प्रकाश भटनागर।
चलती बस में कई सीट खाली थीं। एक महिला लेकिन खड़ी होकर सफर कर रही थी। कंडक्टर ने बैठने को कहा तो बोली, ‘नहीं भैया। बैठने का समय नहीं है। मुझे जल्दी अपने स्टॉप तक पहुंचना है।’ निश्चित ही यह मूर्खता का उदाहरण है। फिर भी मामला बस का था। यहां तो बेबस लोग इससे अधिक मूर्खतापूर्ण आचरण करते दिख रहे हैं।
बेबस यानी भाजपा। मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार को सपा-बसपा से मिले बहुमत के आगे न शिवराज सिंह चौहान का बस चलता दिखता है और न ही गोपाल भार्गव का। लेकिन राज्य में फिर सरकार बनाने की जल्दबाजी ऐसी कि हास्य के पात्र बन गये हैं।
अविभाजित मध्यप्रदेश विधानसभा में कांग्रेस के एक सदस्य नोबेल कुमार वर्मा हुआ करते थे। ‘अध्यक्ष महोदय, पॉइंट आॅफ आॅर्डर है,’ उनका तकियाकलाम बन गया था। हर बात पर सीट से उठकर यही कहने लगते। तब विपक्ष के विधायक के तौर पर खुद भार्गव ने कहा था कि वर्मा की सीट पर शायद कील गड़ी हुई है। इसलिए वह बेवजह बार-बार उठ खड़े होते हैं।
तो अब देखना होगा कि शिवराज और भार्गव की मौजूदा सीटों पर भी कहीं कोई कील तो नहीं गड़ी हुई है। वरना और क्या वजह हो सकती है कि वे मिलकर राज्य सरकार से बहुमत साबित करने की मांग करने लगें। वह भी बस में खड़ी होकर सफर करती महिला की शैली में।
माना कि सावन के अंधे को हरा ही दिखता है, लेकिन आंख वाले तो अंधे को यह बता सकते हैं ना कि ‘भाई हरापन कब का जा चुका। यह पतझड़ का मौसम है।’ भाजपा में आंख वालों की कमी नहीं है, इसके बावजूद कोई भी शिवराज और भार्गव को यह नहीं बता रहा कि ‘अब आप दोनों क्रमश: मुख्यमंत्री और मंत्री नहीं हैं। संयत आचरण करें।’
समस्या यह है कि मामला सारे कुएं में भांग घुली होने जैसा हो गया है। कर्नाटक में 23 मई, 2018 (मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी द्वारा शपथ ग्रहण करने की तिथि) के बाद से कमल तले लेटकर कीचड़ स्नान करते भाजपाई भी एग्जिट पोल के नतीजों के बाद वहां सरकार की रुखसती का ऐलान करने लगे हैं।
अलवर सामूहिक बलात्कार कांड में घिरी अशोक गेहलोत सरकार को मायावती आंख दिखा चुकी हैं। इसलिए रेतीले टीलों वाले राजस्थान में भाजपाइयों को यह मृग मरीचिका भी लुभाने लगी है कि जल्दी ही गेहलोत सरकार सत्ता से बाहर हो जाएगी।
देश का लोकतंत्र कोई मजाक है क्या! या निर्वाचित सरकार को गिराना गुड्डे-गुड़ियों का खेल बन गया है! दम्भ में चूर भाजपा को नहीं भूलना चाहिए कि उसकी ऐसी बचकाना कोशिशों के चलते उत्तराखंड में उसे कैसे मुंंह की खाना पड़ी थी।
शिवराज और भार्गव यह तो बताएं कि सरकार के अल्पमत में होने के दावे का आधार क्या है? यदि वह इतने यकीन से ताल ठोक रहे हैं तो फिर संभव है कि बसपा-सपा या कांग्रेस के ही कुछ विधायक उनके संपर्क में हों। यानी वैसा दोहराने की कोशिश, जैसा दिग्विजय सिंह ने बसपा विधायकों को तोड़कर किया था और जैसा शिवराज ने चौधरी राकेश सिंह को कांग्रेस से अलग कर किया था।
खैर, अब यह कहना तो मूर्खता का चरम होगा कि इन विधायकों का बैठे-ठाले हृदय परिवर्तन हो गया है। ऐसी सात्विक किस्म की तब्दीलियां केवल सत्यनारायण की कथा में होती हैं। राजनीति में ऐसे बदलाव नकद नारायण की प्रेरणा से ही संभव हो पाते हैं।
