हेमंत पाल।
विधानसभा चुनाव की नजदीकी के साथ ही कांग्रेस और भाजपा दोनों में भीड़ घेरने की प्रतिद्वंदिता बढ़ रही है। कौन अपनी सभाओं में ज्यादा भीड़ जुटा पाता है, दोनों पार्टियाँ यही साबित करने में लगी हैं। एक तरफ मुख्यमंत्री की 'जन आशीर्वाद यात्रा' में भीड़ जुट रही है, दूसरी तरफ कांग्रेस के ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ ने भी अपने चुनावी दौरे शुरू कर दिए।
दोनों पार्टियों ने भीड़ को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। ऐसे में चुनाव के मूल मुद्दे और लोगों की बातें हाशिए पर चली गई। राजनीति पूरी तरह भीड़ केंद्रित हो गई। जबकि, सभी जानते हैं, कि लोकतंत्र में एक व्यक्ति का एक ही वोट होता है।
भीड़ का होना इस बात का संकेत नहीं, कि जितनी भीड़ दिखाई दे रही है उतने वोट पक्के हो गए। क्योंकि, भीड़ तो सिर्फ जमावड़ा है। ये भीड़ भी एक तरह से मॉब-लीचिंग ही है जिसकी अपनी कोई मानसिकता नहीं होती।
नेताओं ने भी अपनी लोकप्रियता का पैमाना इस बात को मान लिया कि उनकी सभाओं में कितनी भीड़ जुटती है। लेकिन, किसी राजनीतिक पार्टी की रैली या रोड-शो में आने वाली भीड़ उसके प्रति जनता के समर्थन का पैमाना हो सकती है? क्या इस भीड़ को विश्वसनीय माना जाना चाहिए? सीधे शब्दों में कहा जाए तो क्या सभाओं की भीड़ को वोटर माना जाना चाहिए? ऐसे कई उदाहरण है, जब किसी पार्टी के नेताओं की चुनावी रैलियों में भीड़ तो लाखों की हुई, पर जब चुनाव का नतीजा सामने आया तो वोट हजारों में सिमटकर रह गए।
सभाओं और रैलियों में जुटने वाली भीड़ कभी वोट का पैमाना नहीं होती। लेकिन, यह भीड़ माहौल बनाने का जरिया जरूर बनती है। अगर किसी रैली में जमकर भीड़ उमड़ती है, तो लोगों के बीच उस पार्टी के प्रति ये संदेश जाता है कि ये सब उसके समर्थन में है।
यदि ऐसा नहीं होता और तो इसे उस पार्टी या नेता की अलोकप्रियता का संकेत समझा जाता है, जो कि नकारात्मक होता है। भीड़ का ये पैमाना सिर्फ नेताओं या पार्टियों तक ही सीमित नहीं है। अन्ना हजारे जैसे समाजसेवी भी भीड़ के इस सम्मोहन से नहीं बच सके। वे भी जिंदाबाद के नारों के बीच अभिभूत होते हैं।
दिल्ली में जब दूसरी बार अन्ना हजारे का अनशन हुआ तो उसकी असफलता का सबसे बड़ा आकलन यही था कि उसमें भीड़ नहीं जुटी थी! जिंदाबाद के नारे और तालियों की गड़गड़ाहट से ही नेताओं को ऊर्जा मिलती है।
मध्यप्रदेश में इन दिनों ख़बरें जमकर चर्चा में है, कि शिवराजसिंह चौहान की यात्रा के लिए हजारों लोग देर रात तक जमे रहे या बरसते पानी में छाते लगाकर खड़े रहे। दूसरे दिन जब यहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया का भाषण होता है, तो वही चेहरे फिर दिखाई देते हैं! आशय यह कि झंडे का रंग बदला, नेताओं का चेहरा बदला, पर भीड़ वही थी।
राजनीतिक पार्टियों का भीड़ इकट्ठा करने का अपना अलग ही फार्मूला होता है। नेता कितना भी बड़ा और प्रभावशाली क्यों न हो, उसे सुनने आने वाले उतने नहीं होते, जितने दिखाई देते हैं। वो सिर्फ भीड़ होती है। यदि भीड़ नहीं है, तो समझो सारी मेहनत बेकार है।
