राघवेंद्र सिंह।
हमने पिछले ही अंक में सोमवार को लिखा था कि भाजपा अपने जीवन काल के सबसे कठिन दौर से गुजर रही है।
नगरीय निकाय चुनाव में प्रत्याशी चयन को लेकर जो गुटबाजी, मारकाट, खरीद फरोख्त की बातें पंख लगाए उड़ रही है।
ताजा हालात ने संघ परिवार तक को चिंता में डाल दिया है।
हालांकि वह इन छोटे चुनाव में सुधार में वास्ते हस्तक्षेप नहीं करेगा। मगर इन बिगड़े बांटों को जो अभी चाहे जितना कम ज्यादा तौल लें विधानसभा चुनाव के वक्त इन बांटों को ठीक जरूर करेगा।
डेढ दशक से अधिक समय से सत्ता में रहने पर पार्टी में कैडर तो कमजोर हो ही रहा था लेकिन सिंधिया महाराज के कांग्रेस छोड़ने के बाद सत्ता में भाजपा में तो मानो कैडर को ध्वस्त करने का संवैधानिक मार्ग मिल गया हो।
भोपाल से लेकर दिग्गजों के शहर इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर, देवास, कटनी, बुरहानपुर जैसे इलाकों में बगावत का आलम यह है पार्षदों की सूचियों को फाइनल करने में पार्टी को नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं।
हालात चिंताजनक है संघ परिवार का भी मानना है कि 16 नगर निगम जिन पर भाजपा का कब्जा था उनमें से तीन-चार नगर निगम कांग्रेस छीन सकती है।
यह आंकड़ा बढ़कर अगर छह तक पहुंचा तो फिर सत्ता-संगठन के नेतृत्व पर सवाल खड़े हुए जिस पर ज्यादा संदेह होगा ज्यादा ज्यादा खामियाजा उसे ही भुगतना होगा।
नगरीय निकाय चुनाव में वैसे सब जगह भोपाल की भाषा में कहें तो हूल गदागद हो रही है। इसमें कपड़े की बॉल बनाकर खेला जाता है। जिसे बॉल लगी उसे आउट बाहर कर दिया जाता है।
भाजपा में यह खेल उल्टा चल रहा है, जिसे गेंद लग रही है उसे ही खेल में शरीक किया जा रहा है।
बाहुबली, गुंडे, जुआरी, सटोरियों हत्या और बलात्कारी और उनके परिजनों को उम्मीदवार बनाया जा रहा है।
हालांकि प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने भूल सुधार के लिए इंदौर में युवराज उस्ताद की पत्नी का टिकट काट कर कुछेक जगह प्रत्याशी बदले भी। आज उन्होंने घोषणा भी कर दी है कि अपराधियों को टिकट नहीं दिए जाएंगे।
लेकिन गड़बड़ झाला ज्यादा है और भोपाल समेत दूसरे शहरों में भी ऐसे कई उदाहरण हैं जहां अपराधी तत्व वार्डों के उम्मीदवार बनने में सफल हो गए हैं। इससे भाजपा की साख दांव पर लग गई है।
नगरीय निकाय चुनाव की टिकट वितरण से लेकर प्रचार की धमा चौकड़ी में संघ परिवार ने खुद को अलग रखा है।
मगर संगठन व सरकार की कार्यशैली पर उसकी नजर है और नतीजे आने के बाद की समीक्षा में वह समन्वय बैठकों में अपनी राय से लेकर नेताओं के सम्बंध में निर्णय भी सुनाएगा। इसी के आधार पर 2023 के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव की रणनीति बनेगी।
स्थानीय सरकार के चुनाव को लेकर ग्वालियर में सबसे ज्यादा घिनापन मचा हुआ है, इससे ज्योतिरादित्य सिंधिया की छवि पर भी बुरा असर पड़ रहा है।
असल में ग्वालियर में महापौर प्रत्याशी को लेकर दोनों केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच सुमन शर्मा के नाम पर बहुत मुश्किल से सहमति बन पाई थी।
इससे लगा पीढ़ी परिवर्तन के साथ भाजपा देह परिवर्तन कर कांग्रेस बन रही है, जनता और कार्यकर्ताओं में अच्छा सन्देश नहीं गया।
बेहतर होता ग्वालियर में मेयर उम्मीदवार के मसले पर सिंधिया महाराज वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की पसंद पर सहमति जता देते।
साथ ही प्रत्याशी चयन विवाद पर कांग्रेस को भी यह तंज करने का अवसर नहीं मिलता हम ही जानते हैं महाराज को कैसे झेलते थे, अब भाजपा को पता चलेगा। भाजपा में 'महाराज' बनने का अवसर था जो निकल गया।
नगरीय निकाय में संगठन के निर्णय मान लेते और विधानसभा में अपनी पसंद के उम्मीदवार तय करवा लेते।
