभ हरकतों के लिए अध्यक्ष पद का खिलौना थमा दिया जाए। लेकिन बाबा इस खिलौने से बोर हो गये थे। इसलिए एक बार फिर मामला घूम-फिरकर सोेनिया गांधी पर आ गया।
19 साल तक इस पद पर रहने के बाद श्रीमती गांधी ने 19 महीने का अवकाश लिया। संभवत: यह सोचा होगा कि सियासी बुढ़ापे की लाठी अब बेटा बन जाएगा। इस लाठी में अनुभवहीनता की दीमक लग गयी। बचकाने कथन और फैसलों की दरार आ गयी और फिर जब खुद लाठी को खड़े रहने के लिए बैसाखियों की जरूरत पड़ने लगी तो मामला एक से दूसरे गांधी पर शिफ्ट कर दिया गया।
रामचरित्र मानस को पढ़ने का एक अलिखित नियम है, उसे मान्यता कह सकते हैं, वह यह कि बालकाण्ड से लेकर उत्तरकाण्ड तक इसे पूरा पढ़ने के बाद एक बार फिर सुंदरकाण्ड का पाठ किया जाता है।
राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने सारे काण्ड पढ़ डाले और बीती जुलाई में देश की जनता ने ऐसा ‘उत्तर’ काण्ड पढ़ा कि फिर किसी सुंदर जैसी बात की स्थिति ही नहीं बनती दिख रही है। फिर जो स्थिति बीते कुछ दिनों से बनी, वह तो विद्रूप ही कही जा सकती है।
देश के सबसे बुजुर्ग राजनीतिक दल में योग्यता का अभाव तो हो नहीं सकता। लेकिन साहस का ऐसा अभाव कि गांधी परिवार के अलावा और किसी का नाम तक आगे नहीं रखा जा सका। तो क्या बाकी क्षमताओं का प्रयोग केवल कुर्बानी देने के लिए हो रहा है?
लोकसभा में शर्मनाक संख्या आयी तो अधीर रंजन चौधरी को आगे कर दिया गया। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने वाली स्थिति आयी तो गुलाम नबी आजाद को सियासी अखाड़े में धकेलकर उनके चित होने का इंतजाम कर दिया गया। लेकिन जब पार्टी के अध्यक्ष पद का मामला आया तो फिर वही परिवार का तम्बू तानकर उसमें चौधरी की तरह बैठ गये।
वैसे आप कुछ भी कहें, लेकिन मैं उन कांग्रेसियों को बेहद घाघ मानूंगा, जिन्होंने तमाम क्षमताएं होने के बावजूद अध्यक्ष पद के लिए खुद का नाम आगे बढ़ाने का जोखिम नहीं उठाया। इनमें ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे युवा तुर्क सहित मल्लिकार्जुन खडगे सरीखे अनुभवी राजनेता शामिल हैं।
वजह साफ है, लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद कांग्रेस इतनी कमजोर हो चुकी है कि उसमें नयी जान फूंकने के लिए खुद को खपा देने की जरूरत अवश्यंभावी हो चुकी है। ऐसा होने के बाद भी पार्टी की हालत में पहले की तरह का सुधार होने के बहुत कम आसार हैं।
उस पर अनुच्छेद 370 को लेकर दल के भीतर जिस तरह की सिर-फुटौव्वल चल रही है, उसका भी सीधा असर इसकी बची-खुची सामूहिक ताकत पर हो रहा है। इसलिए अध्यक्ष पद की लालसा को मन ही मन में दबाकर तमाम कांग्रेसी यही मनुहार करते रहे कि राहुल गांधी ही वहां कायम रहें।
उनकी इस कोशिश वाले तरकश में कई तीर थे। सोनिया नहीं मानतीं तो मामला प्रियंका वाड्रा तक पहुंचा दिया जाता। वहां भी दाल नहीं गलती तो बड़ी बात नहीं कि भाई लोग रॉबर्ट वाड्रा को यह पद देने की अलख लेकर पार्टी में व्याप्त अनिश्चितता के अंधेरे को दूर करने का जतन करने निकल पड़ते।
