ममता यादव
वे पत्रकार हैं लेकिन थोड़ी अलहदा राह उन्होंने चुनी। अलैक्जैंडर फ्रेटर की 'चेज़िंग मॉनसून के पन्ने पलटते हुये कहीं यायावरी का शौक और जिजिविषा इनमें जागी। इन्होंने न्यूजरूम से पत्रकारिता की शुरूआत की और अब तक हड़प्पा से सियाचिन और हिमालय तक की दूरी नाप चुकी हैं। इनके ब्लॉग पर चार हजार फॉलोअर्स हैं। और विस्तार से जानिये ट्रेवलर जर्नलिस्ट अलका कौशिक के बारे में...
करीब डेढ़ दशक पहले दिल्ली में लगे एक पुस्तक मेले से अलैक्जैंडर फ्रेटर की 'चेज़िंग मॉनसून' किताब खरीदी जिसमें अरब सागर से चेरापूंजी तक उड़ते मानसूनी बादलों के पीछे—पीछे इस दीवाने की दौड़ का ब्यौरा था। शायद उसी के पन्नों से गुजरते हुए घुमक्कड़ी के कुछ सूत्र हाथ लगे, लेकिन यह अनायास नहीं था। यह कहना है ट्रेवलर,पत्रकार ब्लॉगर अलका कौशिक का। अलका कौशिक ने महसूस किया कि उन दिनों जो भी किताबें खरीदती थी उनमें ज्यादातर यात्रा वृत्तांत हुआ करते थे, मैगज़ीन भी वही सब्सक्राइब रखी थीं जिनके पन्ने पलटते हुए देश—दुनिया की दीवारें आसानी से लांघ जाया करती थी! फिर तो यात्रा साहित्य को नियमित रूप से पढ़ना और सहेजना आदत—सा बन गया। यह मेरे सफर का 'वर्चुअल' दौर था, जब सफर की मंजिलें किताबों में छिपी होती थीं। लेकिन वही वक़्त मुझे तमाम कुलबुलाहटों और बेचैनियों से भर रहा था। धीरे—धीरे वो भटकन कागज़ों से निकलकर ज़मीन पर उतरने लगी। इस बीच, इंटरनेट भी धीरे से हमारी जिंदगी में शामिल हो रहा था। अब टिकटों की बुकिंग से लेकर डेस्टिनेशन की खोज—खबर लेना आसान हो गया था।
इस तरह, पन्नों से आगे बढ़कर डिजिटल दुनियां का भी हाथ थाम लिया और घुमक्कड़ी को नया आयाम मिला। सफर से जुड़ी रिसर्च अब इंटरनेट पर होने लगी और मैं सड़कों—पटरियों पर दौड़ने लगी थी। अगले लगभग एक दशक तक यह सिलसिला चला। इस बीच, देश की हदों को नापने का जुनून हावी हो गया था। लेकिन एक पैटर्न जो साफ उभरने लगा था वो यह है कि हर दूसरी यात्रा मुझे हिमालय ले जा रही थी, कभी भूटान से नेपाल तक या उत्तराखंड से लद्दाख तक किसी न किसी बहाने पहाड़ों से घिरा पाती थी खुद को। और मज़े की बात तो यह थी कि सफर सिर्फ सफर की खातिर नहीं कर रही थी। थिंपू में अगर साहित्योत्सव मेरे सफर का सबब बनता तो लद्दाख में सियाचिन ग्लेश्यिर पर ट्रैकिंग के बहाने हिंदुस्तानी सेना के जवानों की वतनपरस्ती को नज़दीक से देखने जा रही थी।
लेकिन इतना तय था कि हर सफर का हिंट किताबों—इंटरनेट से ले रही थी। मोहनजोदड़ो का वृत्तांत पढ़ा तो गुजरात—पाकिस्तान सीमा पर धौलावीरा में हड़प्पा दौर के अवशेषों से मिलने चल दी। कभी गुजरात टूरिज़्म का विज्ञापन सोशल मीडिया पर दिखायी दिया तो झटपट रण उत्सव में शिरकत की 'साजिश' को रातों—रात अंजाम दे दिया। ऐसा करना आसान था, क्योंकि इंटरनेट था। न टिकटों की खरीद के लिए कहीं लाइन में लगने का झमेला और न ही किसी और जानकारी के लिए लंबा इंतज़ार करना होता था। इधर आंखों ने सपने देखे और उधर हमने उनकी तामील कर डाली।
अलका का ट्रैवल ब्लॉग
सफर के समानांतर एक और बेचैनी भी बढ़ चली थी। अपने पास जमा हो रहे अनुभवों के पुलिंदे को बांटने की बेचैनी! दरअसल, एक वजह यह भी कि मेरे सफर की मंजिलें आमतौर पर वो होती हैं जो बहुत आम नहीं होती। क्योंकि मैं लंदन या स्पेन में नहीं बल्कि पिथौरागढ़ और बस्तर के देहातों में घूमती हूं। जब जेब की थोड़ी हैसियत बेहतर दिखती है तो भी जेनेवा की झील की बजाय तिब्बत में मानसरोवर के किनारे खुद को पाती हूं। यानी मेरा सफर आम टूरिस्ट से कुछ अलहदा मंजिलों तक पहुंचाने वाला होता है। कम देखी, कम भोगी, कम सुनी मंजिलों के बारे में आने