राम विद्रोही।
सब मौन है, सन्नाटा गहरा है। नेपथ्य को लेकर गहरा रहस्य है क्यों कि रंगमंच का सूत्रधार पार्श्व के अंधेरे में कहीं छिपा है। निजाम खाली कनस्तर साबित हुआ, मंत्रियों और राजनेताओं ने सार्वजनिक कार्यकर्मों में शामिल होने से दूरी बना ली है।
मुख्यमंत्री पर भी विरोध के अंधड़ का तेज झोंका आया है। कई जगह सिर्फ काला कपडा ही नहीं दिखाया जा रहा बल्कि पथराव भी हुआ है, सरकारी गाडियों को भी नुकसान पहुंचा है पर घायल कोई नहीं हुआ।
पर एक दम आखिर हुआ क्या? यह अभी सवालों के घेरे में है और घेरे के भीतर भी कई घेरे हैं, हर घेरे में एक रहस्य है,अभी इस पर से पर्दा उठना बाकी है।
एससी/एसटी एक्ट के खिलाफ सवर्ण समाज के इस गुस्से के विस्फोट की कहीं हकीकत में जमीन भी है या फिर यह केवल गुस्से का गुब्बारा ही है, इसका निर्णय तो तीन या चार महीने बाद होने वाले चुनाव के नतीजे ही देंगे।
पर इस सवाल पर राजपुरूषों की चुप्पी रहस्यों पर और गाढा मुल्लमा चढ़ा देती है।
मप्र में सत्ता के दावेदार भाजपा और कांग्रेस के राजपुरूषों की चुप्पी के बीच कहीं हलके सुरसुराहट भरा स्वर सन्नाटे को तोड़ते हुए सवाल करता है-यह कहीं वोटों के ध्रुवीकरण का नया प्रयोग तो नहीं किया जा रहा?
यह सवाल सच ना निकले ऐसी ही दुआ की जा सकती है और कहीं यह सच हुआ तो समाज के लिए भयावह होगा क्यों कि वोटों के ध्रुवीकरण का यह प्रयोग भविष्य में वर्ण संघर्ष की रण भूमि बन जाने वाला है।
मंत्रियों का सार्वजनिक कार्यक्रमों से दूरी बनाना प्रदेश के निजाम पर भी सवाल खड़े करने वाला है? आखिर निजाम का फौज फांटा कहां चला गया? पूछा तो यह भी जा सकता है कि क्या राजनेता तीन या चार महीने बाद होने वाले विधान सभा चुनावों में भी जनता के पास वोट मांगने नहीं जायेंगे, और निजाम का यही हाल रहा तो क्या होगा?
निजाम अफीम की तुनक में है या फिर कानून की किताब को वोटों की राजनीति की दीमक चाट गई? पिछले दिनों ग्वालियर में सवर्ण समाज के लोग एक मंत्री के खिलाफ प्रदर्शन करने गए, कानून ने अपना काम किया।
कुछ लोगों की गिरफ्तारी भी हुई पर कानून ने उन्हें थाने ले जाकर छोड दिया। क्या पुलिस सभी प्रदर्शनकारियों के साथ ऐसा ही सदव्यवहार करती रही है और क्या आगे भी ऐसा ही करेगी? एससी/एसटी कानून के खिलाफ सब से ज्यादा उग्रता ग्वालियर-चम्बल अंचल में ही देखी गई है। इसका थाोडा बहुत असर दूसरी जगह भी देखा गया है।
विंध्य में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के रथ पर हमले की घटना दुर्भाग्यपूर्ण है। सवर्ण समाज के गुस्से का शिकार केवल सत्तारूढ भाजपा के नेता ही नहीं कांग्रेस के नेता भी हुए हैं।
अशोकनगर में कांग्रेस के सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ जो प्रदर्शन हुआ उसमें ज्यादातर सत्तारूढ दल के लोगों का शामिल होना सवालों के घेरे को और छोटा करता है।
इस समय सिंधिया सत्ता के केंद्र नहीं विपक्षी कांग्रेस के नेता हैं और एक विपक्षी सासंद के खिलाफ प्रदर्शन हास्यास्पद लगता है।
अब तो सवर्ण समाज की स्वाभिमान रैली भी हो गई है ओर मार्च भी निकल गया है, छोटी-छोटी बातों पर गैरजरूरी प्रतिक्रिया देने वाले भाजपा और कांग्रेस के नेता इस नए प्रयोग पर मौन हैं।
प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष द्वारा इस पर पूछे गए सवाल पर जवाब देने से इनकार करना आश्चर्य पैदा करने वाला है।
प्रदेश में भाजपा से सत्ता छीनने के लिए रात दिन अपनी आस्तीनें चढाने वाले नेता भी मुंह में दही जमा कर बैठे हैं। वोटों के काल्पनिक लालच पर मौन पूरे समाज को नफरत की अंधेरी काल कोठरी में भी धकेल देने का काम कर रहा है।
ग्वालियर अंचल के समावेसी-समरस्ता के संस्कारों के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण साबित हो सकता है। यही कहा जा सकता है- अंधों के राजा बने अक्सर काने लोग, राजनीति करती रही ऐसे सफल प्रयोग।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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