विष्णु नागर
सुदूर केरल के सबरीमला मंदिर, फिर महाराष्ट्र के शनि शिगणापुर मंदिर और अब मुंबई के हाजी अली में भी महिलाओं के प्रवेश पर रोक का मामला गरमा रहा है। सबरीमला में 10 से 50 साल तक की उम्र की महिलाओं के प्रवेश पर रोक का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के सामने है, जिस पर अंतिम निर्णय आना है, पर सुनवाई के दौरान उसने संविधान का हवाला देते हुए इस रोक के ग़लत होने की बात ज़रूर कही है।
शनि शिगणापुर का मामला भी पिछले साल नवंबर के बाद से गरमाया हुआ है, जब एक महिला सब पुरुषों की आँख बचाकर मंदिर में जाकर शनिदेव की मूर्ति पर तेल चढ़ा आई थी, जिसके बाद उस मंदिर को पवित्र करने की मंदिर के कदम ने महिलाओं को आंदोलन छेड़ने को मज़बूर कर दिया और क़रीब चार सौ महिलाओं ने गणतंत्र दिवस के दिन इस मंदिर में प्रवेश का संकल्प घोषित किया।
मगर जैसा लगता ही था, महिलाओं को वहां पहुँचने से बहुत पहले रोक दिया जाएगा, वही हुआ क्योंकि इधर शनि शिगणापुर मंदिर ट्रस्ट और स्थानीय पंचायत किसी भी हालत में मंदिर की कथित चार सौ साल पुरानी परंपरा तोड़ने न देने पर क़ायम थी और उधर राज्य सरकार के पास धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का बहाना था। वैसे शनि शिगणापुर की इस पहल ने मुस्लिम महिलाओं को भी क़दम बढ़ाने के लिए प्रेरित किया और वो गुरुवार को मुंबई के आज़ाद मैदान में हाजी अली दरगाह में प्रवेश की मांग को लेकर इकट्ठा हुईं और उन्होंने प्रदर्शन किया।
तीनों मामलों में महिलाओं को प्रवेश न देने के लिए परंपरा का हवाला दिया जा रहा है. सबरीमला में यह परंपरा 500 साल पुरानी बताई जा रही है तो शनि शिगणापुर मंदिर में इसे 400 साल पुराना बताया जा रहा है। हाजी अली के बारे में भी ऐसे ही कुछ दावे हैं। यानी परंपरा टूट नहीं सकती और पुरुष ही परंपरा के असली रक्षक हैं। मतलब यह भी है कि स्त्रियों से धर्म को जो ख़तरा हमेशा रहा है, उसकी रक्षा आज भी वही कर सकते हैं। पौरुष ही परंपरा की रक्षा कर सकता है।
वैसे याद करने की ज़रूरत समझें तो परंपरा तो यह भी नहीं रही कि हज़ारों लोग किसी दूसरे का धर्मस्थल तोड़ने जाएं। मगर वह परंपरा तोड़ी गई और इस पर गर्व किया जाता है, गौरव दिवस मनाया जाता है। परंपरा से तो हिंदू धोती कुर्ता ही पहनते आए थे मगर अब ज़्यादातर पैंटशर्ट पहनने लगे हैं।
परंपरा तो समुद्र पार न करने की भी थी, मगर आज विदेश जाना ही सबसे बड़ी और महान परंपरा है। परंपरा तो मंदिरों-मस्जिदों में लाउडस्पीकर लगाने की भी नहीं थी क्योंकि तब ये थे नहीं और किसी धर्मग्रंथ में यह नहीं लिखा कि ऐसा किया जा सकता है मगर धर्म के नाम पर लोगों के कान जमकर फोड़े जाते हैं। मगर शनि मंदिर या सबरीमला या हाजी अली में महिलाओं को जाने नहीं दिया जा सकता। यह परंपरा ऐसी पवित्र है, कि सब टूट-फूट सकता है, मगर यह नहीं टूट सकती।
महिलाएं नौकरी करने जा सकती हैं, सिनेमा जा सकती हैं, वायुसेना में भर्ती हो सकती हैं, संसद और विधानसभाओं में जितना भी संभव है, उतना प्रवेश पा सकती हैं, मगर कुछ मंदिर इतने अधिक पवित्र हैं कि उनकी पवित्रता उनकी उपस्थिति मात्र से नष्ट हो सकती है।
वे पवित्रता नष्ट नहीं कर सकतीं। बाक़ी सब कर सकती हैं और पवित्रता वही होती है जो पुरुष तय करते हैं।
मंदिर में गंदगी से मंदिर की पवित्रता नष्ट नहीं होती। मगर कहीं महिलाओं तो कहीं दलितों, कहीं ग़ैरधर्मावलंबियों के प्रवेश से हो सकती है। जो मासिक धर्म महिलाओं की प्रजनन क्षमता का सूचक है, जिसके कारण हम पुरुष भी इस धरती पर पैदा होते हैं, अपने को पैदा करने वाली को हम माँ मानते हैं मगर वह अगर मंदिर में चली जाए तो मंदिर अपवित्र हो जाते हैं।