वाले कल के घुमक्कड़ों तक अपने देखे—भोगे सफर को पहुंचाने के इरादे से 2012 में मैंने हिंदी में एक ट्रैवल ब्लॉग शुरू किया। इस दौरान अखबारों—मैगज़ीनों में तो लिख ही रही थी लेकिन वहां मेरे और अखबार के दरम्यान संपादक नाम की बड़ी—सी दीवार होती है जो बहुत आसानी से बहुत कुछ पाठकों तक नहीं पहुंचने देती। फिर पारंपरिक मीडिया की अपनी अंतर्निहित दिक्कतें हैं, पन्नों का, जगह का अभाव है। वहां पहले से लिखने वाले धांसू लेखकों/ पहुंच वाले दिग्गजों की लंबी फेहरिस्त है और मुझ जैसे घुमक्कड़ के पास इतना धीरज कभी नहीं रहा कि एक—एक लेख के छपने के लिए छह महीने इंतज़ार करती या संपादकों के दफ्तरों के चक्कर काटती। लिहाजा, ब्लॉगिंग एक बेहतरीन विकल्प बनकर सामने आया।
इनके इसी ट्रैवल ब्लॉग के फॉलोअर्स का आंकड़ा बढ़कर चार हजार को लांघ चुका है, सोशल मीडिया पर भी ये सक्रिय हैं जिसने मुझे न सिर्फ उम्दा पाठक दिलाए हैं बल्कि देशभर के टूरिज़्म बोर्डों समेत ट्रैवल जगत की सक्रिय हस्तियों से भी मिलवाया है। इस तरह, बिना अपनी भौगोलिक—भौतिक सीमा को पार किए ही मैं अपने ब्लॉग के पंखों पर सवार होकर दुनियाभर में पहुंच जाती हूं।
आईआईएमसी दिल्ली की दीवारों के भीतर सीखा पत्रकारिता का ककहरा अलका का मार्गदर्शक है और इंटरनेट पर फैली वेबसाइटें, ट्रैवल वीडियो, एॅप्स, टि्वटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम मेरे सहयोगी हैं, वर्चुअल कुलीग्स! ब्लॉग के अलावा टि्वटर के जरिए मेरा संवाद ट्रैवल बिरादरी से लगातार होता है। मुझे लगता है कि डिजिटल पत्रकारिता का यह दौर बेहद रोमांचकारी है, लेकिन अनुशासन भी यहां जरूरी है। जो सोशल मीडिया हमें अपने समाज और शहर की बंदिशों से दूर ले जाता है उसी की गलियों में उलझकर कई बार हम अपनी मंजिल से भटक भी सकते हैं। वेब पत्रकारिता इस मायने में मुझे 'नाजुक' लगती है। ब्लॉगिंग जैसे 'सैल्फ—कंट्रोल्ड' माध्यम पर आजादी का आनंद तो है लेकिन उस पर पाठकों के लिए नियमित रूप से रोचक लेखन परोसने की चुनौती को कम नहीं आंका जा सकता। यही वजह है कि ब्लॉग शुरू कर देना जितना आसान है, उसे सस्टेन करना उतना ही मुश्किल है।
पेशे से जर्नलिस्ट अलका कौशिक ने दूरदर्शन और आकाशवाणी के न्यूज़रूम से अपना कॅरियर शुरू किया। प्रशिक्षिण प्राप्त अनुवादक होने के नाते इस बीच, करीब डेढ़ दर्जन किताबों के अनुवाद भी किए और देश की उम्दा पब्लिक रिलेशंस एजेंसियों के साथ बतौर अनुवादक—लेखक जुड़ी रही। पारिवारिक दायित्वों के चलते कुछ समय सक्रिय पत्रकारिता को अलविदा कहा, एक पीएसयू में राजभाषा अधिकारी के तौर पर कुछ साल काम किया। अलका कहती हैं, ''इस नौकरी ने मेरी सामाजिक हैसियत तो बरकरार रखी लेकिन मेरी क्रिएटिविटी के खिलाफ इसकी साजिश कम नहीं रही''। अलबत्ता, नौकरी के उन पंद्रह बरसों में उन्होंने देशभर की सैर कर डाली। फिर कुछ साल पहले मौका देखकर नौकरी को विराम दिया और अब पिछले 4
वर्षों से फुल टाइम सफर और सफरी साहित्य सृजन से जुड़ी हैं।
अलका ने बीते साल तिब्बत में कैलास—मानसरोवर तक की यात्रा ठीक उस अंदाज़ में कर डाली जिस तरह से हमारे पुरखे किया करते थे, यानी उत्तराखंड की घाटियों—दर्रों से होते हुए पैदल—पैदल। बाइस दिनों की अपनी इसी यात्रा पर इन दिनों वे एक विस्तृत वृत्तांत/गाइड बुक लिख रही हैं।
अलका देशभर के उम्दा ट्रैवल जर्नलिस्टों/ब्लॉगर्स के एक बड़े सोशल मीडिया समूह की संस्थापक—संयोजक भी हैं जो यात्राओं और यात्रा लेखकों के संसार को गतिशील बनाए रखने के लिए काम करता है।
अलका कौशिक द्वारा भेजे गये विवरण के आधार पर
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