ध्रुव शुक्ल।
छुटपन से ही सुनता आया हूं कि सबको प्रेम के रंग में रंग जाना चाहिए। उन दिनों मन में ख़याल आता कि कैसा होता होगा प्रेम का रंग --- हरा, केशरिया, सफ़ेद,गुलाबी, लाल, नीला? होली के दिन सब रंग ले आया और उन्हें एक साथ देखकर लगा कि हर रंग प्रेम का रंग है। काला रंग भी प्रेम का रंग है --- बचपन की सहेली के गाल पर काला तिल मुझे अपने पास बुलाता-सा लगता।
जब ढलती हुई सांझ में सारे रंग आकाश में घुल जाते तो लगता कि प्रेम का रंग सांवरा है। ज़्यादातर प्रेमी तो मान ही बैठे हैं कि सांवरा और गोरा ही प्रेम का रंग है। गोरी प्रिया सांवरे रंग में रंगने के लिए न जाने कबसे व्याकुल है और सांवरा तो जैसे गोरे की ही बाट जोह रहा है।
कभी बादलों के बीच दमकती दामिनी-सा, कभी दूब के तिनके पर झिलमिलाती ओस बूंद-सा और कभी घनी धुन्ध में पास आती छाया-सा भी लगता है प्रेम का रंग।
कई रंग के फूलों को देखो तो लगता है कि जैसे उनमें प्रेम की मौन पुकार बसी हुई है। उन्हें छुओ तो उनकी रंगीन पंखुड़ियां प्रेम की मौन आंच में तपती हुई-सी लगती हैं।
सब रंगों को किसी एक रंग में नहीं रंगा जा सकता।
वे अपनी-अपनी जगह पर खिलकर संसार को सुंदर बनाये हुए हैं । वन में फूलता पलाश, उपवन में खिलते गुलाब, घर के आसपास कनेर और चम्पा में खिलते पीले-सफेद फूल, पूरे चांद की दूधिया रौशनी में नहाती गोरी रात, धरती पर अपनी जड़ नहीं छोड़ती हरी दूब --- ये सब एक-दूसरे के पास खिलकर और आपस में सुंदर करते रंग नीले आसमान की छाया में कितने स्वतंत्र और कितने जाने-पहचाने-से लगते हैं।
ये सब रंग इतने पास अपने लगते हैं कि किसी रंग से दूर जाने का मन ही नहीं होता। गंगा के किनारे इन रंगों को ऋतुकालों में खिलता देख महाप्राण कवि निराला गा उठते हैं --- अमरण भर वरण गान, वन-वन, उपवन-उपवन जागी छबि, खुले प्राण.... सब रंग एक-दूसरे से कुछ कहने को व्याकुल हैं। आश्चर्य होता है कि हमारे नेता कई रंगों के जीवन के बीच बसी बहुरंगी बोली नहीं सुन पा रहे। शायद इसीलिए वे सबके नहीं हो पा रहे। उनके झण्डों में भी रंग तो होते हैं पर उजले मन के अभाव में सारे झण्डे मैले दिखायी देते हैं।
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