तमाम देवियों की पूजा पुरुष कर सकते हैं। गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर की देवी की तब पूजा करना पुरुषों के लिए सबसे पवित्र है, जब वे रजोधर्म से मानी जाती हैं। मगर हममें से कोई ज़िंदा औरत- जो हमारी भी कुछ लगती है- वह अपवित्र हो जाती है क्योंकि वह हमारे लिए दिन रात खटती है, हमारे ताने सुनती है और कई मामलों में तो मार भी खाती है और चुप रहती है। हम पता नहीं कैसे हर हालत में पवित्र ही बने रहते हैं मगर वह हर हमेशा इतनी अपवित्र होती है कि कुछ मंदिरों, मस्जिदों, दरगाहों में वह जा ही नहीं सकती।
सच्चाई यह है कि जिन्हें धार्मिक परंपरा मानकर इतना पवित्र माना जाता है, वे वास्तव में सामंती परंपराओं के अवशेष, उसके अपने मूल्य हैं जो धर्म का मुखौटा ओढ़कर हम तक चले आए हैं। क्योंकि धर्म के बारे में मानना है कि उसका किसी तर्क, किसी वैज्ञानिक सोच से कोई लेना-देना नहीं हो सकता, वह आस्था से जुड़ा है।
सामंतवाद आज की तारीख़ में इसी धार्मिक चोले में अपनी अतार्किकता, अपनी अमानवीयता को बचाकर रख सकता है, क्योंकि उस पर प्रश्न लगाना सबसे कठिन है, संवेदनशील मामला है। सामन्तवाद स्त्री के हर तरह के इस्तेमाल में विश्वास रखता है, उसे अधिकार देने में नहीं।
और यह बात सिर्फ़ स्त्री तक सीमित नहीं। उसमें दलित, आदिवासी, अन्य धर्मावलंबी आदि वे सभी हैं, जिनका शोषण और जिन्हें अपमानित करना संभव है। अगर कोई ईश्वर कहीं होता है- और अगर हम सबको, मान लें उसी ने बनाया है - तो वह क्या यह सोच सकता है कि उसके मंदिर में फ़लां आ सकता है, फ़लां नहीं। फ़लां पवित्र है और फ़लां अपवित्र?
ज़ाहिर है कि तमाम भेदभाव करने वाले ईश्वर को भी हमने ही अपने हाथों से, अपने दिमाग़ से रचा है, बनाया है। उसने हमें नहीं बनाया है। यह सामन्तवाद चूंकि राजनीति को भी अनुकूल लगता है, इसलिए राजनीति भी अक्सर धर्म के बारे में उसके पंडे पुजारियों की तरफ़ से ही सोचती है, जो सबसे कम ख़तरनाक और सबसे ज़्यादा लाभदायक होता है।
सबरीमला मंदिर का मामला हो या शनि शिगणापुर मंदिर का, आगे बढ़कर बोलने का निर्णय किसी राजनीतिक दल ने नहीं किया। केरल सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में सबरीमला मंदिर मामले में परंपरा का हवाला दिया और शनि शिगणापुर मामले में भी मुख्यमंत्री की ज़ुबान तब भी नहीं खुली, जब उनसे पुणे में अभियान से जुड़ी भूमाता ब्रिगेड की करीब पाँच सौ महिलाएं मिलने गईं।
मुख्यमंत्री और कांग्रेस ने सैद्धांतिक बात कहकर अपना गला छुड़ाया है। जो विश्व हिंदू परिषद मुसलमानों से सीधे या संकेत में जुड़े हर मामले को उछालने में बहुत आगे रहती है, उसकी हिंसक-अहिंसक उत्तेजना इस मामले में लापता है। जो शिवसेना आजकल पाकिस्तान के मशहूर ग़ज़ल गायक ग़ुलाम अली के पीछे हाथ धोकर पड़ी है, जिसे हिंदू धर्म से बहुत ज़्यादा लेना-देना हो गया है, वह भी अभी नींद में गाफ़िल है।
प्रधानमंत्री तो ऐसे छोटे-मोटे मामलों मे बोलते ही नहीं क्योंकि प्रधानमंत्री हैं। उनके लिए तो डिजिटल इंडिया और स्टार्टअप इंडिया और ये इंडिया और वो इंडिया महत्वपूर्ण हैं। उस इंडिया से उन्हें क्या मतलब जिसमें औरतें अपने अधिकार मांगा करती हैं, वे भी धार्मिक अधिकार!
बीबीसी से साभार
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