इस देश ने सरपंच पति के कई मामले देखे हैं। कांग्रेस में अब अध्यक्ष पुत्र वाले मामले दिखेंगे। राहुल गांधी के भीतर नरेंद्र मोदी के लिए जो प्रतिशोध की भावना है, वह उन्हें पार्टी के मामलों में अप्रत्यक्ष रूप से दखल देने के लिए भड़काता रहेगा।
यानी ताजा घटनाक्रम ‘आईना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं’ वाला हो गया है। मोदी शासन में देश के लोकतंत्र की दुहाई देने वाली कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र कितना जर्जर हो चुका है, यह इस घटनाक्रम से साफ है।
मजे की बात यह कि ऐसे सारे खिलवाड़ करते हुए यह पार्टी उस भाजपा की हार का सपना देख रही है, जिसका संगठन ही उसकी ताकत का सबसे बड़ा आधार है। जहां शीर्ष नेतृत्व से लेकर नीचे तक परिवारवाद की दीमक का अंश तक नजर नहीं आता। जहां पद का आधार केवल और केवल योग्यता है।
शनिवार की सुबह जिस समय सोनिया और राहुल कार्यसमिति की बैठक के बीच से चले गये थे, तब एकबारगी यह लगा था कि करीब बीस साल की नींद के बाद यह दल सही दिशा में करवट लेने जा रहा है। क्योंकि यही वह समय है, जब इस दल में नयी जान फूंकी जानी है।
यह काम शीर्ष स्तर पर बदलाव के जरिये ही हो सकता था। किंतु सब कुछ ढाक के तीन पात की तर्ज पर सिमट कर रह गया। यूं नहीं कि हम सोनिया गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठा रहे हों, बात केवल यह कि परिवार से इतर किसी चेहरे को आगे लाकर यह दल देश-भर के मतदाताओं की नजर में अपनी खराब होती छवि को कुछ ठीक कर सकता था।
यह उम्मीद कम ही की जा सकती है कि निकट भविष्य में कांग्रेस को कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष मिल जाए। Sonia Gandhi सोनिया गांधी अंतरिम तौर पर इस पद के लिए चुनी गयी हैं, लेकिन उनके उपनाम में इतना दम है कि मामला अंतरिम से अनंतिम तक पहुंच जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अध्यक्ष पद पर उन्नीस साल निकल गए और अब अंतरिम अध्यक्ष का कार्यकाल पता नहीं कितना लंबा होगा?
कांग्रेस के भीतर आपातकाल जैसी स्थिति है। खुद पार्टीजनों ने ऐसे हालात का वरण किया है। आपातकाल के समय कहा गया था, ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया।’ मौजूदा समय में गुलामी की जंजीरों से बंधे गलों पर कान लगाइए। आपको उनके भीतर से ‘कांग्रेस इज गांधी, गांधी इज कांग्रेस’ का स्वर सुनायी देगा।
यह स्वर आर्तनाद का परिचायक हो सकता है और इसमें आप गुलामी के भीतर लिपटे रहने के सुख को भी महसूस कर सकते हैं। गुलामी इस बात की कि सत्ता तक कोई पहुंचा सकता है तो बस ये परिवार ही है।
इस विरोधाभास से आपको चौंकना नहीं चाहिए, क्योंकि यह उस दल का मामला है, जो फिलवक्त ऐसे अय्यारों के खिलवाड़ का केंद्र बना हुआ है, जैसे अय्यार तो देवकीनंदन खत्री भी चंद्रकांता संतति में नहीं रच पाये थे।
इस उपन्यास में तिलिस्मों का खेल जमकर चला था और एक पात्र क्रूर सिंह काफी चर्चित रहा। कांग्रेस में भी गांधी नामक तिलिस्म का कोई तोड़ नजर नहीं आता और इसे इस दल के स्थापकों की भावनाओं के प्रति क्रूरतम मजाक से अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता।
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