तो तय है कि यदि चौहान तथा भार्गव की बात में जरा भी दम है तो मामला ‘पैसा फेंको, तमाशा देखो’ वाला ही होगा।
इधर, कमलनाथ भी पूरी ताकत से बहुमत साथ होने का दावा कर रहे हैं। जाहिर है कि यदि केंद्र में एनडीए की ही सरकार कायम रही तो प्रदेश के बसपा तथा सपा विधायकों का नाथ सरकार से मोह कुछ कम हो सकता है।
यह बात नाथ भी जानते हैं। उन्हें यह भी पता है कि इस मोह को कैसे कायम रखा जाता है। तो जाहिर है कि नाथ भी साम, दाम, दंड और भेद का प्रयोग कर सरकार बचाए रखने के प्रयासों में जुट ही गये होंगे। कुल मिलाकर यह उस खतरनाक समय की आहट है, जिसमें मध्यप्रदेश भी राजनीतिक नीलामी वाली मंडी में तब्दील होता दिख रहा है।
लोकसभा के पूरे चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी या अमित शाह ने नहीं कहा कि उनकी सरकार कायम रहने पर कांग्रेस-शासित राज्यों में सत्ता परिवर्तन किया जाएगा। इस तरह की बातें भाजपा के उन नेताओं ने ही कीं जिनके दिमाग से बीते विधानसभा चुनाव की हार का दर्द जाने नहीं पा रहा है।
अरे भाई, जरा तसल्ली तो रखो। राज्य का बजट सत्र आ जाने दो। यदि नाथ सरकार के पास बहुमत नहीं है, तो किसी भी फायनेंशियल बिल पर वह सदन में खुद-ब-खुद एक्सपोज होकर औंधे मुंह गिर जाएगी। लेकिन नहीं। भाई लोग जुट गये हैं कि विधानसभा का सत्र जल्दी बुलाया जाए। यह व्यग्रता अनुचित है। क्योंकि इसके पीछे तमाम अनैतिक आचरणों की गंदगी साफ नजर आ रही है।
मुझे लगता है कि शिवराज सिंह चौहान को एक-एक बीतता पल तेजी से आशंकाओं की ओर खींचता ले जा रहा है। नाथ सरकार द्वारा बहुमत साबित करने से पहले शिवराज मंत्रिमंडल के एक पूर्व सदस्य दिल्ली में बेहद सक्रिय थे।
कहा जाता है कि वह कांग्रेस सहित सपा-बसपा के विधायक खरीदकर खुद मुख्यमंत्री बनने की जुगाड़ में वहां गये थे। यह पूर्व मंत्री और वर्तमान विधायक एक बार फिर सक्रिय हैं। पार्टी में ऊपर के स्तर तक नेताओं से इनकी गहरी छन रही है। कहीं शिवराज को यह डर तो नहीं सता रहा कि और समय बीतने पर मामला बिगड़ जाएगा?
यदि राज्य में फिर भाजपा सत्ता पर काबिज हो गयी, तब भी उनके एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने के रास्ते में यही विधायक महोदय सबसे बड़ी चुनौती बन जाएंगे? इसलिए वह और उनके खास भार्गव लोहा गरम होने से पहले ही उस पर चोट करने के लिए पिल पड़े दिखते हैं।
वह शायद यह भूल गये हैं कि मतदाता खुली आंखों से यह सब देख और समझ रहा है। वह उन हथकंडों से पूरी तरह वाकिफ है, जो किसी प्रदेश की चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व मंत्री की यह कानफोड़ू सियासी जुगलबंदी भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है। कम से कम उस भाजपा के लिए तो कतई नहीं, जिसने सन 2018 में कर्नाटक में अपने नेता वीएस येदियुरप्पा की सरकार को अल्पमत की सूली पर चढ़ जाने दिया था।
उस परित्याग से भाजपा की छवि में जो निखार आया था, उसे मध्यप्रदेश में मलिन करने की कोशिश की जा रही है। ऐसा करने वालों को समझना चाहिए कि कमल के नीचे का कीचड़ हर किसी को स्वीकार्य है, किंतु यही कीचड़ कमल के ऊपर आ जाए तो फिर इस फूल की सारी खूबसूरती पर ग्रहण लग जाता है।
लेखक एलएन स्टार में प्रधान संपादक हैं।
Comments