जिनके पास भीड़ लाने की जिम्मेदारी होती है, वे इसका मैनेजमेंट भी जानते हैं। वाहनों को जुटाया जाता है और बजट बनाया जाता है कि भीड़ को कितने में लाया जाएगा। नेताओं की राजनीतिक पहुँच भी इसी से आंकी जाती है कि कौन कितनी बसें भरकर भीड़ ला सकता है। इस सबसे सभा करने वाला नेता तो खुश हो जाता है, लेकिन किसी को ये नहीं भूलना चाहिए कि ये भीड़ महज भ्रम होती है। जिसे लोकतंत्र कहकर प्रचारित किया जाता है, वो दरअसल भीड़-तंत्र है।
बीते कुछ सालों में राजनीति के साथ-साथ रैलियों की भीड़ की प्रकृति में भी बदलाव आया है। कहा जाता है कि इस भीड़ में कई लोग तो पार्टी के कार्यकर्ता होते हैं। बाक़ी लोगों को पैसे और खाने का लालच देकर लाया जाता है। ये वो गरीब लोग होते हैं, जिन्हें गाड़ियों में भरकर रैली में लाया जाता है। ये लोग सिर्फ भीड़ का हिस्सा होते हैं। इन्हें न तो नेता से कोई सरोकार होता है न किसी पार्टी से।
मीडिया में भी यही दिखाता जाता रहा है, कि कैसे किसी पार्टी कि रैली में लोगों को किराए की बसों और गाड़ियों में भरकर लाया गया। सवाल ये है कि जब मीडिया राजनीतिक पार्टियों और नेताओं की रैलियों की भीड़ का सच जानता है, तो उस भीड़ को पार्टी या नेता के जनाधार के रूप में क्यों पेश करता है?
बात सिर्फ़ भाजपा या कांग्रेस तक सीमित नहीं है। जहाँ जिस पार्टी का प्रभुत्व है, वह अपना प्रभाव दिखने के लिए यही करती है। चुनाव के माहौल में सभी पार्टियां एक रंग में रंग जाती है। अब चुनावों में रैली अथवा जनसभाएं नहीं होतीं, बल्कि एक तरह से इवेंट होता है, इसके लिए हर पार्टी में एक ऐसी टीम होती है, जिसे ये इवेंट करने में महारथ होती है।
क्योंकि, पैसों से यदि भीड़ जुटाई जाती है, तो उसे राजनीतिक रैली नहीं कहा जा सकता। पैसों से रैलियां नहीं होतीं, बल्कि इवेंट्स होते हैं। अब वो समय नहीं रहा, जब नेताओं को सुनने के लिए भीड़ खुद चलकर आती थी।
अब देश में न तो ऐसे नेता बचे न कोई ऐसी पार्टी जिसके नेता अपने मौलिक विचारों से लोगों को एक जगह इकट्ठा कर ले।
मध्यप्रदेश में चुनाव का बुखार नेताओं और पार्टियों के सिर चढक़र बोल रहा है। एक-दूसरे की निंदा का वातावरण चरम पर है। भीड़ के सामने प्रतिद्वंदी पार्टी की खामियों को जिस बचकाना ढंग से प्रचारित किया जा रहा है, वो राजनीति के गिरते स्तर को दर्शा रहा है। ऐसे में रैलियों की भीड़ की विश्वसनीयता भी संदिग्ध ही है। नेता समझते हैं कि वे जनता को भरमा रहे हैं, जबकि भीड़ की मानसिकता भी इससे अलग नहीं होती।
राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के आसपास की भीड़ भी उसी हाव-भाव के साथ मौजूद होती है। फिलहाल किसी को समझ नहीं आ रहा कि कौन किसे भरमा रहा है! शिवराज सिंह की 'जन आशीर्वाद यात्रा' में चारों तरफ जुटी भीड़ को भले कांग्रेस किराए से लाई भीड़ कहकर हँसी उड़ा रही हो, पर कांग्रेस भी उससे अलग नहीं है।
कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए भी उसी तरह के प्रयासों में कमी नहीं हो रही! ऐसे में जनता है कि दोनों पार्टियों के नेताओं के लिए ताली पीट रही है। लेकिन, दरअसल इस भीड़ के मन में क्या है, ये कोई नहीं जानता। ये राज तो तभी खुलेगा, जब एवीएम नतीजे उगलेंगी!
लेखक 'सुबह सवेरे' इंदौर के स्थानीय संपादक हैं
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