राघवेंद्र सिंह
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयप्रकाश नड्ढा की पिछले दिनों मध्यप्रदेश यात्रा खूब सुर्खियों में रही।
यात्रा में नड्डा जी ने नेता पुत्रों को चुनाव से बाहर रखने की घोषणा कर कार्यकर्ताओं की दुखती नब्ज पकड़ने का ऐलान कर गजब कर दिया और पार्टी ने भी उनके स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ी।
उनके अभिनंदन को देखकर तत्कालीन अध्यक्ष गृह मंत्री अमित शाह के भोपाल आगमन की याद भी आ गई।
तब शाह, प्रदेश अध्यक्ष बने सांसद राकेश सिंह को कार्यभार ग्रहण कराने भोपाल आए थे और कार्यभार ग्रहण समारोह प्रदेश भाजपा कार्यसमिति की बैठक भी बन गया था।
हालांकि इसके पहले ऐसा कभी नहीं हुआ और इससे अपवाद स्वरूप एक कार्यक्रम माना गया है।
लेकिन लगता है शाम के समय जो भीड़ भरी कार्यसमिति की बैठक हुई थी नड्डा के आगमन पर विस्तारित सी कार्यसमिति आम सभा और कार्यकर्ता अधिवेशन में तब्दील हो गई।
लाल परेड मैदान पर जो कार्यक्रम हुआ वह आम सभा की शक्ल लिए हुए ही दिखा।
प्रदेश भर से आए चुनिंदा कार्यकर्ताओं के लिए इस तरह का आयोजन थोड़ा अजीब लगा होगा, क्योंकि भाजपा कार्यकर्ताओं की ऐसी फितरत नहीं रही, इसमें प्रबंधन भी कमजोर सा रहा।
प्रदेश कार्यकारिणी, कार्यसमिति, प्रशिक्षण वर्ग और अधिवेशन की एक परंपरा, परिपाटी, अनुशासन और मर्यादा रही है।
इनमें विषयवार चर्चाओं के सत्र होते आए हैं, पार्टी बकायदा राजनीतिक प्रस्ताव पारित करती है।
साथ ही अगले 3 माह की योजना पर चर्चा करने के साथ मंडल स्तर के कार्यकर्ताओं को उस पर अमल करने के लिए जानकारी भी दी जाती है। लेकिन इसका अभाव दिखा।
अध्यक्ष के तौर पर अमित शाह के आगमन पर जो पहली बार हुआ था नड्ढा जी के आगमन पर वह दूसरी बार हो गया। भविष्य में राष्ट्रीय अध्यक्ष के आगमन पर विस्तारित कार्यसमिति की बैठक करने की परंपरा भी बन सकती है।
अब तक नियम-कायदे और परंपराओं से बंधे कार्यकर्ताओं के लिए यह थोड़ा अजीब लग सकता है लेकिन उन्हें इसकी आदत डाल लेनी चाहिए। यह बदलते जमाने की भाजपा है।
सियासत के इस आर्केस्ट्रा में रीमिक्स का दौर है, जिसमें दिल को छू लेने वाली मौसिकी, पानी की तरह बहने वाला संगीत और मखमली गायकी की जगह तेजी से कम होती जा रही है।
अब जो नए कार्यकर्ता आगे जाकर जो संगठन और सरकार के माई बाप बनेंगे शायद उन सबके लिए यह सामान्य बात हो लेकिन भाजपा को इस मुकाम तक लाने वाले कार्यकर्ताओं के लिए यह सब अटपटा सा है।
आसान भाषा में समझने के लिए यह सब वैसा ही है जैसे संगीत की दुनियां में लता मंगेशकर , किशोर कुमार, मो रफी,मन्नाडे, कुंदन लाल सहगल, मुकेश से लेकर शास्त्रीय संगीत के धुरंदर भीमसेन जोशी, कुमार गन्धर्व, गज़लों में मेहंदी हसन , गुलाम अली, जगजीत सिंह, पंकज उधास, अनूप जलोटा, जैसे महान लोगों को जिन श्रोताओं ने सुना और देखा उन्हें अचानक वेस्टर्न म्यूजिक में डूबे रीमिक्स और गन कल्चर से प्रभावित रेप सान्ग सुनना पड़े।
मसलन, मस्ती और सुफियान सुरताल की जो जुगलबंदी पंजाब के पारंपरिक संगीत में दिखाई देती रही है।
उसमें दौलत और शोहरत, मारामारी का तड़का गलाकाट कम्पटीशन जानलेवा हो रहा है।
आज के संगीत और सियासत में सब है लेकिन सुकून नहीं है।
राजनीति की तमाम वर्जमाओं और विद्रूपताओं की भरमार के बीच नड्डा जी ने चुनावों में
परिवारवाद के रैप सान्ग और रीमिक्स पर जो परशुरामी फरसा चलाया है,उससे कार्यकर्ता गदगद है।
राजनीति के इस नड्डा राग ने जो सुर छेड़ा उसकी सफलता टिकटों के सही वितरण पर निर्भर है।
कार्यकर्ता राग के लिए संगीत के उस्तादों के साथ पारंगत साजिंदों की भी दरकार है, रियाज सही रहा तो कामयाबी कदम चूमेगी।
कमजोर प्रत्याशियों के चयन उनके इस कार्यकर्ता महाराग को बेसुरा कर रंग में भंग कर देगा।
ठीक वैसे ही जैसे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के जनता राग को बेलगाम और बेईमान लालफीताशाही बेसुरा कर देती है।
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