उदाहरण के लिए ग्वालियर को ही ले लें, वहां सिंधिया महाराज 30 से 40 फ़ीसदी पार्षद प्रत्याशी अपने कोटे से चाहते हैं।
शेष में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से लेकर पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा, जय भान सिंह पवैया, विवेक शेजवलकर और जिला अध्यक्ष के पसंद के लोग रहेंगे।
इसी पेंच के कारण ग्वालियर पार्षद प्रत्यशियों की सूची अटकी हुई है।
शायद इसके पहले कभी ग्वालियर में इतनी माथा पच्ची नही हुई,इससे सिंधिया के पार्षद प्रत्याशी भले ही बढ़ जाएं पर सत्ता- संगठन में शर्तिया उनका यश घटेगा।
बेहतर होता सिंधिया कैंप जिले से लेकर संभाग की समिति ने जिन 14 से 18 उनके समर्थकों को टिकट दिया था उस पर बड़ा दिल कर सूची जारी होने देते।
लेकिन राजनीति में थोड़ा भी कम किसी को स्वीकार नहीं सब ज्यादा चाहते हैं वह भी दिल छोटा करके।
गुटबाजी और चीन्ह चीन्ह कर टिकट देने के हालात में पार्टी का वफादार कार्यकर्ता इस चुनाव में घर बैठने का मन बना रहा है।
सबको पता है मध्यप्रदेश में सरकार सिंधिया की वजह से आई लेकिन भाजपा में संगठन सबसे ऊपर रहता हैं
जहां तक सिंधिया का प्रश्न सरकार में सिंधिया के सभी विधायकों और विधानसभा चुनाव में पराजित प्रत्याशियों को भी सरकार में हिस्सेदारी दी गई।
यहां तक कि भाजपा के वादे के मुताबिक सब ठीक-ठाक हुआ।
लेकिन भाजपा संगठन के हिसाब से पार्षदों में कौन उम्मीदवार बनेगा महापौर का प्रत्याशी कौन होगा, इस मामले में सिंधिया के दखल से उम्मीदवारों के चयन में न केवल देरी हो रही है बल्कि, पार्टी के भीतर सबसे ज्यादा विवाद ग्वालियर आ रही हैं।
इसके बाद भाजपा के गढ़ इंदौर से संगठन की दृष्टि से चिंता में डालने वाली खबरें आ रही हैं।
ऐसे ही हालात भोपाल में भी बन गए हैं कमजोर संगठन के चलते महापौर और पार्षद प्रत्याशियों का चयन विधायक और सांसदों की मर्जी पर निर्भर हो गया है।
ऐसे में पूरे सीन में संगठन न केवल कमजोर हुआ बल्कि प्रत्याशी चयन को लेकर कई जगह उसकी प्रतिष्ठा का पराभव हुआ और धमक ध्वस्त हो गई।
संगठन की कमजोरी का आलम यह है कि जो नेता विधायक और सांसदों का टिकट पाने के लिए पार्टी के सामने आज्ञाकारी बच्चों की तरह हाथ बांधे खड़े रहते थे।
चुनाव जीतने के बाद वही एमपी-एमएलए पार्टी पर दबाव बना अपने समर्थकों को मेयर से लेकर पार्षदों तक के टिकट दिलाने में कामयाब हो रहे हैं।
इसके पीछे कमीशनबाजी और वार्डों की राजनीति व विकास कार्यों को अपने कंट्रोल में रखना सबसे अहम हैं, याने सब कुछ हमारे हिसाब से चलेगा।
कुल मिलाकर संगठन लाचारी की स्थिति में है, ऐसी दशा के लिए संगठन स्वयं ही जिम्मेदार है।
पहले तो मंडल से लेकर जिले और संभाग स्तर पर प्रत्याशी चयन में जो छन्ने लगते थे वह खत्म हो गए।
प्रदेश भाजपा को पता ही नहीं है कि कौन जुआरी है, कौन सटोरिया और कौन बलात्कारी?
जाहिर है पार्टी खुद दांव पर लग गई है,टिकट तो बंट गए लेकिन उन्हें जिताएगा कौन?
पार्टी को माई- बाप मान संगठन के हुकुम पर सालों साल से काम करने वाला तो टिकट की आस लिए हाशिए पर है।
जीत के लिए पार्टी को एड़ी से चोटी का जोर लगाना पड़ेगा।
भोपाल, इंदौर, ग्वालियर,जबलपुर, सतना,कटनी, बुरहानपुर, उज्जैन और छिंदवाड़ा जैसे शहरों में खबरें अच्छी नहीं हैं।
इस संबंध में सोशल मीडिया पर कुछ कार्यकर्ताओं ने विचार सार्वजनिक किए हैं कुछ को आपके साथ साझा भी कर रहे हैं।
पूरे मामले में मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी का एक शेर बड़ा मौजू लगता है
यह इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे,
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